Book Title: Jain Bauddh Tattvagyan Part 02
Author(s): Shitalprasad Bramhachari
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 246
________________ प्राय: प्रश्नसहः प्रमुः परमनाहारी परानिन्दया शादर्म कथां गणी गुगनिधिः प्रस्पृष्टमिष्टाक्षरः ॥५॥ भावार्थ-जो बुद्धिमान् हो, सर्व शास्त्रों का रहस्य जानता हो, प्रश्नों का उत्तर पहलेहीसे समझता हो, किसी प्रकारकी माशा तृष्णासे रहित हो, प्रभावशाली हो, शांत हो, लोकके व्यवहारको समझना हो, अनेक प्रश्नों को सुन सक्ता हो, महान हो, परके मनको हरनेवाला हो, गुणोंका सागर हो, साफ साफ मीठे अक्षरों का कहनेवाला हो ऐसा भाचार्य संघनायक परकी निन्दा न करता हुमा धर्मका उपदेश करे। सारसमुचयमें कहा हैसंसारावासनिवृत्ता: शिवसौल्यसमुत्सुकाः । सद्भिते गदिताः प्राज्ञाः शेषाः शास्त्रस्य वंचकाः ॥२१२।। . भावाथ-जो साधु संसारके वाससे उदास है । तथा कल्याणमम मोक्षके सुखके लिये सदा उत्साही है वे ही बुद्धिवान् पंडित साधुओंके द्वारा कहे गए हैं। इनको छोड़कर शेष सब अपने पुरु. पाके ठगनेवाले हैं। तत्वानुशासनमें कहा हैतत्रासन्नीभवेन्मुक्तिः किंचिद्रासाद्य कारणं । विरक्तः कामभोगेभ्यस्त्यकसर्वपरिपाः ॥४१॥ मम्पेत्य सम्यगाचार्य दीना जैनेश्वरीं नि:। तपःसयमसम्पनः प्रमादरहिताशयः ॥ ४२ ॥ सम्यग्निर्गीतजीवादिध्ये वस्तुव्यस्थितिः । मातरौद्रपरित्यागालबचित्तप्रसत्तिकः ॥ ४३ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288