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भूमिका
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होकर उसके अर्थ का गुणन (चिन्तन और मनन) करता है, उसकी बुद्धि विपुल (विशाल) हो जाती है। उपसंहार
इस प्रकार जोवसमास की रचना देखते हुए उसकी महत्ता हृदय पर स्वतः ही अंकित हो जाती है और इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि उसके निर्माता पर्ववेत्ता थे, ण नहीं क्योंकि उन्होंने उपर्यत उपसंहार गाथा में स्वयं ही 'बहुभंगदिठिवाए' पद देकर अपने पूर्ववेत्ता होने का संकेत कर दिया है।
समग्न जीवसमास का सिंहावलोकन करने पर पाठकगण दो बातों के निष्कर्ष पर पहुँचेंगे- एक तो यह कि वह विषय वर्णन की सूक्ष्मता और माता की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण प्रन्य है और दूसरी यह कि षट्खण्डागम के जीवडाण-प्ररूपणाओं का वह आधार रहा है।
यद्यपि जीवसमास की एक बात अवश्य खटकने जैसी है कि उसमें १६ स्वर्गों के स्थान पर १२स्वर्गों के ही नाम हैं और नव अनुदिशों का भी नाम-निर्देश नहीं है, तथ्यापि जैसे तत्त्वार्थसूत्र के ‘दशाष्टपञ्चद्वादशविकल्पाः ' इत्यादि सूत्र में १६ के स्थान पर १२कल्पों का निर्देश होने पर भी इन्द्रों की विवक्षा करके
और 'नवसु ग्रैधेयकेषु विजयादिषु' इत्यादि सूत्र में अनुदिशों के नाम का निर्देश नहीं होने पर भी उसकी 'नवसु' पद से सूचना मान करके समाधान कर लिया गया है उसी प्रकार से यहाँ भी समाधान किया जा सकता है।
षट्खण्डागम के पृ० ५७२ से लेकर ५७७ तक वेदनाखण्ड के वेदनाक्षेत्रविधान के अन्तर्गत अवगाहना-महादण्डक के सू० ३० से लेकर ९९वें सूत्र तक जो सब जीवों की अवगाहना का अल्पबहुत्व बतलाया गया है, उसके सूत्रात्मक बीज यद्यपि जीवसमास की क्षेत्रप्ररूपपणा में निहित है, तथापि जैसा सीधा सम्बन्ध, गो० जीवकाण्ड में आई हुई 'सुहमणिवाते आम्' इत्यादि (गा० ९७ से लेकर १०१ तक की) गाथाओं के साथ बैठता है, वैसा अन्य नहीं मिलता। इन गाथाओं की रचनाशैली ठीक उसी प्रकार की है, जैसी कि वेदनाखण्ड में आई हुई चौसठ पदिकवाले जघन्य और उत्कृष्ट अल्पबहुत्व की गाथाओं की है। यत: गो० जीवकाण्ड में पूर्वाचार्य-परम्परा से आने वाली अनेकों गाथाएँ संकलित पायी जाती हैं, अत: बहुत सम्भव तो यही है कि ये गाथाएँ भी वहाँ संगृहीत ही हों। और, यदि वे नेमिचन्द्राचार्य रचित हैं, तो कहना होगा कि उन्होंने सचमुच पूर्व गाथा-सूत्रकारों का अनुकरण किया है।