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जीवसमास
५. भाषापर्याप्ति - भाषा - योग्य पुद्रलों को ग्रहण कर उन्हें भाषा रूप में परिणत करने वाली शक्ति को भाषापर्याप्ति कहते हैं।
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६. मनः पर्याप्ति मनोवर्गणा रूपी पुद्गलों को एकत्रित कर उन्हें मन रूप में परिणत करने वाली शक्ति को मन पर्याप्ति कहते हैं।
एकेन्द्रिय जीवों को प्रथम चार, असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय जीवों को मनः पर्याप्त छोड़कर शेष पाँच तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों को छः पर्याप्तियाँ होती हैं।
३. काय मार्गणा
कायमार्गणा एवं गुणस्थान
पुढविदगअगणिमारुय साहारणकाड़या चउदा उ पत्तेय तसा दुविहा चोइस तस लेसिया मिच्छा
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।। २६ ।।
गावार्थ- पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय वायुकाय तथा साधारणवनस्पतिकाय के चार-चार प्रकार हैं। प्रत्येक वनस्पति तथा त्रसकाय के दो-दो प्रकार हैं। इनमें से त्रसकाय में चौदह गुणस्थान होते हैं शेष में मात्र मिध्यात्व गुणस्थान होता है।
विवेचन - प्रत्येक वनस्पतिकाय को छोड़कर शेष सभी पांचों कायों के चार-चार भेद हैं— सूक्ष्म, बादर (स्थूल), पर्याप्त तथा अपर्याप्त । प्रत्येक वनस्पतिकाय तथा त्रस के दो भेद हैं- पर्याप्त तथा अपर्याप्त।
वस अर्थात् पंचेन्द्रिय जीवों में चौदह गुणस्थान सम्भव हैं तथा शेष सभी में मात्र मिध्यात्व गुणस्थान होता है।
पाँचों ही कायों के दो भेद हैं- सूक्ष्म तथा बादर । बादर वे हैं जो चर्म चक्षुओं से दिखाई देते हैं तथा सूक्ष्म वे हैं जो चर्मचक्षुओं से दिखाई नहीं देते, छेदने से छिद्रते नहीं, भेदने से भिदते नहीं, जलाने से जलते नहीं, ये पाँचों ही सूक्ष्म काय सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त हैं अर्थात् ठसाठस भरे हुए हैं। केवली कथन से ही इसे मान्य किया जाता है।
अब पाँचों कायों के भेद बताते हैं—
पृथ्वीकाय के भेद
पुढवी य सक्करा वालुया व उबले सिला व लोणूसे । अयतं तठयसीसय रुम्पसुवणे
य वइरेय ।। २७ ।।