________________
१७
मंगलाचरण विवेचन-प्रस्तुत गाथा में अयोगी के दो प्रकर बताये गये है- १. सशरीरी (सभव) २. अशरीरी (अभव)। चौदहवें गुणस्थानवी जीव सशरीरी अयोगी होते हैं। वे देह त्यागकर अभी सिद्ध नहीं बने हैं। उन्हें सिद्ध बनने मे अ, इ, उ, ऋ, लू के उच्चारण में जितना समय लगता है उतना काल शेष रहता है। योग निरोध कर लेने पर भी उन्हें सिद्ध से कुछ कम योग्यता वाला माना गया है।
जिन्होंने शरीर का त्याग कर अष्टकर्म को नष्ट कर दिया है तथा जो सिद्ध-शिला पर पहुंच गये हैं ऐसे अयोगी सिद्ध को प्रस्तुत गाथा में अभव-अयोगी संज्ञा से अभिहित किया गया है। अन्न, यहाँ पर नाद योगी के भी दो सपव अयोगी तथा अभव अयोगी के रूप में बताये गये हैं।