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सत्पदप्ररूपणाद्वार
कल्पों में उत्पन्न होते हैं वे कल्पोपपत्र कहनाते हैं।
तत्त्वार्थसूत्र की हिन्दी टीका में पं० सुखलाल जी लिखते हैं कि देवों के दो भेद हैं १. कल्पोपपन्न और २. कल्पातीत। कल्प (व्यवस्था) में रहने वाले कल्पोपपन्न और कल्प से ऊपर रहने वाले कल्पातीत हैं।
नववेयक- तत्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका (४/१९) में पूज्यपाद देवनन्दी लिखते हैं कि "नवसु अवेयकेषु" में नव शब्द का कथन अलग से क्यों किया गया है? क्योंकि अनुदिश नामक नौ विमान हैं। इससे नौ अनुदिशा का ग्रहण कर लेना चाहिए।
तत्त्वार्थसूत्र (४/२०) की टीका में सिद्धसेनगणि लिखते हैं कि तत् अवेयकानिनवोपर्युपरि। भाष्य-प्रैवेयकास्तु लोकपुरुषस्य ग्रीवाप्रदेश विनिविष्टा ग्रीवाभरणभूता अवा प्रीव्या अवैया अवेयका इति।
तत्त्वार्थसूत्र की टीका पंचममा जी (35 खिले हैं झायों में ऊपर-ऊपर अनुक्रम से नौ विमान हैं जो लोकपुरुष के ग्रीवा स्थानीय भाग में होने से अवेयक कहलाते हैं। सबसे ऊपर स्थित होने के कारण अन्तिम पाँच विमान अनुत्तर विमान कहलाते हैं। घारगतियों में गुणस्थान
सुरनारएस घडरो जीवसमासा 3 पंच तिरिए ।
मणुयगईए चउदस मिच्छठिी अपज्जत्ता ।।२२।। गाथार्थ- देव तथा नारक में चार, तिर्यंच में पांच, मनुष्य में चौदह तथा अपर्याप्त जीवों में मात्र मिथ्यादृष्टि नामक एक जीवसमास (गुणस्थान) होता है।
विवेचन-देव तथा नारकी में विरति संभव न होने से चार गुणस्थान ही होते हैं। तिर्यच गति में अणुव्रतों की संभावना होने से पाँच गुणस्थान कहे गये है। मनुष्य में चौदह गुणस्थान संभव हैं तथा लब्धिअपर्याप्ततियच तथा लब्धिअपर्याप्तमनुष्य में मात्र प्रथम गुणस्थान ही संभव है।
२ इन्द्रिय मार्गणा इन्द्रियों के आधार पर जीवों के भेद एवं गुणस्थान
एगिदिया य वायरसुहमा पज्जत्तया अपम्जता । बियतियचाउरिदिय दुविहमेय पज्जत योग ।।२३।। परिदिया असण्णी सण्णी पाजतया अपज्जत्ता । पंचिदिएस चोरस मिच्छदिडी भवे सेसा ।।२४।।