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दूसरा भाग। जो णिहदमोहंगठी रागपदोसे खवीय सामण्णे। . होज समसुहदुक्खो सो सोक्ख अक्खयं लहदि ॥१०७-२॥ जो खबिदमोहकलुसो विसयवित्तो मणो णरु भित्ता । समबढिदो सहावे सो अपाण हदि धादा ।। १०८-२ ।। इहलोग णिवेक्खो 'डबद्धो पाम लोयम् । जुत्ताहार विहारो रहिदकसाओ हुवे समणो ॥ ४२-३ ॥
भावार्थ-जो मोहकी गांठको क्षय करके साधुपदमें स्थित होकर -रागद्वेषको दूर करता है और सुख दुःखमें समभावका धारी होता है वही अविनाशी निर्वाण सुखको पाता है । जो महात्मा नोहरूप मैलको क्षय करता हुआ. पांचों इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होता हुआ व मनको रोकता हुआ अपने शुद्ध स्वभावमें एकतासे ठहर जाता है, वही आत्माका ध्यान करनेवाल! है । जो मुनि इस लोकमें विषयोंकी आशासे रहित है, परलोकमें भी किसी पदकी इच्छा नहीं रखता है, योग्य आहार विहारका करनेवाला है तथा क्रोधादि कषाय रहित है वही साधु है।
श्री कुंदकुंदाचार्य भावपाहुड़में कहते हैंजो जीवो भावतो जीवसहावं सुभावसजुत्तो । सो जरमरण विणासंकुणइ फुडं लहइ णिव्याण ॥ ६१ ॥
भावार्थ-जो जीव आत्माके स्वभावको जानता हुआ आत्माके स्वभावकी भावना करता है वह जरा मरणका नाश करता है और प्रगटपने निर्वाणको पाता है।
श्री शुभद्राचार्य ज्ञानार्णवम कहते हैं- ।
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