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जीवसमास में गर्भज मनुष्य के १. माल (विष्टा) २ पेशाब, २ कफ. ४, नाक का मैल, ५, वमन (उल्टी), ६. पित्त, ७. मवाद, ८, रक्त ९. शुक्र (वीर्य) १०. सूखे हुए शुक्र के पुद्गल के गीला होने पर, ११. मृत कलेवर १२. स्त्री पुरुष के संभोग, १३. नगर की नालियों तथा १४. समस्त अशुचि स्थानों में स्वतः (बिना गर्भ के) सम्मच्छिम मनुष्य पैदा होते हैं। सम्मूछिम मनुष्य एक साथ असंख्य उत्पन्न होते हैं तथा वैसे ही मर जाते हैं। इनकी आयु अन्तर्मुहूर्त एवं देह अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी होती है। ये नियम से असंज्ञी तथा अपर्याप्त ही होते हैं। देवगति
देवा य भवणवासी वंतरिया जोइसा य वेमाणी । कप्योवगा य नेया विज्जाणुतरसुराय ।।१६।।
गाथार्थ-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क तथा वैमानिक देव कल्पोपपन्न हैं। प्रैवेयक तथा अनुत्तरविमानों के देव कल्पातीत कहे जाते हैं।
विवेचन- इस गाथा में देवों के चार प्रकार बताये गये हैं।
भवनपति.. दस प्रकार के भवनपतियों के नाम आगे गाथा में बताये गये हैं। ये देव जम्बूद्वीपवर्ती सुमेरुपर्वत के नीचे उसके दक्षिण और उत्तरमाग में तिरछे अनेक लक्ष योजन तक रहते हैं। असुरकुमार प्राय: आवासों में और कभी भवनों में बसते हैं तथा नागकुमार आदि सब प्रायः भवनों में ही बसते हैं। इनके आवास रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर-नीचे के एक-एक हजार योजन को छोड़कर बीच में एकलाख अठहतर हजार (१,७८,०००) योजन के भाग में सब जगह हैं पर भवन तो रत्नप्रभा के नीचे नब्बे हजार योजन के भाग में ही होते हैं। इनके आवास बड़े मण्डप जैसे तथा भवन नगर के समान होते हैं। भवन बाहर से गोल भीतर से समचतुष्कोण और तल में पुष्करकर्णिका के समान होते हैं। ये देव क्रीड़ा-प्रिय तथा दिखने में मनोहर होते हैं।
व्यन्तर-सभी व्यन्तर, देव ऊर्ध्व, मध्य और अधः तीनों लोकों में विविध गिरि-कन्दराओं, शून्यगृहों, वृक्षों, वापिकाओं तथा वनों के अन्तराल में निवास करते हैं। इसी कारण उन्हें व्यन्तर कहा जाता है। व्यन्तरों के आठ भेद आंगे गाथा में बताये गये हैं। सामान्यत: भूत, प्रेत आदि की गणना व्यन्तर जाति के देवों में की जाती हैं।
ज्योतिष्क-मेरु के समतल भू-भाग से सात सौ नब्ने योजन की ऊँचाई पर ज्योतिषचक्र का क्षेत्र आरम्भ होता है। आठ सौ योजन की ऊँचाई पर सूर्य के विमान हैं। सूर्य विमान से अस्सी योजन की ऊँचाई पर अर्थात् तल से आठ सौ अस्सी योजन की ऊँचाई पर चन्द्र के विमान हैं। यहाँ से बीस योजन अर्थात्