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जीवसमास
दोनों ग्रन्थों के दोनो उद्धरणों से बिल्कुल स्पष्ट हैं कि खुदाबन्ध के अल्पबहुत्व का वर्णन उक्त दोनों गाथाओं के आधार पर किया गया हैं। इसी प्रकार खुद्दाबन्ध के अल्पबहुत्व-सम्बन्धी सू० १६ से २१ तक का आधार जीवसमास को २७५वीं गाथा है, सू० ३८ से ४४ तक का आधार २७६वीं गाथा हैं।
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खुदाबन्ध मे मार्गणाओं के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा के पश्चात् जो अल्पब्दण्डक है. उसके लेकर ४६ सूत्र तक की अल्पबहुत्व - प्ररूपणा का आधार जीवसमास की गा० २७३ और २७४ है।
जीवस्थान के भीतर गुणस्थानों के अल्पबहुत्व का जो वर्णन सू० २ से लेकर २६ वें सूत्र तक किया गया है, उसका आधार जीवसमास की २७७ और २७८वी गाथा है। पुनः मार्गणास्थानों में गतिमार्गणा का अल्पबहुत्व गुणस्थानों को साथ कहा गया है। इन्द्रिय और कायमार्गणा के अल्पबहुत्व की वे ही गाथाएँ आधार हैं, जिनकी चर्चा अभी खुद्दाबन्ध के सूत्रों के साथ समता बताते हुए कर आए हैं। अन्त में शेष अनुक्त मार्गणाओं के अल्पबहुत्व जानने के लिए २८१वीं गाथा में कहा गया हैं कि
'एवं अप्पाबहुयं दव्वपमाणेहि साहेज्जा' ।
अर्थात् इसी प्रकार से नहीं कही हुई शेष सभी मार्गणाओं के अल्पबहुत्व को द्रव्यप्रमाणानुगम (संख्याप्ररूपणा) के आधार से सिद्ध कर लेना चाहिए।
जीवसमास का उपसंहार करते हुए सभी द्रव्यों का द्रव्य की अपेक्षा अल्पबहुत्व और प्रदेशों की अपेक्षा अल्पबहुत्व बतलाकर अन्त में दो गाथाएँ देकर उसे पूरा किया है, जिससे जीवसमास नामक प्रकरण की महत्ता का बोध होता है। वे दोनों गाथाएं इस प्रकार हैं
१ )
बहुभंगदिद्विवाए दिल्याणं जिनवरोवड्डाणं ।
धारणधत्तट्टो पुण जीवसमासत्य उवजुत्तो ।। २८५ ।। एवं जीवाजीवे वित्यरमिहिए समासनिदिने ।
उवजुतो जो गुणए तस्स मई जायए विउला ।। २८६ ।।
२)
अर्थात् जिनवरों के द्वारा उपदिष्ट और बहुभेद वाले दृष्टिवाद में दृष्ट अर्थों की धारणा को वह पुरुष प्राप्त होता है, जो कि इस जीवसमास में कहे गये अर्थ को हृदयङ्गम करने में उपयुक्त होता है। इस प्रकार द्वादशाङ्ग श्रुत में विस्तार से कहे गये और मेरे द्वारा समास (संक्षेप) से कहे गये इस ग्रन्थ में जो उपयुक्त