Book Title: Jain Bauddh Tattvagyan Part 02
Author(s): Shitalprasad Bramhachari
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 269
________________ २४.] दूसरा भाग। भको सदभावरूप माना जावे तो जो भाव निर्वाणका व निर्वाणके मार्गका जैन सिद्धांतमें है वही भाव निर्वाणका व निर्वाण मार्गका बौद्ध सिद्धांतमें है। साधुकी बाहरी क्रियामों में कुछ अंतर है। मीतरी स्त्रानुभव व स्वानुभवके फलका एकसा ही प्रतिपादन है ! जैन सिद्धांतके कुछ वाक्यपंचास्तिकायमें कहा है-- जो खलु संसारस्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ १२८ ॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं दु विसयागहण तत्तो रागो व दोसो वा ॥ १२९ ॥ जायदि जीवरसेवं भावो संसारचक्क चालम्मि । इदि जिणवाहिं मणिदो प्रणादिणिधणो सणिपणो वा ॥१३॥ भावार्थ-इस संसारी जीवके मिथ्याज्ञान श्रद्धान सहित तृष्णायुक्त रागादिभाव होते हैं । उनके निमित्तसे कर्म बन्धनका संस्कार पड़ता है, कर्मके फलसे एक गतिसे दुसरी गतिमें जाता है। जिस गतिमें जाता है वहां देह होता है, उस देहमें इन्द्रिया होती हैं, उन इन्द्रियोंसे विषयोंको ग्रहण करता है। जिससे फिर रागद्वेष होता है, फिर कर्मबन्धका संस्कार पडता है। इस तरह इस संसाररूपी चक्रमें इस जीवका भ्रमण हुमा करता है। किसीको अनादि अनंत रहता है, किसीके अनादि होने पर अंतसहित होजाता है, ऐसा जिनेन्द्रने कहा है। समाधिशतकमें कहा है: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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