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जीवसमास प्रत्येक वनस्पतिकाय-उत्तराध्ययनसूत्र (३६.९४,९५) में गुच्छ (बैगन), गुल्म (नवर्माल्लकादि), लता (चम्पकलतादि), वल्ली (भूमि पर फैलने वाली ककड़ी आदि की बेल), तृण (दूब), लतावलय (केलादि), पर्वज (ईख), कुहण (भूमिस्फोट, कुकुरमुत्ता) जलरुह (कमल) आदि को प्रत्येक वनस्पतिकाय कहा गया
गुल्म और गुच्छे में अन्तर-गुच्छ वह होता है जिसमें पत्तियाँ या केवल पतली टहनियां फैली हों जैसे--- बैंगन, तलसी आदि। गुल्म वे हैं जो एक जड़ से कई तनों के रूप में निकले जैसे- कटसरैया, कैर आदि।
लता और वाल्ली में अन्तर- लता किसी बड़े पेड़ से लिपट कर ऊपर फैलती है, जबकि बल्ली भूमि पर ही फैल कर रह जाती है जैसे- माधवी, अतिमुक्तक आदि लता है तथा ककड़ी, खरबूजे की वल्ली (बेल) होती है।
प्रज्ञापनासूत्र (गाथा ५४/१-११ एवं ५५/१-३) में साधारण वनस्पतिकाय की विस्तार से चर्चा करते हुए साधारण व प्रत्येक वनस्पतिकाय का भेद बताया गया है- मूल, कन्द, स्कन्ध, छाल, शाखा, प्रवाल (कोपल), पत्ते, पुष्पादि यदि समभंग वाले हों तथा उनकी छाल मोटी हो तो उसे अनन्तकाय समझना चाहिए। इसके विपरीत जिसका भंग विषम हो, जो असम टूटे उसे प्रत्येक वनस्पति समझना चाहिए।
स्थानांगसूत्र (तृतीयस्थान, प्रथम उद्देश्यक सूत्र १०४ में।) तृणवनस्पतिकाय के तीन प्रकार के बताये गये हैं१. संख्यात जीव वाले– नस से बंधे हुए पुष्प, फूल-फलादि।
२. असंख्यात जीव वाले– वृक्ष के मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वक्, छाल, शाखा और प्रवाल।
३. अनन्त जीव वाले- पनक, फफूंदी, लीलन-फूलन, जमीकन्द आदि। सेवालपणकिण्हग कषया कुहुणा य हायरो काओ । सध्यो य सहुमकाओ सम्वत्र जलस्थलागासे ।। ३६।।
गाथार्थ-सेवाल (पानी के ऊपर जमने वाली काई), पणग (पांच प्रकार की लीलन-फूलन), किण्हग (वर्षाऋतु में घड़े में जमने वाली काई), कवया (भूमि स्फोट-छत्राकार वनस्पति), कुहुणो अर्थात् बिल्ली का टोप- ये बादर वनस्पतिकाय के भेद हैं।
'सूक्ष्म वनस्पतिकाय जल, स्थल और लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त हैं।