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सत्पदप्ररूपणाद्वार हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजणपवाले । अन्मपाडलउम्मवालय बाघरकाए मणिविहाणा ।। २८।। गोमेज्जए य सयए अंके फलिहे य लोहियक्खे य । चंदप्यह वेलए जलकंत सूरकंते य ।।२९।। गेरुय चंदण वध (प्प) मे भुगमोए तह मसारगल्ले य ।
वण्णाईहि य मेदा सहपाणं वस्थि ते(मे) भेषा ।।३।।
गाथार्थ- पृथ्वीकाय के कंकर, रेत, पत्थर, शिला, नमक, लोहा, ताँबा, सीसा, चौदी, सोना, हीरा, हरिताल, हिंगुल, मैनसिल, सास (धातु विशेष), रङ्गन, प्रवाल, अभ्रकपरत, अभ्रकबाल, मणि आदि बादर पृथ्वीकाय के प्रकार हैं।
गोमेद, रुचक, अंक, स्फटिक, लोहिताक्ष, चन्द्रप्रभ, वैदूर्य, जलकान्त, सूर्यकान्त- ये सभी रत्नों के भेद हैं।
गेरू, चन्दन, वधक, मुजमोचक, मसारगल्ल तथा इनके वर्णादि के अनेक भेदों के कारण बादर (स्थूल) पृथ्वीकाय के अनेक भेद हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकाय का कोई भेद नहीं है।।२७-३०।।
विवेसन-पृथ्वी ही है काया जिनकी, उसे पृथ्वीकाय कहते हैं। जब तक यह मिट्टी, धातु आदि खदान में रहती है तब तक सजीव होती हैं, परन्तु खदानादि से निकलने के बाद वे धातु आदि अचित/निर्जीव हो जाती है।
धातुओं में सोना, चाँदी, जस्ता, ताँबा, काँसा, लोहा आदि जब तक खदानों में हैं वे सजीव पृथ्वीकाय है। रत्नों में माणिक्य, मूंगा, पन्ना, पुखराज, हीरा आदि भी खदानों में होने तक पृथ्वीकाय के अन्तर्गत आते हैं।
उत्तराध्ययन के छत्तीसवें अध्ययन (गाथा ७३-७४-७५) में भी पृथ्वीकाय का यथावत् वर्णन है, किन्तु यहाँ "चन्दन" को पृथ्वीकाय का भेद माना गया है। संभवत: सूखे चन्दन वृक्ष की जड़ों को पृथ्वी में से खोदकर निकाले जाने के कारण पृथ्वीकाय माना गया हो अथवा चन्दन के समान सुगंधित मिट्टी का कोई प्रकार हो। अप्काय के भेद
ओसाय हिम महिगा हरतणु सुखोदए घणोए य। घण्णाईहि य प्रेया सुहमाणं नत्यि से मेवा ।।३१।।
गाथार्थ- ओस, हिम, धूअर का पानी, वनस्पति पर स्थित पानी, शुद्ध पानी, घनोदधि (पत्थर तुल्य जमा हुआ पानी अर्थात् बर्फ)- ये अपकाय के भेद