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जीवसमास
गुणस्थान
विकास मिला अधिरयसम्मा ४ च देसविरया ५ य। विरया पमल पावरे ७ अपुष्य ८ अणियष्टि ९ सहमा १० य ।।८।। अवसंत ११ खीणमोहा १२ सजोगिकेवलिजिणो १२ अजोगी १४ य। धोइस जीवसमासा कमेण एएऽणुगंतव्या।।९।।
गाथार्थ- १. मिथ्यात्व, २. सासादन (सास्वादन), ३. मिश्र (सम्यक्मिथ्या), ४, अविरत--- सम्यक्-दृष्टि, ५. देशविरत, ६. सर्वविरत प्रमत्तसंयत, ७. अप्रमत्तसंयत, ८. अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०, सूक्ष्मसम्पराय, ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगीकेवली तथा १४ अयोगीकेवली। इन चौदह जीवसमासों (गुणस्थानों) को क्रमश: जानना चाहिए। विवेचन
गुणस्थान का सामान्य लक्षण-दर्शनमोहनीयादि कमों के उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम आदि अवस्थाओं के होने पर उत्पन्न होने वाले जिन भावों से जीव-लक्षित किये जाते हैं उन्हें सर्वदर्शियों ने “गुणस्थान" संज्ञा से निर्दिष्ट किया है।
--(पंचसंग्रह १/३) मोहनीयकर्म के उदय, उपशम, क्षयोपशम एवं क्षय के कारण और मन, वचन तथा काय की प्रवृत्ति के कारण जीव के अंतरंग परिणामों (भावों) में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ाव का नाम गुणस्थान है। परिणाम (भाव) यद्यपि अनन्त हैं, परन्तु सर्वाधिक मलिन परिणामों से लेकर उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों तक तथा
उससे ऊपर जघन्य वीतराग-परिणाम से लेकर उत्कृष्ट वीतराग-परिणाम तक की • अनन्त वृद्धियों के क्रम को वक्तव्य बनाने के लिए जीवों को जिन चौदह श्रेणियों में विभाजित किया गया है, वे चौदह श्रेणियाँ गुणस्थान कहलाती हैं।
(जैनेन्द्रसिद्धान्तकोस, भाग २, पृष्ठ २४५) आत्मशक्तियों अथवा गुणों के क्रमिक विकास को गुणस्थान कहते हैं। आत्मा की अवस्था किसी समय अज्ञानपूर्ण होती है। यह अवस्था सबसे प्रथम होने के कारण निकृष्ट है। उस अवस्था से आत्मा अपने सम्यक-दर्शन, सम्यकचारित्र आदि गुणों के विकास द्वारा धीरे-धीरे ऊपर चढ़ता है। धीरे-धीरे उन आध्यात्मिक गुणों का विकास करता हुआ विकास की चरम सीमा तक पहुँच जाता है। विकासक्रम के समय होने वाली आत्मा की इन भिन्न-भित्र अवस्थाओं को चौदह भागों में विभाजित कर इन्हें चौदह गुणस्थानों के नाम से जाना जाता है।
(आध्यात्मिक विकासक्रम- पं. सुखलाल जी)