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मङ्गालाचरण समवायांग के १४वें समवाय के सूत्र ५० में कर्मों की विशुद्धि की अपेक्षा से चौदह जीवस्थान (गुणस्थान) कहे गये हैं।
जैन विचारधारा में नैतिक एवं आध्यात्मिक विकासक्रम की चौदह अवस्थाएँ मानी गई हैं, जिन्हें चौदह गुणस्थानों के नाम से जाना जाता है। 'गुण' शब्द प्राचीन काल में धागे के अर्थ में भी प्रयोग किया जाता था। धागे का कार्य हैं बांधना। जीव के बंधन से विमुक्ति के बीच की जो चौदह अवस्थाएँ हैं, वे ही गुणस्थान हैं। इन बौदह अवस्थाओं को प्राप्त जीव संसार में रहता हैं और इन अवस्थाओं को पार करने वाला जीव मुक्त या सिद्ध कहलाता है।
१. मिश्यादृष्टि गुणस्थान- यह जीव अनादि काल से मिथ्याभावों, मिथ्या आकांक्षाओं एवं मिथ्या आग्रहों से जकड़ा हुआ है। ऐसी स्थिति में वह सत्यानुभूति से वंचित रहता है। उसकी दृष्टि मात्र बहिर्जगत् की ओर रहती है। यथार्थ बोध के अभाव में वह सतत बाह्य सुखों की प्राप्ति की कामना करता है। इस गुणस्थान में रहा जोव दिग्भ्रमित होकर इधर-उधर भटकता रहता है।
इस गुणस्थान में जीव की जीवादितत्त्वों के प्रति सम्यक श्रद्धा नहीं होती। ऐसा जीव सांसारिक विषयों का ज्ञाता होने पर भी आत्मस्वरूप का ज्ञाता न होने से अज्ञानी कहा जाता है तथा मोह की प्रबलता के कारण उसमें अपने आध्यात्मिक विकास की इच्छा और प्रयत्नों का अभाव होता है। ऐसी निम्नतम स्थिति वाले जीव मिथ्यात्वगुणस्थानवीं कहे जाते हैं।
२. सासादन या सास्वादन गुणस्थान-स अर्थात् सहित तथा आस्वादन अर्थात् अनुभूति। अत: जिन जीवों में सम्यक् दर्शन का आस्वादन शेष रहता है, वे सास्वादन गुणस्थानवर्ती कहे जाते हैं। विकासक्रम में इसे द्वितीय स्थान प्राप्त हैं फिर भी यह गुणस्थान आत्मा को पतनोन्मुख अवस्था का ही घोतक है। प्रथम गुणस्थानवर्ती कोई भी आत्मा इसमें नहीं जाती वरन् जब कोई आत्मा चतुर्थ गुणस्थान से पतित होती है, तब वह खायी हुई खीर के वमन के समय होने वाले आस्वादन तुल्य एक समय से लेकर उत्कृष्ट छ: आवलिका काल तक बमन किये गये सम्यक्त्य के आस्वादन से युक्त रह सकता है। जीव की इस पतनोन्मुख दशा का नाम सास्वादन गुणस्थान है। कुछ आचार्य इसकी व्याख्या इस प्रकार करते हैं कि “जीव सम्यक्त्व की आसादना (आसातना/विराधना) करके गिरता है इसलिए इसे सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहा जाता है। सम्यक्त्वरूपी पर्वत के शिखर से च्युत, मिथ्यात्व रूपी भूमि के समभिमुख और सम्यक्त्व के नाश को प्राप्त जीव को सासादन नाम वाला जानना चाहिए।" (पञ्चसंग्रह, दिगम्बर, १/७)