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भूमिका
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नेमिचन्द्राचार्य ने किया है। पर इस शंका का समाधान यह है कि पहले तो गोम्मटसार के रचयिता ने उसमें अपना नाम स्पष्ट शब्दों में प्रकट किया है, जिससे कि वह परवी रचना सिद्ध हो जाती है। पर यहाँ तो जीवसमासकार ने न तो अपना नाम कहीं दिया है और न परवर्ती आचार्यों ने ही उसे किसी आचार्य-विशेष की कृति बताकर नामोल्लेख किया है। प्रत्युत् उसे 'पूर्वभृत-सूरि-सूत्रित' हो कहा है, जिसका अर्थ यह होता है कि जब यहाँ पर पूर्वो का ज्ञान प्रबहमान था, तब किसी पूर्ववेत्ता आचार्य ने दिन पर दिन क्षीण होती हुई लोगो की बुद्धि
और धारणाशक्ति को देखकर ही प्रवचन-वात्सल्य से प्रेरित होकर इसे गाथारूप में निबद्ध कर दिया है और वह आचार्य परम्परा से प्रवहमान होता हुआ धरसेनाचार्य को प्राप्त हुआ है। उसमें जो कथन स्पष्ट था, उसकी व्याख्या में अधिक बल न देकर जो अप्ररूपित मार्गणाओं का गूढ़ अर्थ था, उसका उन्होंने भूतबलि और पुष्पदन्त को विस्तार से विवेचन किया और उन्होंने भी उसी गढ़ रहस्य को अपनी रचना में स्पष्ट करके कहना या लिखना उचित समझा।
दूसरे इस जीवसमास की जो गाथाएँ आठ प्ररूपणाओ की भूमिका रूप हैं, वे धवलाटीका के अतिरिक्त उत्तराध्ययन, मूलाचार, आचासंग-नियुक्ति, प्रज्ञापनासूत्र, प्राकृत पञ्चसंग्रह आदि अनेक ग्रन्थो में पायी जाती हैं। जीवसमास की अपने नाम के अनुरूप विषय की सुगठित विगतवार सुसम्बद्ध रचना को देखते हुए यह कल्पना असंगत-सी प्रतीत होती है कि उसके रचयिता ने उन-उन उपर्युक्त प्रन्यों से उन-उन गाथाओं को छांट-छांट कर अपने ग्रन्थ में निबद्ध कर दिया हो। इसके स्थान पर तो यह कहना अधिक संगत होगा कि जीवसमास के प्रणेता वस्तुतः श्रुतज्ञान के अंगभूत ११ अंगों और १४ पूर्वो के वेत्ता थे। भले ही वे श्रुतकेवली न हों, पर उन्हें अंग और पूर्वो के बहुभाग का विशिष्ट ज्ञान था, और यही कारण है कि वे अपनी कृति को इतनी स्पष्ट एवं विशद बना सके। यह कृति आचार्य-परम्परा से आती हुई धरसेनाचार्य को प्राप्त हुई, ऐसा मानने में हमें कोई बाधक कारण नहीं दिखाई देता। प्रत्युत् प्राकृत पञ्चसंग्रह की प्रस्तावना में जैसाकि मैंने बतलाया, यही अधिक सम्भव अँचता है कि प्राकृत पञ्चसंग्रहकार के समान जीवसमास धरसेनाचार्य को भी कण्ठस्थ था और उसका भी व्याख्यान उन्होंने अपने दोनों शिष्यों को किया है।
यहाँ पर जीवसमास का कुछ प्रारम्भिक परिचय देना अप्रासंगिक न होगा। पहली गाथा में चौबीस जिनवरों (तीर्थङ्करों) को नमस्कार कर जीवसमास कहने की प्रतिज्ञा की गई है। दूसरी गाथा में निक्षेप, निरुक्ति, (निर्देश-स्वामित्वादि) छह अनुयोगद्वारों से, तथा (सत्-संख्यादि) आठ अनुयोगद्वारों से गति आदि