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दुसरा भाग।
कारण है उसको व्यवहार चारित्र कहते हैं। जैसे मन, वचन, कायकी शुद्धि. शुद्ध भोजन, तपका प्रयत्न, तथा तत्वका स्मरण । जिस तरह इस मुल पर्याय सूत्र में समाधिके लामके लिये सर्व अपनेसे परसे मोह कुड़ाया है उसी तरह नन सिद्धांतमें वर्णन है।
जैन सिद्धांतमें समानता। श्री कुन्दकन्दाचार्य समयसारमें कहते हैंअहमेदं एदमहं, अहमेदस्सेव होमि मम एदं । मण्ण जं परदध्वं, सचित्ताचित्तमिस्सं वा ॥ २५ ॥ बासि मम पुष्वमेदं बहमेदं चावि पुष्यकाळलि । होहिदि पुणोवि मज्हं, महमेदं चावि होम्सामि ॥ २६ ॥ एवंतु मसंभूदं भादवियध्वं करेदि सम्मुढो ।
मूदत्थं जाणतो, " करेदि दु तं असम्मुढो ॥ २७ ।।
भावार्थ-आपसे जुदे जितने भी पर द्रव्य हैं चाहे वे संचित खी पुत्र मित्र आदि हों या अचित्त सोना चांदी आदि हों या मिश्र बगर देशादि हों, उनके सम्बन्धमें यह विवा करना कि मैं यह हूं गा यह मुझ रूप है, मैं हसका हूं या यह मेरा है, यह पहले मेरा माया मैं पूर्वकालमें इस रूप था या मेरा भागामी होजायगा या में इस रूप होजाऊंगा, मज्ञानी ऐसे मिथ्या विकल्प किया करता है, ज्ञानी यथार्थ तत्वको जानता हुमा इन झूठे विकल्पोंको नहीं करता है । यहां सचिन, अचित्त, मिश्रमें सर्व अपने से जुदे पदार्थ भागर हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति व पशुजाति, मानवजाति देखनाति व प्राणरहित सर्व पुद्गल परमाणु मादि आकाश, काल, धर्म अपर्म द्रव्य व संसारी जीवोंके सर्व प्रकारके शुभ व अशुभ माव 4
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