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भूमिका
पाई जाती हैं। इसी मार्गणा के अन्तर्गत सचित्त- अचित्तादि योनियों और कुलकोडियों का वर्णन कर पृथिवीकायिक आदि जीवों के आकार और प्रतकायिक जीवों के संहनन और संस्थानों का भी वर्णन कर दिया गया है, जो प्रकरण को देखते हुए जानकारी की दृष्टि से बहुत उपयोगी है।
योगमार्गणा से लेकर आहारमार्गणा तक का वर्णन षट्खण्डागम के जीवस्थान के समान ही है। जीवसमास में इतना विशेष है कि ज्ञानमार्गणा में आभिनिबोधिक शाम के अदद का संघमा में पुलाक, बकुशादिका, लेश्यामार्गणा में द्रव्यलेश्या का और सम्यक्त्वमार्गणा में क्षायोपशमिक सम्यक्त्व आदि के प्रकरणवश कर्मों के देशघाती, सर्वघाती आदि भेदों का भी वर्णन किया गया है। अन्त में साकार और अनाकार उपयोग के भेदों को बतलाकर और 'सव्वे तल्लक्खणा जीवा' कहकर जीव के स्वरूप को भी कह दिया गया है।
यहाँ पर पाठकों की जानकारी के लिए दोनों के समतापरक एक अवतरण को दे रहे हैं
जीवसमास
अस्सणि अमणपंचिंदियंत सण्णी व समण छतमत्वा ।
नो सर्पिण नो असण्णी केवलनाणी व विपणेआ ।। ८१ ।।
XXXV
जीवस्थान
सणिबाणुवादेण अस्थि सण्णी असण्णी ।।१७२ ।। सपणी मिच्छाडिप्पहूडि जाव खीण कसायवीयरामछदुमत्या सि३ । १७३ ।। असण्णी एइंदिप्यहुडि जाव असण्णिापंविंदिया त्ति ।। १७४ । ।
पाठकगण इन दोनों उद्धरणों की समता और जीवसमास की कथन शैली की सूक्ष्मता के साथ 'नो संज्ञी और नो असंज्ञी' ऐसे केवलियों के निर्देश की विशेषता का स्वयं अनुभव करेंगे।
दूसरी संख्याप्ररूपणा या द्रव्यप्रमाणानुगम का वर्णन करते हुए जीवसमास में पहल प्रमाण के द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप चार भेद बतलाये गये हैं। तत्पश्चात् द्रव्यप्रमाण में मान, उन्मानादि भेदों का क्षेत्रप्रमाण में अंगुल (हस्ते) धनुष आदि का कालप्रमाण में समय, आवली, उच्छ्वास आदि का और भावप्रमाण में प्रत्यक्ष-परोक्ष ज्ञानों का वर्णन किया गया है। इनमें क्षेत्र और कालप्रमाण का वर्णन खूब विस्तार के साथ क्रमशः १४ और ३५ गाथाओं में किया गया है। जिसे कि धवलाकार ने यथास्थान लिखा ही है। इन चारों प्रकार