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अज्ञात पूर्वधर आचार्य द्वारा विरचित
जीवसमास (चौदह-गुणस्थान विवेचन)
दस चोइस य जिणवरे घोडस गुणजाणए नमंसिता।
घोहस जीवसमासे समासओऽणुक्कमिस्सामि।।१।।
गाथार्थ- दस और चौदह अर्थात् चौबीस श्रेष्ठ जिनों को, जो चौदह गुणस्थानों के ज्ञाता हैं, नमस्कार करके मैं चौदह जीवसमासों (चौदह गुणस्थानों) का अनुक्रम से संक्षेप में विवेचन करूंगा।
विवेघन-ग्रन्थकार अपनी रचना की निर्विघ्न समाप्ति हेतु रचना के प्रारम्भ, मध्य और अन्त में मङ्गलाचरण करते हैं। प्रस्तुत कृति में रचनाकार ने प्रथम गाथा में चौबीस जिनेश्वरों को नमस्कार किया है एवं उन्हें चौदह गुणस्थानों का ज्ञाता बताया है। यहाँ प्रश्न यह उठता है कि तीर्थकर तो सर्वज्ञ, सर्वदशी होते हैं फिर उन्हें मात्र चौदह गुणस्थानों का ज्ञाता ही क्यों कहा गया है?
इसका प्रथम उत्तर तो यह है कि समस्त जीवराशि चौदह गुणस्थानों में वर्गीकृत है, अत: चौदह गुणस्थानों के ज्ञान में समस्त लोक के जीव-जगत् का
और उनके सम्बन्ध से समस्त लोकालोक का ज्ञान निहित है। इस प्रकार इससे उनकी सर्वज्ञता की ही पुष्टि होती है। इसका दूसरा उत्तर यह भी हो सकता है कि रचनाकार अपनी रचना में चौदह गुणस्थानों का विवेचन करने जा रहा है, अतः तीर्थकर भगवान को चौदह गुणस्थानों का झाता कहकर रचनाकार यह स्पष्ट करना चाहता है कि वह अपनी इस कृति में जिन चौदह गुणस्थानों का विवेचन कर रहा है वे उनके द्वारा ज्ञात एवं प्रशप्त हैं। इस प्रकार वह एक ओर अपनी विनम्रता और दूसरी ओर अपने विवेचन की प्रामाणिकता को ही पुष्ट करता है।
प्रस्तुत गाथा की एक विशेषता यह भी है कि इसमें गुणस्थान और जीव-समास को पर्यायवाची माना गया है।