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सत्पदाप्ररूपणाद्वार तल से नौ सौ योजन की ऊंचाई पर ग्रह, नक्षत्र और तारागण हैं। मनुष्य लोक के ज्योतिष्क सदा मेरु के चारो ओर भ्रमण करते रहते हैं। मनुष्य लोक में एक सौ बत्तीस सूर्य तथा इतने ही चन्द्र है। मनुष्य लोक से बाहर के सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्क देवों के विमान स्थिर हैं और संख्या में असंख्यात हैं।
वैमानिक- वैमानिक देवी के दो भेद हैं (अ) कल्पोपपन्न तथा (ब) कल्पातीत। कल्प अर्थात् एक प्रशासनिक व्यवस्था के अधीन रहने वाले कल्पोपपन्न तथा प्रशासनिक व्यवस्था से परे रहने वाले कल्पातीत कहलाते हैं। इन वैमानिक देवों के विमान एक दूसरे के ऊपर-ऊपर स्थित है।
सौधर्म से अच्युतकल्प तक के देव कल्पोपपन्न हैं और इनसे ऊपर के सभी देव कल्पातीत हैं। कल्पोपपन्न देवों में स्वामो-सेवक भाव होता है, किन्तु कल्पातीत में नहीं।
कल्पातीत देव भी दो प्रकार के हैं (अ) प्रैवेयक तथा (ब) अनुत्तर। जो चौदह रज्जुप्रमाण लोकपुरुष के ग्रीवा प्रदेश में हैं, वे ग्रेवेयक देव हैं। इनकी संख्या नौ है तथा ये देवगति से तो मनुष्य गति में हो उत्पन्न होते हैं किन्तु कालान्तर में चारों गति के अधिकारी हो सकते हैं क्योंकि नववेयक तक अभव्य जीव भी जा सकते हैं। अभव्य जीव कभी मोक्ष के अधिकारी न होने से वे चारों गतियों में भ्रमण करते रहते हैं। इनसे ऊपर वाले देव अनुत्तरविमानवासी हैं, जिनकी संख्या पाँच है। इनमें सर्वार्थसिद्ध विमानवासी देव एक भवतारी होते हैं तथा शेष चार अनुत्तर विमानवासी देव दो या तीन भव करके नियमत: मोक्ष जाते हैं। पवनपति देवों के मेद
असुरा नागसुवन्ना दीवोदहिथणियविजुदिसिनामा ।
वायग्गिकुमाराविय दसेव मणिया भवणवासी ।।१७।। गाथार्थ- १. असुरकुमार, २. नागकुमार, ३. सुवर्णकुमार, ४. द्वीपकुमार, ५. उदधिकुमार, ६. स्तनितकुमार, ७. विद्युतकुमार, ८. दिशिकुमार, ९.वायुकुमार
और १० अग्निकुमार- ये भवनवासी देवों के दस प्रकार कहे गये हैं। व्यन्तरों के भेद
किंनरपुिरिसमुहोरगा य गंधव्य रखसा जम्खा ।
भूया य पिसायाविय अविहा वाणमंतरिया ।।१८।। गाथार्थ-- १. किन्नर, २. किंपुरुष, ३. महोरग, ४. गन्धर्ष, ५. राक्षस, ६. यक्ष, ७. भूत तथा ८. पिशाच- ये वाणव्यन्तर देवों के आठ प्रकार हैं।
विशेष- किनर दस प्रकार के, किंपुरुष दस प्रकार के, महोरग दस प्रकार