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मङ्गलाचरण यह गुणस्थान चारो गतियों के संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव प्राप्त कर सकते हैं।
५. देशविरत गुणस्थान- जब सम्यक्-दृष्टि जीव अप्रत्याख्यानी (अनियंत्रणीय) कषायचतुष्क का उपशम, क्षयोपशम या क्षय कर देता है तब वह त्रस जीवों की हिंसा आदि स्थूल पापों से विरत होता है किन्तु स्थावर जीवों की हिंसादि सूक्ष्म पापों से अविरत ही रहता है।
विकास क्रम की यह पांचवीं श्रेणी नैतिक आचरण की प्रथम सीढ़ी है जहाँ से साधक नैतिकता के पथ पर चलना प्रारम्भ करता है। चतुर्थ गुणस्थान में वह सचि- अनुति को गारो हुए भी चारित्र के मार्ग पर आरूढ़ नहीं हो पाता, जबकि पंचम गुणस्थान में यथाशक्ति सम्यक् आचरण का प्रयास प्रारम्भ कर देता है।
देशविरति का अर्थ है वासनामय जीवन से आंशिक रूप में नित्ति। इसमें वह यथाशक्ति अहिंसा, सत्य, अचौर्य आदि अणुव्रतों को ग्रहण करता है।
६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान- जब उक्त सम्यक-दृष्टि जीव के प्रत्याख्यानीय (नियंत्रणीय) कषायचतुष्क का उपशम या क्षयोपशम हो जाता है तब वह स्थूल एवं सूक्ष्म सभी हिंसादि पापों का त्याग कर महाव्रतों को अर्थात् सकल संयम को धारण करता है। फिर भी संज्वलन कषाय और नोकषाय का उदय होने से प्रमाद तो बना ही रहता है। ऐसे साधकों में क्रोधादि कषायों को बाह्य अभिव्यक्ति का तो अभाव हो जाता है, यद्यपि आन्तरिक रूप में एवं बीज रूप में वे बनी रहती हैं अत: यदा-कदा क्रोधादि कषायवृत्तियाँ उनके अन्तर मानस को झकोरती रहती हैं। ऐसी दशा में भी साधक अशुमाचरण और अशुभ मनोवृत्तियों पर पूर्णत: विजय प्राप्त करने के लिए दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ने का प्रयास करता है। जबजब वह कषाय आदि प्रमादों पर विजय प्राप्त कर लेता है तब-तब वह आगे के गुणस्थान (अप्रमत्तसंयत गुणस्थान) में चला जाता है और जब-जब कषाय आदि प्रमाद उस पर हावी हो जाते हैं तब-तब वह पुन: लौट कर इसी वर्ग में आ जाता है। वस्तुत: यह उन साधकों का विश्रान्ति स्थल है जो साधना के पथ पर प्रगति तो करना चाहते हैं लेकिन यथेष्ट शक्ति के अभाव में आगे नहीं बढ़ पाते। अत: इस वर्ग में रहकर विश्राम करते हुए कषायरूपी शत्रुओं को समूल नष्ट करने हेतु शक्ति संचय करते हैं।
इस गुणस्थान में बाह्य आचरण की शुद्धि के साथ-साथ भावशुद्धि का प्रयास भी चलता रहता है।
इस स्थान में आत्म-कल्याण के साथ-साथ लोक-कल्याण की भावना और तदनुरूप प्रवृत्ति भी होती है। यहाँ आत्मा पुद्गलासक्ति या कर्तृत्व भाव का त्याग