Book Title: Jain Bauddh Tattvagyan Part 02
Author(s): Shitalprasad Bramhachari
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી Iloillekic lol EEासाहेन, लापनगर. ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨ 5272008 न-बौद्ध तत्वज्ञान दूसरा भाग। लेखक:ब्रह्मचारी सीतलप्रसादजी। लाला महावीरप्रसादजी जैन एडवोकेट-हिसारकी पूज्य माताजी श्रीमती ज्वालादेवीकी ओरसे 'जैनमित्र' के ३८वें वर्षके ग्राहकोंको भेंट। Shree Sudharmaswami Gyanbhandamara Surat umaraqven bhada com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DEIRTHI Mithilal जैन-बौद्ध तत्वज्ञान। PREMEENETWEETE दूसरा भाग। सम्पादक:श्रीमान् ब्रह्मचारी सीतलप्रसादजी, [अनेक जैन शास्त्रों के टीकाकार, सम्पादन कर्ता तथा अध्यात्म ग्रन्यों के रचयिता ] S EKSIBLखDIANROECTIA2Z प्रकाशक:मूलचन्द किसनदास कापड़िया, ___ मालिक, दिगम्बर जैनपुस्तकालय-सूरत । MIRRESTERNEARS - -हिसारनिवासी श्रीमान् लाला महादीस्मतादमी जैन एडवोकेटकी पूज्य माताजी श्रीमती ज्वालादेवीजीकी ओरसे ___“नामत्र" के ३८ वें वर्ष के ग्राहकोंको भेंट । प्रथमावृत्ति] वीर सं० २४६४ [प्रति १२००+२०० मूल्य- एक रुपया। creB 8oUni)01852238 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रक मूलचन्द किसनदास कापड़िया. 66 जैन विजय " प्रिन्टिंग प्रेस, गांधी चौक-सूरत । प्रकाशक मूलचन्द किसनदास कापड़िया, मालिक, दिगम्बर जैन पुस्तकालय, कारडियाभवन-सूरत । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भूमिका। . जैन बौद्ध तत्वज्ञान पुस्तक प्रथम भाग सन् १९३२ में लिखकर प्रसिद्ध की गई है उसकी भूमिकामें यह बात दिखलाई बाचुकी है कि प्राचीन बौद्ध धर्मका और जैनधर्मका तत्वज्ञान बहुत अंश: मिलता हुमा है। पाली साहित्यको पढ़नेसे बहुत अंशमें जैन और बौद्धकी साम्यता झलकती है। भाजकल सर्वसाधारण जो बौद्ध धर्मके सम्बन्ध विचार फैले हुए हैं उनसे पाली पुस्तकोंमें दिखाया हुमा कथन बहुत कुछ विकक्षण है। सर्वथा वणिकवाद बौद्धमत है यह बात प्राचीन ग्रन्थके पढ़नेसे दिलमे नहीं बैठती है। सर्वथा क्षणिक माननेसे निर्वाणमें बिलकुल शून्यता माजाती है। परन्तु पाली साहित्यमें निर्वाणके विशेषण हैं जो किसी विशेषको झलकाते हैं। पानी कोषमें निर्वाणके लिये ये शब्द आये हैं- मुम्बो (मुरवा), निरोधो, निव्वानं, दीपं, वराहपखय (तृष्णाका क्षय) तानं. (क्षक), लेनं (लीनता), अरूवं संत (शांत), असंखतं (संस्कृत), सिवं (भानम्वरूप), नमुत्तं (अमूर्तीक), सुदुहसं ( अनुभव करना कठिन है), परायनं ( श्रेष्ठ मार्ग), सरणं (शरणभत) निपुणं, मान्तं, भक्खर (मक्षय), दुःखक्खय, भद्वापज्झ ( सत्य), अनाज्य (उच्च गृह), विवट्ट ( संसार रहित), खेम, केवल, अपवम्गो (अपवर्ग), विरागो, पणीतं (उत्तम् ), मच्चुतं पदं (न मिटनेवाला पद) योग खेमे, पारं, मुकं (मुकि), विशुद्धि, विमुत्ति (विमुक्ति) मसंखत पातु (संस्कृत पात), सद्धि, निबुचि (निवृचि)।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यदि निर्वाण प्रभाव या शुन्य हो तोऊपर लिखित विशेषण नहीं बन सक्ते हैं। विशेषण विशेष्यके ही होते हैं । जब निर्वाण विशेष्य है तब वह क्या है, चेवन है कि अचेतन । अचेतनके विशेषण नहीं होसके । तब एक चेतन द्रव्य रह जाता है। केवल, मजात, मक्षय, मसंस्कृत पातु मादि साफ साफ निर्वाणको कोई एक परसे मिन ..अजन्मा व ममर, शुद्ध एक पदार्थ झलकाते हैं। यह निर्वाण जैन दर्शनके निर्वाणसे मिल जाता है. जहांपर शुद्धात्मा या परमात्माको भपनी केवल स्वतंत्र सत्ताको रखनेवाला बताया गया है। न तो वहां किसी प्रझमें मिलना है न किसीके परतंत्र होना है, न गुणरहित निर्गुण होना है। बौद्धों का निर्वाण वेदांत सांख्यादि दर्शनों के निर्वाणके साथ न मिलकर जैनों के निर्वाणके साथ भलेप्रकार मिल जाता है। यह वही मात्मा है जो पांच स्कंधकी गाड़ीमें बैठा हुमा संसार चक्रमें घूम रहा था। पांचों स्कंधोंकी गाड़ी भविद्या और तृष्णाके क्षयसे नष्ट होजाती है तब सर्व संस्कारित विकार मिट जाते हैं, जो शरीर व अन्य चित्त संस्कारोंमें कारण होरहे थे। जैसे अग्निके संयोगसे जल उबल रहा था, गर्म था, संयोग मिटते ही वह जल परम शांत स्वभावमें होजाता है वैसे ही संस्कारित विज्ञान व रूपका संयोग मिटते ही अजात भमर भात्मा केवल रह जाता है। परमा: नन्द, परम शांत, अनुभवगम्य यह निर्वाणपद है, वैसे ही उसका साधन भी स्वानुभव या सम्यक्समाधि है। बौद्ध साहित्यमें जो निर्वाणका कारण अष्टांगिकयोग बताया है वह जैनोंके रत्नत्रय मार्गसे मिल जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकूचारित्रकी एकता अर्थात् निश्चयसे शुद्धात्मा या निर्वाण स्वरूप अपना श्रद्धान व ज्ञान व चारित्र या स्वानुभव ही निर्वाण मार्ग है। इस स्वानुभवके लिये मन, वचन, कायकी शुद्ध क्रिया कारणरूप है, तत्वस्मरण कारणरूप है, आत्मबलका प्रयोग कारणरूप है । शुद्ध भोजनपान कारणरूप है, बौद्ध मार्ग है। सम्यग्दर्शन, सम्यक संकल्प, सम्यक् वचन, . सम्यक् कर्म, सम्यकू भाजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक् समाधि । सम्यग्दर्शनमें सम्यग्दर्शन, सम्यक् ज्ञानमें सम्यक् संकल्प सम्यक्चारित्रमें शेष छः गर्मित है। मोक्षमार्गके निश्चय स्वरूपमें कोई भेद नहीं दीखता है। व्यवहार चरित्रमें जब निर्मथ साधु मार्ग वस्त्ररहित प्राकृतिक स्वरूपमें है तब बौद्ध भिक्षुके लिये सवस्त्र होनेकी आज्ञा है । व्यवहार चारित्र सुलभ कर दिया गया है । जैसा कि जैनोंमें मध्यम पात्रोंका या मध्यम व्रत पालनेवाले श्रावकोंका, ब्रह्मचारियोंका होता है। अहिंसाका, मंत्री, प्रमोद, करुणा, व माध्यस्थ भावनाका बौद्ध और जैन दोनोंमें बढ़िया वर्णन है। तब मांसाहारकी तरफ जो शिथिलता बौद्ध जगतमें भागई है इसका कारण यह नहीं दीखता है कि तत्वज्ञानी करुणावान गौतमबुद्धने कभी मांस लिया हो या अपने भक्तोंको मांसाहारकी सम्मति दी हो, जो बात लंकावतार सूत्रसे जो संस्कृतसे चीनी भाषामें चौथी पांचवीं शताब्दीमें उल्था ‘किया गया था, साफ साफ झलकती है। _____पाली साहित्य सीलोनमें लिखा गया जो द्वीप मत्स्य व मांसका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घर है, वहांपर भिक्षुओंको मिक्षामें अपनी हिंसक अनुमोदनाके विना मांस मिल जावे तो ले ले ऐसा पाली सूत्रों कहीं कहीं कर दिया गया है । इस कारण मांसका प्रचार होजानेसे प्राणातिपात विरमण व्रत नाम मात्र ही रह गया है। बौद्धोंके लिये ही कसाई लोग पशु मारते व बाजारमें वेचते हैं । इस बातको जानते हुए भी बौद्ध संसार यदि मांसको लेता है तब यह पाणातिपात होनेकी अनुमतिसे कभी बच नहीं सक्ता। पाली बौद्ध साहित्यमें इस प्रकारकी शिथिलता न होती तो कभी भी मांसाहारका प्रचार न होता। यदि वर्तमान बौद्ध तत्वज्ञ सूक्ष्म दृष्टिसे विचार करेंगे तो इस तरह मांसाहारी होनेसे महिंसा व्रतका गौरव बिलकुल खो दिया है। जब मन व शाक सुगमतासे प्राप्त होसक्ता है तब कोई बौद्ध भिक्षु या गृहस्थ मांसाहार करे तो उसको हिंसाके दोषसे रहित नहीं माना जासक्ता है व हिंसा होने कारण पड़ जाता है। यदि मांसाहारका प्रचार बौद्ध साधुओं व गृहस्थोंसे दूर हो जावे तो उनका चारित्र एक जैन गृहस्थ या त्यागीके समान बहुत कुछ मिल जायगा । बौद्ध भिक्षु रातको नहीं खाते, एक दफे मोजन करते, तीन काल सामायिक या ध्यान करते, वर्षाकाल एक स्थल रहते, पत्तियोंको घात नहीं करते हैं। इस तरह जैन और बौद्ध तत्वज्ञानमें समानता है कि बहुतसे शब्द जैन और बौद्ध साहित्यके मिळते हैं । जैसे भासव, संवर मादि । पाली साहित्य यद्यपि प्रथम शताब्दी पूर्वके करीब सीलोनमें लिखा गया तथापि उसमें बहुतसा कथन गौतमबुद्ध द्वारा कथित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है ऐसा माना जा सक्ता है। बिलकुल शुद्ध है, मिश्रण रहित है. ऐसा तो कहा नहीं जा सकता । जैन साहित्यसे बौद्ध साहित्यके मिलने का कारण यह है कि गौतमबुद्धने जब घर छोड़ा तब ६ बर्षके बीचमें उन्होंने कई प्रवलित साधुके चारित्रको पाला । उन्होंने दिगम्बर जैन साधुके चारित्रको भी पाला । अर्थात् नग्न रहे, वेशलोंच किया, उद्दिष्ट भोजन न ग्रहण किया .मादि । जैसा कि मज्झिमनिकायके महासिंहनाद नामके १२ वें सूत्रसे प्रगट है। दि० जैनाचार्य नौमी शताब्दीमें प्रसिद्ध देवसेनजी कृत दर्शनसारसे झलकता है कि गौतमबुद्ध श्री पार्श्वनाथ तीर्थकर की परि. पाटीमें प्रसिद्ध पिहितास्रव मुनिके साथ जैन मुनि हुए थे, पीछे मतभेद होनेसे अपना धर्म चलाया। जैन बौद्ध तत्वज्ञान प्रथम भागकी भूमिकासे प्रगट होगा कि प्राचीन जैनधर्म और बौद्धधर्म एक ही समझा जाता था । जैसे जैनोंमें दिगम्बर व श्वेतांबर भेद होगये वैसे ही उस समय निर्धय धर्मसे भेदरूप बुद्ध धर्म होगया था। पाली पुस्तकों का बौद्ध धर्म प्रचलित बौद्ध धर्मसे विलक्षण है। यह बात दूसरे पश्चिमीय विद्वानोंने भी मानी है। (1) Sacred book of the East Vol. XI 1889by T. W. Rys Davids, Max Muller___Intro. Page 22-Budhism of Pali Pitakas is not only & quite different thing from Budhism as hitherto commonly received, but is autogonistio to it. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात्-इस पाली पिटकोंका बौद्ध धर्म साधारण अबतक प्रचलित बौद्ध धर्मसे मात्र बिलकुल भिन्न ही नहीं है, किन्तु उससे विरुद्ध है। (2) Life of the Budha by Edward J. Thomas M. A. (1927) P. 204. They all agree in holding that primitive teaching must have been something different from what the earliest scriptures and commentatus thought it was. __ अर्थात्-इस बातसे सब सहमत हैं कि प्राचीन शिक्षा अवश्य उससे भिन्न है जो प्राचीन ग्रंश और उसके टीकाकारोंने समझ लिया था। बौद्ध भारतीय भिक्षु श्री राहुल सांक यायन लिखित बुद्धचर्या हिंदीमें प्रगट है। पृ० ४८१ सानगामसुत्त कहता है कि जब गौतम बुद्ध ७७ वर्षके थे तब महावीरस्वामीका निर्वाण ७२ वर्षमें हुआ था। जैन शास्त्रोंसे प्रगट है कि महावीरस्वामीने ४२ वर्षकी आयु तक अपना उपदेश नहीं दिया था। जब गोतम बुद्ध ४७ वर्षके थे तब महावीर स्वामीने अपना उपदेश प्रारम्म किया। गौतम बुद्धने २९ वर्षकी आयुमें घर छोड़ा। छः वर्ष साधना किया। ३५ वर्षकी आयुमें उपदेश प्रारम्भ किया। इससे प्रगट है कि महावीर. स्वामीका उपदेश १२ वर्ष पीछे प्रगट हुआ तब इसके पहले श्री पार्श्वनाथ तीर्थकरका ही उपदेश प्रचलित था। उसके अनुसार ही बुद्धने जैन चारित्रको पाला । जैसी असहनीय कठिन तपस्या बुद्धने की ऐसी आज्ञा जैन शास्त्रोंमें नहीं है। शक्तितस्तफ्का उपदेश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९ ) है कि आत्म रमणता बढ़े उतना ही बाहरी उपवासादि तप करो । गौतमने मर्यादा रहित किया तब घबड़ाकर उसे छोड़ दिया और जैनों के मध्यम मार्गके समान श्रावकका सरळ मार्ग प्रचलित किया । पाली सूत्रों के पढ़ने से एक जैन विद्यार्थीको वैराग्यका अद्भुत आनन्द आता है व स्वानुभवपर लक्ष्य जाता है, ऐसा समझकर मैंने मज्झनिकाय के चुने हुए २५ सूत्रोंको इस पुस्तक में भी राहुल कृत हिंदी उल्थाके अनुसार देकर उनका भावार्थ जैन सिद्धांत से मिलान किया है। इसको ध्यानपूर्वक पढ़नेसे जैनोंको और बौद्धोंको तथा हरएक तत्वखोजीको बड़ा ही लाभ व आनंद होगा । उचित यह है कि जैनोंको पाली बौद्ध साहित्यका और बौद्धोंको जैनोंके प्राकृत और संस्कृत साहित्यका परस्पर पठन पाठन करना चाहिये । यदि मांसाहारका प्रचार बन्द जाय तो जैन और बौद्धों के साथ बहुत कुछ एकता होती है । पाठकगण इस पुस्तकका रस लेकर मेरे परिश्रमको सफल करें ऐसी प्रार्थना है । ब्रह्मचारी सीतलप्रसाद जैन । हिसार ( पंजाब ) . ३-१२-१९३६. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्षिप्त परिचयधर्मपरायणा श्रीमती ज्वालादेवीजी जैन-हिसार। यह " जैन बौद्ध तत्वज्ञान " नामक बहुमूल्य पुस्तक जो "जैन मित्र "के ३८वें वर्षके ग्राहकों के हाथोंमें उपहारके रूपमें प्रस्तुत है, वह श्रीमती ज्वालादेवीजी, धर्मपत्नी ला० ज्वालाप्रसादजी व पूज्य माता ला०महावीरप्रसादजी वकीलकी ओरसे दी जारही है। श्रीमतीजीका जन्म विक्रम संवत् १९४०में झंझर (रोहतक) में हुवा था । आपके पिता ला० सोहनलालजी वहांपर भर्जीनवीसीका काम करते थे। उस समय जैनसमाजमें स्त्रीशिक्षाकी तरफ बहुत कम ध्यान दिया जाता था, इसी कारण श्रीमतीजी भी शिक्षा ग्रहण न कर सकीं। खेद है कि आपके पितृगृहमें इससमय कोई जीवित नहीं है । मात्र आपकी एक बहिन हैं, जो कि सोनीपतमें व्याही हुई है। भापका विवाह सोलह वर्षकी भायुमें ला० ज्वालाप्रसादजी जैन हिसार वालों के साथ हुमा था। लालानी असली रहनेवाले रोहतकके थे। वहां मोहल्ला 'पीयवाड़ा में इनका कुटुम्ब रहता है, जो कि 'हाटवाले' कहलाते हैं । वहां इनके लगभग बीस पर होंगे। वे प्रायः सभी बड़े धर्मप्रेमी और शुद्ध माचरणवाले साधारण स्थितिके गृहस्थ हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिषदके उत्साही और प्रसिद्ध कार्यकर्ता ला० तनसुखरायजी जैन, जो कि तिलक वीमा कंपनी देहलीके मैनेजिंग डायरेक्टर हैं, वह इसी खानदानमें से हैं । आप जैन समाजके निर्भीक और ठोस कार्य करनेवाले कर्मठ युवक हैं। अभी हाल में मापने जैन युवकोंकी बेकारीको देखकर दस्तकारीकी शिक्षा प्राप्त करनेवाले १० छात्रोंको १ वर्षत भोजनादि निर्वाह खर्च देने की सूचना प्रकाशित की थी, जिसके मुलस्वरूप कितने ही युवक छात्र देहलीमें आपके द्वारा उक्त शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं । मैन समानको आपसे बड़ी २ माशायें हैं, और समय मानेपर वे पूर्ण भी अवश्य होंगी। इनके अतिरिक्त ला० मानसिंहजी, ला० प्रभूदयालजी, ला.. अमीर सिंहजी, ला० गणपतिरायजी, ला० टेकचंदजी आदि इसी खान्दानके धर्मप्रेमी व्यक्ति हैं। इनका अपने खान्दानका पीयवाड़ामें एक विशाल दि० जैन मंदिरजी भी है, जोकि अपने ही व्ययसे बनाया गया है। इस खान्दानमें शिक्षाकी तरफ विशेष रुचि है जिसके फलस्वरूप कई ग्रेजुएट और वकील हैं। ला.ज्वालामसादजीके पिता चार भाई थे। १-ला०कुंदनलालजी, २-ला. अमनसिंहजी, ३-ला० केदारनाथजी, ४-ला० सरदारसिंहजी । जिनमें ला० कुन्दनलालजीके सुपुत्र ला० मानसिंहजी, ला० अमनसिंहजीके सुपुत्र ला० मनफूलसिंहजी व का० वीरमानसिंहजी हैं । ला० केदारनाथजीके सुपुत्र ला० ज्वालाप्रसादजी तथा ला० घासीरामजी और ला० सरदारसिंहजीके सुपुत्र ला० स्वरूपसिंहनी, ला. जगतसिंहजी और गुलाबसिंहजी हैं। जिनमें से 10. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१५) जगतसिंहमी वा० महावीरप्रसादजी वकीलके पास ही रहकर कार्य करते हैं । ला० जगतसिंहजी सरल प्रकृतिके उदार व्यक्ति हैं। माप समय २ पर व्रत उपवास और यम नियम भी करते रहते हैं। आप त्यागियों और विद्वानोंका उचित सत्कार करना अपना मुख्य कर्तव्य समझते हैं । हिसारमें ब्रह्मचारीजीके चातुर्मासके समय आपने बड़ा सहयोग प्रगट किया था। उक्त चारों भाइयोंमें परस्पर बड़ा प्रेम था, किसी एककी मृयुपर सब भाई उसकी और एक दुसरेकी संतानको अपनी संतान समझते थे। ला० ज्वालाप्रसादजीके पिता ला० केदारनाथजी फतिहाबाद (हिसार) में मर्जीनवीसीका काम करते थे, और उनकी मृत्युपर ला ज्वालाप्रसादजी फतिहावादसे आकर हिसारमें रहने लग गये, और वे एक स्टेटमें मुलाजिम होगये थे। वे अधिक धनवान न थे, किन्तु साधारण स्थितिके शांत परिणामी, संतोषी मनुष्य थे। उनका गृहस्थ जीवन सुख और शांतिसे परिपूर्ण था। सिर्फ ३२ वर्षकी अल्प आयुमें उनका स्वर्गवास होजानेके कारण श्रीमतीमी २७ वर्षकी आयुमें सौभाग्य सुखसे वंचित होगई। पतिदेवकी मृत्युके समय आपके दो पुत्र थे। जिसमें उस समय महावीरप्रसादजीकी भायु ११ वर्ष और शांतिप्रसादनीकी भायु सिर्फ छः मासकी थी। किन्तु ला० ज्वालाप्रसादजी (ला. महावीरप्रसजी पिता ) की मृत्यु के समय उनके चाचा ला०सरदारसिंहजी जीवित थे। उस कारण उन्होंने ही श्रीमतीजीके दोनों पुत्रोंकी -रक्षा व शिक्षाका भार अपने ऊपर लेलिया और उनींकी देखरेखमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) आपके दोनों पुत्रोंकी रक्षा व शिक्षाका समुचित प्रबन्ध होता रहा । किंतु सन् १९९८ में ला० सरदारसिंहजी का भी स्वर्गवास होगया । अपने बाबा सरदार सिंहजी की मृत्युके समय श्री० महावीर-प्रसादजीने एफ० ए० पास कर लिया था और साथ ही ला० सम्मनलालजी जैन पट्टीदार हांसी ( जो उस समय ग्वालियर स्टेटके - नहर के महकमा में मजिस्ट्रेट थे ) निवासीकी सुपुत्री के साथ विवाह भी होगया था। श्री० शांतिप्रसादजी उस समय चौथी कक्षा में पढ़तेथे । अपने बाबाजीकी मृत्यु होनानेपर श्री० महावीरप्रसादजी उस समय अधीर और हताश न हुये, किन्तु उन्होंने अपनी पूज्य माताजी ( श्रीमती ज्वालादेवीजी) की आज्ञानुसार अपने श्वसुर ला० सम्मतलालजीकी सम्मति व सहायता से अपनी शिक्षा- वृद्धिका क्रम अगाडी चालू रखने का ही निश्चय किया, जिसके फलस्वरूप वे काहौर में ट्यूशन लेकर कालेज में पढ़ने लगे। इस प्रकार पढ़ते हुये उन्होंने अपने पुरुषार्थ वलसे चार वर्षमें वकालतका इम्तिहान पास कर लिया. और सन् १९२२में वे वकील होकर हिसार आगये । हिसार में वकालत करते हुये आपने असाधारण उन्नति की, और कुछ ही दिनोंमें आप हिसार में अच्छे वकीलोंमें गिने जाने लगे । आप बड़े धर्मप्रेमी और पुरुषार्थी मनुष्य हैं । मातृ-भक्ति आपमें कूट कूटकर भरी हुई है। आप सर्वदा अपनी माताकी आज्ञानुसार काम करते हैं। अधिक से अधिक हानि होनेपर भी माताजीकी आज्ञाका उल्लंघन नहीं करते हैं। आप अपने छोटे भाई श्री० शान्तिप्रसादजी के ऊपर पुत्र के समान स्नेहदृष्टि रखते हैं । उनको भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मापने पढ़ाकर वकील बना लिया है, और अब दोनों भाई वकालत करते हैं। मापने अपनी माताजीकी आज्ञानुसार करीब १५, १६ हजारकी लागतसे एक सुन्दर मौर विशाल मकान भी रहने के लिये चना लिया है। रोहतक निवासी ला० भनूपसिंहजीकी सुपुत्रीके साथ श्री० शान्तिप्रसादजीका भी विवाह होगया है। अब श्रीमतीजीकी माज्ञानुसार उनके दोनों पुत्र तथा उनकी स्त्रिय कार्य संचालन करती हुई मापसमें बड़े प्रेमसे रहती हैं। श्री० महावीरप्रसादजीके मात्र तीन कन्यायें हैं, जिनमें बड़ी कन्या (गजदुलारीदेवी) पाठवी कक्षा उत्तीर्ण करनेके अतिरिक्त इस वर्ष पञ्जाबकी हिन्दीरत्न परीक्षा में भी उत्तीर्णता प्राप्त कर चुकी हैं। छोटी कन्या पांचवीं कक्षामें पढ़ रही हैं, तीसरी ममी छोटी हैं। श्रीमतीजीकी एक विश्वा ननद श्रीमती दिलभरीदेवी ( पतिदेवकी बहिन ) हैं, जो कि भापके पास ही रहती हैं। श्रीमतीनी १०-१२ वर्षसे चातुर्मास के दिनोंमें एकवार ही भोजन करती हैं किन्तु पिछले डेढ़ सालसे तो हमेशा ही एक दफा भोजन करती हैं, इसके अतिरिक्त बेला, तेका मादि पहारके व्रत उपवास समयर पर करती रहती हैं। भापका हरसमय धर्मध्यानमें चित्त रहता है। जैनबढी मूलबद्रीको छोड़कर भाग्ने अपनी ननद के साथ समस्त जैन तीयों की यात्रा कीहुई है। श्री सम्मेदशिखरजीकी यात्रा तो मापने दोबार की है। गतवर्ष आपकी आज्ञानुसार ही भापके पुत्र बा० महावीरप्रसादजीने श्री० ७. सीतलपसादजीका हिंसारमें चातुर्मास करवाया था, जिससे सभी भाइयों को बड़ा धर्मलाम हुमा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) हिसार बा० महावीर प्रसादजी वकील एक उत्साही और सफल कार्यकर्ता हैं। हिसारकी जैन समाजका कोई भी कार्य आपकी सम्मतिके बिना नहीं होता। मजैन समानमें भी आपका काफी सन्मान है । इस वर्ष स्थानीय रासलीला कमेटीने सर्वसम्मति से पको सभापति चुना है । शहरके प्रत्येक कार्यमें आप काफी हिस्सा -लेते हैं। जैन समाज के कार्योंमें तो आप खास तौरपर भाग लेते हैं। आपके विचार बड़े उन्नत और धार्मिक हैं। हिसारकी जैन समाजको आपसे बड़ी२ माशाएं हैं, और वे कभी अवश्य पूर्ण भी होंगी। आपमें सबसे बड़ी बात यह है कि आपके हृदय में सांप्रदा विकता नहीं है जिसके फलस्वरूप आप प्रत्येक संप्रदाय के कायमै विना किसी भेदभाव के सहायता देते और हिस्सा लेते हैं । माप प्रतिवर्ष काफी दान भी देते रहते हैं। जैन भजैन सभी प्रकार के चंदोंमें शक्तिपूर्वक सहायता देते हैं। गतवर्ष आपने श्री०ब० सीतलप्रसादजी द्वारा लिखित 'मात्मोन्नति या खुदकी तरक्की' नामका ट्रेक्ट छपाकर वितरण कराया था । और इस वर्ष भी एक ट्रेक्ट छपाकर वितरण किया जाचुका है । आउने करीब लागतसे अपने बांबा कां० सरदारसिंहनीकी आश्रम " सिरसा (हिसार) में एक सुन्दर कमरा भी बनवाया है। आपके ही उद्योगसे गतवर्ष त्र०जीके चातुर्मास के अवसरपर सिरसा (हिसार) में श्री मंदिरजी की आवश्यकता देखकर एक दि० जैन मंदिर बनाने के विषय में विचार हुआ था, प्रेरणा से का० केदारनाथजी बजान हिसारने ३०० ) - ४००) की स्मृतिमें " अपाहिज उस समय आपकी ही १०००) और बा० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१६) फूलचंदजी वकील हिसारने ५००) प्रदान किये थे। श्री मंदिरजीके लिये मौकेकी जमीन मिल जाने पर शीघ्र ही मंदिर निर्माणका कार्य प्रारम्भ किया जायगा । इसमें सन्देह नहीं कि बा० महावीरप्रसादजी वकील आज - फलके पाश्र्वस्य ( इंगरेजी) शिक्षा प्राप्त युवकोंमें अपवाद स्वरूप है । वस्तुतः आप अपनी योग्य माताके सुयोग पुत्र हैं । आपकी माताजी (श्रीमती ज्वालादेवीजी ) बड़ी नेक और समझदार महिला हैं। श्रीमतीजी प्रारम्भ से ही अपने दोनों पुत्रोंको धार्मिक शिक्षाकी ओर प्रेरणा करती रही हैं, इसीका यह फल है। ऐसी माताओंको धन्य है कि जो इस प्रकार अपने पुत्रोंको धार्मिक बना देती हैं । अन्तमें हमारी भावना है कि श्रीमतीजी इसी प्रकार शुभ कार्यों में प्रवृत्ति रखती रहेंगी और साथ ही अपने पुत्रोंको भी धार्मिक कार्योंकी तरफ प्रेरणा करती हुई अपने जीवन के शेष समयको व्यतीत करेंगी प्रेमकुटीर, हिसार (पंजाब) ता: ५-११-३७ ई० निवेदकअटेर ( ग्वालियर) निवासी बटेश्वरदयाल बकेवरिया शास्त्री, ( सिद्धान्त भूषण, विद्यालंकार ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमती ज्वालादेवीजी जैन, पूज्य माताजी, श्री० मा० महावीरप्रसादजी जैन वकील हिसार (पंजाब)। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची। (१) ममिनिकाय मुलपर्यावसूत्र - .:: मस्तित्रसूत्र . 5 . भषभैरव सूत्र चौथा (४) ". अनगणसूत्र वस्त्रसूत्र मलेखसूत्र सम्यग्दृष्टिसूत्र स्मृतिप्रस्थानसुत्र चूलसिंहनादसूत्र महादुःखस्कंपसुत्र .. (११) " चूलदुःखस्कंधसूत्र मनुमानसूत्र चेतोखिसुत्र द्वेधावितर्कसूत्र वितर्कसंस्थानसूत्र ककचूयम मगदुपमसूत्र बल्मिकसूत्र स्यविनीतसूत्र निवायसूत्र महासारोपमसूत्र महागोसिंगसूत्र (२३) .महागोपालकसूत्र (२४) " चूहगोपाठकसूत्र " (२५) महातृष्णा संक्षय .... RECENSECREEEEEE २१९ .... २२५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) (२६) लेखकको प्रशस्ति ..... ..... .... २५२ (२७) बोद्ध जैन शब्द समानता ..... .... .... २९६ (२८) जैन प्रन्थों के श्लोकादिकी सूची, जो इस ग्रन्थ में है.... २९६ शुद्धिपत्र। पृ० ला. अशुद्ध सर्व नय सर्वे रूप उत्पन्न भव उत्पन्न मव मानव बढ़ता है १२ १२ सेवासव सर्वासव १४ १७ मज्ञान रोम मज्ञान होने १५ १८ प्रीएि प्रीति मुक्त युक्त मुक्त युक्त २० ६ युक्त २० ९ तित्त २३ १७ . जिससे जिसे २५ ३ मान भाव २६ ६ न कि जिससे ३२ ११ हमने विषय्य ३५ २३ कर ३७ १२ .. मुक्त ३८ १६ निस्सण निस्सरण ११. ३ . निर्मल मुक्त चित्त इसने विष्य युक्त निर्वक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) पृ० ला. ४१ १३ ४६ १५ ४७ १५ ५५ १६ ५६ १२ ५६ १६ ५७ ३ मुक्त युक्त बानापने नानापने मानन्द्रमापतन मानन्त भावतन संशयवान संशयवान न भनादि मानन्द काम लोम मस्थि (मैद) अस्मि (मैं हूं) सन्तों मार्द.... . मार्य आष्टांगिक बालकपना बाल पकना केल वेदना संसार संस्कार भन्यथा तथा तव तत्त्व मज्ञात भजात वचन सत्वों Mornv v new ५८ ८ ६३ ६ ६३ २० ६९ १४ ७४ ५ ८२ १६ ८९ २ ८९ ३ विषय दृष्टि ९० २० ९८ ७ भात मात्म नविज्ञा मविद्या मात्म माप्त काय काम मिथ्यादृष्टी . सम्यग्दृष्टी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृण १६२ फेंकदे (२०) पृ० ला. अशुद्ध शुद्ध १२९ १७ मल्पापाद भव्यापाद १३१ १४ . बाधित भवाषित १३३ ९ पर्चाकांक्षी भांक्षी फकच्यम कचूपम १५२ १५ तृष्णा १६० ७ मलगदमय भल गद्दपम १६१ १२ बेड़ी विस्तरण निस्तरण १६४ १६ मापत्ति मनित्य १७९ ७ केकदे १७९ १७ १८४ २० मसंजष्ट भसंसष्ट १८७ १४ गुप्ति प्राप्ति विवाय निवाय २०८ वियुक्ति विमुक्ति भक्तियों मक्खियों २२० १० सप्त सत्त्व २२० १४ शीतव्रत शीलवत २२९ २१ प्रज्ञानी २३५ २० संशय २३७ ५ छोक २३७ १६ स्त्री। २४१ . ४ .. भालस्य . २१२ प्रज्ञाकी संक्षय छोड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। (दूसरा भाग) (१) बौद्ध मज्झिनिकाय मूलपर्याय सूत्र । इस सूत्रमें गौतम बुद्ध ने भवक्तव्य आत्मा या निर्वाणको इस तरह दिखलाया है कि जो कुछ अल्पज्ञानीके भीतर विकल्प या विचार होते हैं इन सबको दूर कर के उस बिंदुपर पहुंचाया है जहां उसी समय ध्याताकी पहुंच होती है जब वह. सर्व संकलर विकल्पोंसे रहित समाधिद्वारा किसी अनुभवजन्य अनिर्वचनीय तत्वमें लय हो जाता है। यह एक स्वानुभवका प्रकार है। इस सूत्रका भाव इन वाक्योंसे जानना चाहिये । ' जो कोई भिक्षु ईत् क्षीणास्तव (रागादिसे मुक्त ), ब्रह्मचारी, कृतकृय भारमुक, सत्य तत्वको प्राप्त, भवबन्धन मुक्त, सम्यग्ज्ञ न द्वारा मुक्त ३ बर भी पृथ्वी को पृथ्वीके तौरपर पहचान कर न पृथ्वीको मानता है - पृवी द्वारा मानता है, न पृथ्वी मेरी है मानता है, न पृथ्वी हो अभिनन्दन करता है । इसका कारण यही है कि उसकाराग द्वष, मो. क्षय होगया है, वह वीतराग होगया है। इसीतरह यह नीचे लिखे विकल्पोंको भी अपना नहीं मानता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा माग। है। वह पानीको, तेजको, वायुको, देवतामोंको. अनंत कामको, अनंत विज्ञानको, देखे हुएको, सुने हुएको, स्मरणमें प्राप्तको, जाने गएको, एरुपनेको, नानापनको, सर्वको तथा निर्माणको भी अभिनन्दन नहीं करता है। तथागत बुद्ध भी ऐसा ही ज्ञान रखता है क्योंकि वह जानता है कि तृष्णा दुःखों का मूल है। तथा जो भव भवमें जन्म लेता है उसको जरा व मग्ण अवश्यंभावी है। इसलिये तथागत बुद्ध सर्व ही तृष्णाके क्षयसे. विरागसे, निरोधसे, त्यागसे, विसर्जनसे यथार्थ परम ज्ञानके जानकार हैं। भावार्थ-मूल पर्याय सूत्रका यह भाव है कि एक अनिर्वचनीय अनुभवगम्य तत्व ही सार है। पर पदार्थ सर्व त्यागने योग्य हैं। कर्म, करण अपादान, सम्बन्ध इन चार कारकोंसे पर पदार्थसे यहां तक सम्बन्ध हट या है कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इन चार पदा. थोसे बने हुए दृश्य जगतको देखे व सुने हुए व स्मरणमें आए हुए व ज्ञानसे तिष्ठे हुए विकल्पोंको सर्व भाकाशको सर्व इन्द्रिय व मन द्वारा प्राप्त विज्ञानको अपना नहीं है यह बताकर निर्वाणके साथ भी रागभावके विकसको मिटाया है । मर्व प्रकार रागद्वेष मोहको. सर्व प्रकार तृष्णाको हटा देनेपर जो कुछ भी शेष रहता है वही सत्य तत्व है। इसीलिये ऐसे ज्ञाताको क्षीणास्रव, कृतकृत्य सत्यव्रतको प्राप्त व सम्यरज्ञान द्वारा मुक्त कहा है। यह दशा वही है जिसको समाधि प्राप्त दशा कहते हैं, जहां ऐसा मगन होता है कि मैं या तू का व क्या मैं हूं क्या नहीं हूं इस बातका कुछ भी चितवन नहीं होता है। चिन्तव। करना मनक स्वभाव है । सूक्ष्म त ब मनसे बाहर है । जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ac जैन बौद तत्यान। [३ सर्व प्रकारके चिन्तवनको छोडता है वही उस स्वानुभवको पहुंचता है। जिससे मूल पदार्थ जो आप है सो अपने हीको प्राप्त होजाता है। यही निर्वाणका मार्ग है व इसीकी पूर्णता निर्वाण है। बौद्ध ग्रंथों में निर्वाणका मार्ग आठ प्रकार बताया है। १सम्यग्दर्शन, २-सम्यक् संकल्प ( ज्ञान ), ३-सम्यक् वचन, ४सम्यक् कर्म, ५- सम्यक् आजीविका, ६-सम्यक व्यायाम, ७-सम्यक स्मृति, ८-सम्यक समाधि । सम्यक् समाधिमें पहुंचनेसे स्मरण का विकल्प भी समाधिके सागरमें डूब जाता है । यही मार्ग है जिसके सर्व पासव या राम देष मोह क्षय होजाते हैं और यह निर्वाणरूप या मुक्त होजाता है। वह निर्वाण कैसा है, उसके लिये इसी मज्झिमनिकायके अरिय परिएषन सूत्र नं० २६ से विदित है कि वह "अजातं, अनुत्तर, योगक्खेमं, अजरं, भव्याधि, अमतं, अशोकं, असंश्लिष्टुं निव्वाणं अधिगतो, अधिगतोखो मे अयंधम्मो दुद्दसो, दुरन वांधो, संतो, पणीतो, मतकावचरो, निपुणो, पंडित वेदनीयो । " निर्वाण भजात है पैदा नहीं हुई है अर्थात् स्वाभाविक है, अनुपम है, परम कल्याणरूप है या ध्यान द्वारा क्षेमरूप है, जरा रहित है, व्याधि रहित है, मरण रहित है, अमर है, शोक व क्लेशोंसे रहित है। मैंने उस धर्मको जान लिया जो धर्म गंभीर है, जिसका देखना जानना कठिन है, जो शांत है, उत्तम है, तर्कसे बाहर है, निपुण है, पण्डितोंके द्वारा अनुभवगम्य है। पाली कोषमें निर्वाणके नीचे लिखे विशेषण हैं-- मुखो (मुख्य), निरोधो (संसारका निरोध), निव्वानं, दीपं, तण्हक्लम (तृष्णाका क्षय), तानं (रक्षक), लेनं (कीनता) भरूप, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। संत (शांत), असंखतं (मसंस्कृत या सहज स्वामाविक) सिवं (आनंदरूप; ममुत्तं (अमुर्तीक), सुदुहसं (कठिनतासे अनुभव योग्य), परायनं (श्रेष्ठ मार्ग), सरण (शरणभूत , निपुणं, अनंत, अक्खरं (अक्षय), दुःखक्खस (दुःखोंका नाश', अव्यापज्झ (सत्य), अनालयं (उच्चगृह), विवह (संसारसहित , खेम. केवल, अपवम्गो (अपवर्ग), विरागो, पीतं (उत्तम), अच्चुतं पदं (अविनाशी पद), पारं, योगखेमं मुत्ति (मुक्ति), विशुद्धि, विमुत्ति, (विमुक्ति) असंखत धातु (असंस्कृत धातु), सुद्धि, निव्वुत्ति (निर्वृत्ति) इन विशेषणोंका विशेष्य क्या है। वहीं निर्वाण है। वह क्या है, सो भी अनुभवगम्य है। . यह कोई अभावरूप पदार्थ नहीं होमक्ता । जो अभाव रूप कुछ नहीं मानते हैं उनके लिये मुझे यह प्रगट कर देना है कि अभावके या शून्यके य विशेषण नहीं होसक्ते कि निर्वाण अजात है व अमृत है व अक्षय है व शांत है व अनंत है व पंडितों द्वारा अनुभवगम्य है। कोई भी बुद्धिमान बिलकुल अभाव या शून्यकी ऐसी तारीफ नहीं कर सक्ता है। अजात व अमर ये दो शब्द किसी गुप्त तत्वको बताते हैं जो न कभी जन्मता है न मरता है वह सिवाय शुद्ध भात्मतत्वके और कोई नहीं होसक्ता । शांति व आनंद अपने में लीन होनेसे ही आता है । अभावरूप निर्वाणके लिये कोई उद्यम नहीं कर सकता। इन्द्रियों व मनके द्वारा जाननेयोग्य सर्व नय, वेदना, संज्ञा, संस्कार व विज्ञान ही संसार है, इनसे परे जो कोई है वही निर्वाण है तथा वही शुद्धात्मा है। ऐसा ही जैन सिद्धांत भी मानता है। The doctrine of the Budha by George Grimm Laipzic Germany 1936. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। - ... Page 350-351 Bliss is Nibhan, Nibhan highest bliss ( Dhamma pada ) __ आनन्द निर्वाण है, मानन्द निर्वाण है, निर्वाण परम सुख है ऐसा धम्मपदमें यह बात ग्रिम साहबने अपनी पुस्तक बुद्ध शिक्षाने लिखी है। Some sayings of Budha-by Woodword Ceylon 1925. ___ Page 2-1-4 Search after the unsurpassed perfect security which is Nibban. Goal is incomparable security which has Nibbạn. अनुपम व पूर्ण शरणकी खोज करो, यही निर्वाण है। अनुपम शरण निर्वाण है, ऐसा उद्देश्य बनाओ। यह बात वुडवर्ड साहबने अपनी बुद्धवचन पुस्तकमें लिखी है । The life of Budha by Edward J. Thomas 1927. Page 187-It is unnecessary to discuss the View that Nirvan macans the extinction of the individual, no such Via bas ever been supported from the texts, - भावार्य-यह तर्क करना व्यर्थ है कि निर्वाणमें व्यक्तिका नाच है, बौद्ध ग्रंथों में यह बात सिद्ध नहीं होती है। .. मैंने भी जितना बौद्ध साहित्य देखा है उससे निर्वाणका रदी स्वरूप झलकता है जैसा जैन सिद्धांतने माना है कि वह एक बन भवगम्य अविनाशी मानंदमय परमशांत पदार्थ है। जैन सिद्धांतमें भी मोक्षमार्ग सम्यक्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्बचारित्र तीन कहे हैं, जो बोद्धोंके अष्टांग मार्गमे मिल जाते हैं। सम्यक्दर्शनमें सम्यक्दर्शन गर्मित है, सम्यग्ज्ञानमें सम्यक् संकल गर्भित है, सम्यकचारित्रमें शेष छ: गर्मित है। जैनसिद्धांतमें निश्रय सम्मकूचारित्र भात्मध्यान व समाषिको कहते है । इसके लिये नौ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। कारण है उसको व्यवहार चारित्र कहते हैं। जैसे मन, वचन, कायकी शुद्धि. शुद्ध भोजन, तपका प्रयत्न, तथा तत्वका स्मरण । जिस तरह इस मुल पर्याय सूत्र में समाधिके लामके लिये सर्व अपनेसे परसे मोह कुड़ाया है उसी तरह नन सिद्धांतमें वर्णन है। जैन सिद्धांतमें समानता। श्री कुन्दकन्दाचार्य समयसारमें कहते हैंअहमेदं एदमहं, अहमेदस्सेव होमि मम एदं । मण्ण जं परदध्वं, सचित्ताचित्तमिस्सं वा ॥ २५ ॥ बासि मम पुष्वमेदं बहमेदं चावि पुष्यकाळलि । होहिदि पुणोवि मज्हं, महमेदं चावि होम्सामि ॥ २६ ॥ एवंतु मसंभूदं भादवियध्वं करेदि सम्मुढो । मूदत्थं जाणतो, " करेदि दु तं असम्मुढो ॥ २७ ।। भावार्थ-आपसे जुदे जितने भी पर द्रव्य हैं चाहे वे संचित खी पुत्र मित्र आदि हों या अचित्त सोना चांदी आदि हों या मिश्र बगर देशादि हों, उनके सम्बन्धमें यह विवा करना कि मैं यह हूं गा यह मुझ रूप है, मैं हसका हूं या यह मेरा है, यह पहले मेरा माया मैं पूर्वकालमें इस रूप था या मेरा भागामी होजायगा या में इस रूप होजाऊंगा, मज्ञानी ऐसे मिथ्या विकल्प किया करता है, ज्ञानी यथार्थ तत्वको जानता हुमा इन झूठे विकल्पोंको नहीं करता है । यहां सचिन, अचित्त, मिश्रमें सर्व अपने से जुदे पदार्थ भागर हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति व पशुजाति, मानवजाति देखनाति व प्राणरहित सर्व पुद्गल परमाणु मादि आकाश, काल, धर्म अपर्म द्रव्य व संसारी जीवोंके सर्व प्रकारके शुभ व अशुभ माव 4 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन बौद्ध तत्वज्ञान। दशाएं-केवल आप अकेला बच गया। वही मैं हूं वही मैं था वही मैं रहूंगा। मेरे सिवाय अन्य मैं नहीं है, न कभी था न कमी हूंगा। जैसे मुल पर्याय सूत्रमें विवेक या भेदविज्ञानको बताया है वैसा ही यहां बताया है। समयसारम और भी स्पष्ट कर दिया है महमिको स्खलु सुद्धो, दंसणणाणमइभो सयारूवी । णवि बत्थि मन्झ किंचिव अण्णं परमाणुमित्तं वि ॥ ४३ ॥ भावार्व-मैं एक अकेला हूं, निश्चयसे शुद्ध हूं, दर्शन व ज्ञान स्वरूप ई. सदा ही भमूर्तीक हूं, अन्य परमाणु मात्र भी मेरा कोई नहीं है। श्री पूज्यपादस्वामी समाधिशतकमें कहते हैं स्वनुया यावद्गृहणीयात्कायवाक् चेतसां अयम् । संसारस्तावदेतेषां भेदाभ्यासे तु निवृतिः ॥ ६२ ॥ भावार्थ-जबतक मन, वचन व काय इन तीनोंमेंसे किसीको भी मात्मबुद्धिसे मानता रहेग! वहांतक संसार है, भेदज्ञान होनेपर मुक्ति होजायगी। यहां मन वचन कायमें सर्व जगतका प्रपञ्च आगया। क्योंकि विचार करनेवाला मन है। वचनोंसे कहा जाता है, शरीरसे काम किया जाता है। मोक्ष का उपाय भेद विज्ञान ही है। ऐसा अमृतचंद्र भाचार्य समयसारकलशमें कहते हैं __ भावयेमेदविज्ञानमिदमच्छिन्नधाग्या। तावधावत्पराच्छया ज्ञाने जाने प्रतिष्ठते ॥ ६-६॥ भावार्थ - मेदविज्ञानकी भावना लगातार उस समय तक करते रहो जबतक ज्ञान परसे छूटकर ज्ञानमें प्रतिष्ठाको न पावे अर्थात जबतक शुद्ध पूर्ण ज्ञान न हो। इस मूल पर्याय सत्र में इसी भेदविज्ञानको बताया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] दूसरा मांग। (२)मज्झिमनिकाय सव्वासवसूत्र या सर्वास्तवसूत्र। इस सूत्रमें सारे अ स्रवोंके संदरका उपदेश गौतमबुद्धने दिया है। आस्रव और संवा शब्द न सिद्धांतमें शब्दोंके यथार्थ अर्थमें दिस्खलाए गए हैं। जैनसिद्धांत में परमाणुओंके स्कंध बनते रहते हैं उनमें से सूक्ष्म स्कंध कार्माणवर्गण.एँ हैं जो सर्वत्र लोकमें व्याप्त हैं। मन, वचन, कायकी क्रिया होनेसे ये आने पास खिंच आती हैं और पाप या पुण्यरूपमें बंच जाती है। जिन भावोंसे ये आती हैं उनको भावास्रव कहते हैं व उनके आनेको द्रव्यासव कहते हैं। उनके विरोधी रोकनेवाले मावोंको भावसंवर कहते हैं और कर्मवर्गणाओंके रुक जानेको द्रव्यसंवर कहते हैं। इस बौद्ध सूत्रमें भावासवोंका कथन इस तरहपर किया है-भिक्षुओ! जिन धर्मोके मनमें करनेसे उसके भीत. अनुत्पन्न काम बास्रब (कामनारूपी मल) उत्पन्न होता है और उत्पन्न काम आस्रव बढ़ता है, उत्पन्न भव आसब (जन्मनेकी इच्छारूपी मल) उत्पन्न होता है और उत्पन्न भव अनु. त्पन्न अविद्या आस्रव (अज्ञानरूपी मट) उत्पन्न होता है और उत्पन्न अविद्या भाषेत्र बढ़ता है इन धमो को नहीं करना योग्य है। नोट-यहां काम भाव जन्म भाव व अज्ञान भावको मूल भावा. रूव बताकर समाधि भावमें ही पहुंचाया है, जहां निष्काम भाव है न जन्मनेकी इच्छा है न मात्मज्ञानको छोडकर कोई भाराम है। निर्विकल्प समाधिके भीतर प्रवेश कराया है। इसी लिये इसी सूत्रमें कहा है कि जो इस समाधिके बाहर होता है बह छः दृष्टियोंके भीतर फंस जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद तस्यान। " (१) मेरा मात्मा है, (२) मेरे भीतर मात्मा नहीं है, (३) मात्माको ही भात्मा समझता हूं. (४) भात्माको ही अनात्मा सम. झता हूं, (५) अनात्माको ही मात्मा समझता हूं, (६) जो यह मेरा भास्मा अनुभव कर्ता (वेदक) तथा अनुभव करने योग्य (वेध) और तहां तहां (मपने) मले बुरे कमौके विपाकको अनुभव करता है वह यह मेरा मात्मा नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अपरिवर्तनशील (अविपरिणाम धर्मा) है, गनन्त वर्षों तक वैसा ही रहेगा। भिक्षुओ ! इसे कहते हैं दृष्टिमत (मतवाद), दृष्टिगहन (दृष्टिका घना जंगल), दृष्टिकी मरुभूमि ( इष्टिका तार ), दृष्टिका कांटा ( दृष्टि विशक ), इष्टिका फंदा (दृष्टि संयोजन) । भिक्षुमो ! दृष्टिके फंदेमें फंसा भज्ञ अनाड़ी पुरुष जन्म जरा मरण शोक, रोदन क्रंदन, दुःख दुर्मनस्कता और ईरानियोंसे नहीं छूटता, दुःखसे परिमुक्त नहीं होता।" मोट-ऊपरकी छः दृष्टियोंका विचार जहांतक रहेगा वहांतक स्वानुभव नहीं होगा । मैं इंवा मैं नहीं है, क्या हूं क्या नहीं हूं, कैसा था कैसा महंगा, इत्यादि सर्व वह विकल्पजाल है जिसके भीतर फंसनेसे रागद्वेष मोह नहीं दुर होता। वीतरागभाव नहीं पैदा होता है। इस कथनको पढ़कर कोई कोई ऐसा मतलब लगाते हैं कि गौतमबुद्ध किसी शुद्धबुद्धपूर्ण एक आत्माको जो निर्वाण स्वरूप है।उसको भी नहीं मानते थे। जो ऐसा मानेगा उसके मतमें निर्वाण अभाव रूप होजायगा। यदि वे आत्माका सर्वथा अभाव मानते तो मेरे भीतर भात्मा नहीं है, इस दूसरी दृष्टिको नहीं कहने । वास्तवमें यहां सर्व विचारोंके अमावकी तरफ संकेत है। । यही बात जैनसिद्धांतमें समाविशतक में इस प्रकार बताई है. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ससस मांग। येनात्मनाऽनुभूयेऽहमात्मनैवात्मनात्मनि । सोऽहं न तन सा नासो नैका न द्वौ न वा बहुः ॥ २३ ॥ यदभावे सुषप्तोऽहं यद्भावे व्युस्थितः पुनः। ... तीन्द्रियमनिर्देश्य तस्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥ २४ ॥ भावार्य-इन दो श्लोकोंमें समाधि प्राप्त की दशाको बताया है। समाधि प्राप्तके भीतर कुछ भी विचार नहीं होता है कि में क्या हूं क्या नहीं है। जिस स्वरूपसे मैं अपने ही भीतर अपने ही हारा अपने रूपसे ही अनुभव करता है, वही मैं हूं। न में नपुंसक ई न खी हूं. न पुरुष हूं, न मैं एक ई न दो हूं न बहुत हूं। जिस किसी वस्तुके बहाभये में सोया हुआ था व जिसके लाभ में जाग उठा वह मैं एक इन्द्रियोंसे मतीत हूं, जिसका कोई नाम नहीं है जो मात्र मापसे ही अनुभव करनेयोग्य है। समयसार कलशमें यही बात कही है। य एव मुक्यानयपक्षपात स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यं । विकल्पजाच्युतशान्तचित्तास्त एक साक्षादमृत पिर्वति ॥२॥ भावाथ-जो कोई सर्व अपेक्षाओंके विचाररूपी पक्षपातको कि में ऐसा हं व ऐसा नहीं इं छोड़कर अपने आपमें गुप्त होकर हमेशा रहते हैं अर्थात् स्वानुभवमें या समाधिये मगन होजाते हैं वे ही सर्व विकल्पोंके जालसे छूटकर शांत चित होते हुए साक्षात् अमृतका पान करते हैं। यही संवरमाव है। न यहां कोई कामना है, न कोई जन्म लेने की इच्छा है, न कोई अज्ञान है, शुद्ध पात्मज्ञान है । मही मोक्षमार्ग है। इसी सत्र में बुद्ध बचन है “जो यह ठीकसे मनमें करता है कि महाख है, यह दुःख समुदय (दुःखका कारण) है, यह दुःखका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [११ निरोष है, यह दुःख निरोधकी ओर लेजानेवाला मार्ग (पतिपद) है उसके तीन संयोजन (बन्धन) छूट जाते हैं । (१) सक्काय दिही, (२) विचिकिच्छा, (३) सीलन्चत परामोसो अर्थात् सक्काय दृष्टि (निर्वाणरूपके सिवाय किसी अन्यको आपरूप मानना, विचिकित्सा(आपमें संशय). शीलवत परामर्श ( शील और व्रतोंको ही पालनेसे मैं मुक्त होजाऊंगा यह अभिमान )।" इसका भाव यही है कि जहांतक निर्वाणको नहीं समझा कि वह ही दुःखका नाशक है वहांतक संसारमे दुःख ही दुःख है । अविद्या और तृष्णा दुःखके कारण हैं, निर्वाणका प्रेम होते ही संसारकी सर्व तृष्णा मिट जाती है । निर्वाणका उपाय सम्यग्समाधि है। वह तय ही होगी जब निर्वाणके सिवाय किसी आपको मापरूप न माना जावे व निर्वाणमें संशय न हो व बाहरी चारित्र व्रत शील उपवास मादि अहंकार छोड़ा जावे। परमार्थ मार्ग सम्यग्समाधि भाव है। इसी स्थल पर इस सूत्रमें लेख है-मिक्षुमो! यह दर्शनसे प्रहातत्व आसव कहे नाते हैं । यहां दर्शनसे मतलब सम्यग्दर्शनसे है। सम्यग्दर्शनसे मिथ्यादर्शनरूप पासवभाव रुक जाता है, यही बात जैन सिद्धांत कही है श्री उमास्वामी महाराज तत्वार्थसूत्रमें कहते हैं“मिथ्यादर्शनविरतिवमादकषाययोगाबन्धहेतवः ॥१-८॥ म. " शंकाकांक्षाविचिकित्सान्यदृष्टिाशमा संस्तवाः सम्यादृष्टेरतीचारा:"॥ २३-७१० ॥ भावार्य-कर्मोके भासव तथा बंधके कारणभाव पांच हैं-(१) मिथ्यावर्डन, (२) हिंसा, असत्य, चोरी, कुचीक व परिग्रह पांच भकि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ . . दसरा मामा रति, (३)प्रमाद, (४) क्रोधादि कषाय,(५) मन वचन कायकी क्रिया। जिसको आत्मतत्वका सच्चा शृद्धान होगया है कि वह निर्वाणरूप है, सर्व सांसारिक प्रपंचोंसे शून्य है, रागादिरहित है, परमशांत है, परमानंदरूप है, अनुभवगम्य है उसीके ही सम्यग्दर्शन गुण प्रगट होता है तब उसके भीतर पांच दोष नहीं रहने चाहिये। (१) शंकातत्वमें संदेह । (२) कांक्षा- किसी भी विषयभोगकी इच्छा नहीं, अविनाशी निर्वाणको ही उपादेय या ग्रहणयोग्य न मानके सांसारिक सुखकी वांछाका होना, (३) विचिकित्सा-ग्लानि-सर्व वस्तुमोको यथार्थ रूपसे समझकर किसीसे द्वेषभाव रखना (४) जो सम्यग्दर्शनसे विरुद्ध मिथ्यादर्शनको रखता है उसकी मनमें प्रशंसा करना (५) उसकी बचनसे स्तुति करना । . उसी सेवानवमुत्रमें है कि भिक्षुओं ! कौनसे संवरद्वारा प्रहातत्व बामव है । भिक्षुओं यहां कोई भिक्षु ठीकसे जानकर चक्षु इंद्रियों संयम करके विहरता है तब चक्षु इंद्रियसे असंयम करके बिहरनेपर जो पीडा व दाह उत्पन्न करनेवाले भासव हो तो वे चक्षु इंद्वियसे संवरमुक्त होनेपर विहार करते नहीं होते। इसी तरह श्रोत्र इंद्रिय, प्राण इंद्रिय, निहा इंद्रिय, पाय ( स्पर्शन ) इंद्रिय, मन इंद्रियमें संयम करके विहरने से पीडा व दाहकारक मानव उत्पन्न नहीं होते।" . भावार्थ-यहां यह बताया है. कि पांच इंद्रिय तथा मनके विषयोंमें गगभाव करनेसे जो आस्रव भाव होते हैं वे भासव पांच इंद्रिव और मनके रोक लेने पर नहीं होते हैं । . जैन सिद्धांतमें भी इंद्रियोंके व मनके विषयों रमनेसे आसव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वान। होना बताया है. व उनके रोकनेसे संबर होता है ऐसा दिखाया है। इन छहोंके रोकनेपर ही समाधि होती है। श्री पूज्यपादस्वामी समाधिशतक में कहते हैंसन्द्रियाणि संयम्यस्तिमितेनान्तरात्मना। ..यत्क्षणं पश्यतो भाति तत्तत्वं परमात्मनः ॥ ३० ॥ भावार्थ-जब सर्व इन्द्रियोंको संयममें . लाकर भीतर स्थिर होकर अन्तरात्मा या सम्यग्दृष्टि जिस क्षण जो कुछ भी अनुभव करता है वही परमात्माका या शुद्धात्माका स्वरूप है। आगे इसी सर्वास्तवसूत्र में कहा है-भिक्षुओं! "यहां भिक्षु ठीकसे जानकर सर्दी गर्मी, भूख प्यास, मक्खी मच्छर, हवा धूप, सरी, सर्पादिके आघातको सहने में समर्थ होता है. वाणीसे निकले दुर्वचन तथा शरीरमें उत्पन्न ऐसी दुःखमय, तीव्र. तीक्ष्ण, कटुक. भवांछित, अरुचिकर, प्राणहर पीड़ाओंको स्वागत करनेवाले स्वभावका होता है। जिनके अधिवासना न करनेसे (न सहनेसे) दाह और पीड़ा देनेवाले मानव उत्पन्न होते हैं और अधिवासना करनेसे वे उत्पन्न नहीं होते । यह अधिवासना द्वारा प्रहातव्य मास्रव कहे जाते हैं।" यहां पर परीषहोंके जीतनेको संवर भाव कहा गया है । यही बात जैन सिद्धांतमें कही है। वहां संवरके लिये श्री उमास्वामी महाराजने तत्वार्थसत्रमें कहा है “मानवनिरोधः संवरः ॥ १॥ स गुप्तिसमितियानुप्रेक्षापरीपहनयचारित्रैः ॥ ॥२-०९॥ भावार्थ-भासवका रोकना संवर है। वह संवर गुप्ति (मन, वचन, कायको वश रखना), समिति (मलेपकार वर्तना, देखकर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] सरा माम। चलना आदि), धर्म ( क्रोधादिको जीतकर उत्तम क्षमा आदि ), अनुप्रेक्षा (संसार भनित्य है इत्यादि भावना ), परीषह जय (कष्टोंको जीतना) तथा चारित्र ( योग्य व्यहार व निश्चय चारित्र समाधिभाव) से होता है। "क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनारन्यारतिस्त्रीचर्यानिषद्याशय्या..कोशवधयाचनाऽलामरोगतृणस्पर्शमलसत्कार पुरस्कार प्रज्ञाऽज्ञानादर्श नानि ।। ९-१० ९॥ भावार्थ- नीचे लिखी बाइस बातोंको शांतिसे सहना चाहिये(२) भूख, (२) प्यास, (३) शर्दी, (४) गर्मी, (५) डांस मच्छर, (६) नमता, (७) अरति (ठीक मनोज्ञ वस्तु न होनेपर दुःख) (८) की (स्त्री द्वारा मनको डिगाने की क्रिया), (९) चकनेका कष्ट, (१०) बैठने का कष्ट, (११) सोनेका कष्ट, (१२) भाक्रोश-गाली दुर्वचन, (१३। वध या मारे पीटे जानेका कष्ट, (१४) याचना (मांगना नहीं), (१५) मलाभ-भिक्षा न मिलनेपर खेद, (१६) रोग-पीडा, (१७) तृण र्श-कांटेदार झाडीका स्पर्श (१८) मल-शरीरके मैले होनेपर ग्लानि (१९) मादर निरादर (२०) प्रज्ञा-बहु ज्ञान होनेपर घमंड (२१) अज्ञान-रोगपर खेद (२१) अदर्सन-ऋद्धि सिद्ध न होनेपर श्रद्धानका बिगाडना" जैन साधुगण इन बाईस बातोंको जीतते हैं । तब न जीतनेसे जो आस्रव होता सो नहीं होता है। इसी सर्वासव सूत्रमें है कि भिक्षुओ ! कौनसे विजोदन (हटाने) द्वारा प्रहातव्य भास्रव है । भिक्षुओं ! यहां (एक) भिक्षु ठीकसे जानकार उत्पन्न हुए । काम वितर्क (काम वासना सम्बन्धी संकल्य विकल्प) का स्वागत नहीं करता, (उसे) छोडता है, हटाता है, अलग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन बोल तत्वान। [१] करता है, मिटाता है, उत्पन हुए व्यापाद वितर्क (द्रोहके रूमाल) का, उत्पन्न हुए. विहिंसा वितर्क (अति हिंसाके ख्याल) का, पुनः पुनः उत्पन होनेवाले, पापी विचारों (धर्मो)का स्वागत नहीं करता है। मिषभो ! जिसके न हटनेसे दाह और पीड़ा देनेवाले बांसव उत्तम होते हैं. और विनोद न करनेसे उत्पन्न नहीं होते। जैन सिद्धांतके कहे हुए भासव भावोंमें कषाय भी है जैसा ऊपर लिखा है कि मिथ्यात्व, भविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पांच आमवभाव हैं। कोष, मान, माया, लोभसे विचारोंको रोकनेसे कामभाव, द्वेषभाव, हिंसाभाव व अन्य पापमय भाव रुक जाते हैं। इसी सर्वासव -सूत्र में है कि भिक्षुमो! कौनसे भावना द्वारा प्रहातव्य पासव है ? भिक्षुओं! यहां (एक) भिक्षु ठोकसे जानकर विवेकयुक्त, विरागयुक्त, निरोधयुक्त मुक्ति परिणामकाले स्मृति संबोध्यंगकी भावना करता है। ठीकसे जानकर स्मृति, धर्मविचय, वीर्यविचय, प्रीति, प्रश्रब्धि, समाधि, उपेक्षा संबोध्यंगकी भावना करता है। नोट-संबोधि परम ज्ञानको कहते हैं, उसके लिये जो अंग उपयोगी हो उनको संबोध्यंग बहने हैं, वे सात हैं-स्मृति (सत्यका स्मरण), धर्मविचय (धर्मका विचार!. वीर्यविचय (अपनी शक्तिका उपयोग करने का विचार), प्रीएि स्तोष), प्रश्रब्बि (शांति), समाधि (चित्तकी एकाग्रता), उपेक्षा (वैराय ) ।। जन सिद्धांतमें संवरके कारणों में अनुमक्षाको ऊपर कहा गया है । वारवार विचारनेको या भावना करनेको अनुप्रेक्षा कहते हैं । वे भावनाएं बारह हैं उनमें स्वस्रव सूत्रमें कही हुई भावनाएं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसरा मार्ग गर्मित होजाती हैं। १-अनित्य (संसारकी भवस्थाएं नाशवन्त हैं), २-अशरण (मरणसे कोई रक्षक नहीं है. ३-संसार (संसार दुःख - मय है), ४-एकत्व ( अकेले ही सुख दुःख भोगना पडता है माप मला है सर्व कर्म भादि भिन्न हैं), ५-अन्यत्व (शरीरादि सब मात्मासे भिन्न हैं) ६-अशुचित्व (मानवका यह शरीर महान अपवित्र है), ७-आस्रव (कर्मोके आने के क्या २ भाव हैं), ८-संबर ( कर्मोके रोकने के क्या क्या भाव हैं ) ९-निर्जरा (कर्मोंके क्षय करने के क्यार उपाय हैं, १०-लोक (जगत जीव अजीव द्रव्योंका समूह अकृत्रिम व अनादि अनंत है ) ११-बोधिदुर्लभ (रत्नत्रय धर्मका मिलना दुर्लभ है), १२-धम (आत्माका स्वभाव धर्म है)। इन १२ भावनाओं के चिन्तवनसे वैराग्य छाजाता है-परिणाम शांत होजाते हैं। . नोट-पाठकगण देखेंगे कि असवभाव ही संसार भ्रमणके कारण हैं व इनके रोकनेहीसे संसारका अंत है। यह कथन जैन सिद्धांत और बौद्ध सिद्धांतका एकसा ही है । इस सर्वास्रव सूत्रके अनुसार जैन सिद्धांतमें भावासवोंको बताकर उनसे कर्म पुद्गल खिंचकर आता है, वे पुद्गल पाप या पुण्य रूपसे जीवके साथ चले आए हुए कार्माण शरीर या सूक्ष्म शरीर साथ बंध जाते हैं। और अपने विपाक पर फल देकर या विना फल दिये झड जाते हैं। यह कर्म सिद्धांतकी बात यहां इस सूत्रमें नहीं है। जैन सिद्धांतमें भासवभाव व संवरभाव ऊपर कहे गए हैं उनका सष्ट वर्णन यह है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१० आस्रवमाव । (१) मिथ्बादर्शन (२) मविरति हिंसादि ' संघरमाव । सम्यग्दर्शन ५व्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रह त्याग, या १२ मविरतिभाव, पांच इंद्रिय व मनको न रोकना तथा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति तथा त्रसकायका विराधा अपमाद वीतरागभाव (३) प्रमाद (मसावधानी) (४) कषाय-क्रोध, मान, माया, गेम। (५) योग-मन, वचन, कायकी योगोंकी गुप्ति क्रिया। विशेष रूपसे संवरके भाव कहे हैं(१) गुप्ति-मन, वचन, कायको रोकना । (२) समिति पांच-(१) देखकर चलना। २) शुद्ध वाणी कहना । (३) शुद्ध भोजन करना । (४) देखकर रखना उठाना । (५) देखकर भलमूत्र करना । (३) धर्म दश-(१) उत्तम क्षमा, (२) उत्तम मार्दव (कोमलता), (३) उत्तम आर्जव (सरलता), (४) उत्तम सत्य, (५) उत्तम शौच (पवित्रता) (६) उत्तम संयम, (७) उत्तम तप, (८) उत्तम त्याग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] दूसरा भाग । या दान, (९) उत्तम आकिंचन (ममत्व त्याग), (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य । (४) अनुप्रेक्षा - भावना बारह - नाम ऊपर कहे हैं । (५) परीषद जय - बाइस परीषह जीतना - नाम ऊपर कहे हैं। (६) चारित्र - पांच (१) सामायिक या समाधि भाव - शांत भाव, (२) छेदोपस्थापन, समाधिसे गिरकर फिर स्थापन, (३) परिहार विशुद्धि-विशेष हिंसाका त्याग, (४) सूक्ष्म सांवराम - अत्यल्प लोभ शेष, (५) यथाख्पात - नमुनेदार वीतराग भाव । इन संवरके भावों को जो साधु पूर्ण पालता है उसके कर्म पुद्गल का आना बिलकुल बंद हो जाता है । जितना कम पालता है उतना कमका माखव होता है। अभिप्राय यह है कि मुमुक्षुको आस्रवकारक भावोंसे बचकर संवर भावमें वर्तना योग्य है । ( ३ ) मज्झिमनिकाय - भय भैरव चौथा । सूत्र इस सूत्र में निर्भय भावकी महिमा बताई है कि जो साधु मन वचन कायसे शुद्ध होते हैं व परम निष्कम्प समाधि भावके अभ्यासी होते हैं वे वनमें रहते हुए किसी बातका भय नहीं प्राप्त करते । एक ब्राह्मणसे गौतमबुद्ध वार्तालाप कररहे हैं ब्राह्मण कहता है - " हे गौतम! कठिन है अरण्यवन खंड और सूनी कुटियां (शय्यासन), दुष्कर है एकाग्र रमण, समाधि न प्राप्त होनेपर अभिरमण न करनेवाले भिक्षुके मनको अकेला या यह वन मानो हर लेता है । " गौतम - ऐसा ही है ब्रह्मण ! सम्बोधि ( परम ज्ञान ) प्राप्त होनेसे पहले बुद्ध न होने के वक्त, जब मैं बोधिसत्व (ज्ञानका उम्मेद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन बौद्ध तत्वज्ञान | [ १९ वार) ही था तो मुझे भी ऐसा होता था कि कठिन है अरण्यवास | तब मेरे मन में ऐसा हुआ - जो कोई अशुद्ध कायिक कर्मसे युक्त श्रमण या ब्राह्मण अरण्यका सेवन करते हैं, अशुद्ध कायिक कर्मके दोषके कारण वह आप श्रमण-ब्राह्मण बुरे मय भैरव ( मय और भीषणता ) का आह्वान करते हैं । ( लेकिन ) मैं तो अशुद्ध कायिक कर्मसे मुक्त हो भरण्य सेवन नहीं कर रहा हूं । मेरे कायिक कर्म परिशुद्ध हैं। जो परिशुद्ध कायिक कर्मवाले भार्य मरण्य सेवन करते हैं उनमें से मैं एक हूँ । ब्राह्मण अपने भीतर इस परिशुद्ध कायिक कर्मके भाव को देखकर, मुझे अरण्यमें विहार करनेका और भी अधिक उत्साह हुआ। इसी तरह जो कोई अशुद्ध वाचिक कर्मवाले, अशुद्ध मानसिक कर्मवाले, अशुद्ध आजीविकावाले श्रमण ब्राह्मण अरण्य सेवन करते हैं वे भयभैरवको बुलाते हैं । मैं अशुद्ध वाचिक व मानसिक कर्म व आजीविका से मुक्त हो अरण्य सेवन नहीं कर रहा हूं, किन्तु शुद्ध वाचिक, मानसिक कर्म, व आजीविकाके भावको अपने भीतर देखकर मुझे अरण्यमें विहार करने का और भी अधिक उत्साह हुआ । हे ब्राह्मण ! तब मेरे मन में ऐसा हुआ । जो कोई श्रमण ब्राह्मण लोभी काम (वासनाओं) में तीव्र रागवाले वनका सेवन करते हैं या हिंसायुक्त-व्यापण चित्तवाले और मनमें दुष्ट संकल्पवाले या स्त्यान (शारीरिक आलस्य) गृद्धि (मानसिक आलस्य) से प्रेरित हो, या उद्धत और अशांत चित्तवाले हो, या लोभी, कांक्षावाले और संशयालु हो, या अपना उत्कर्ष (बड़प्पन चाहने) वाले तथा दूसरेको निन्दनेवाले हो, या जड़ और मीरु प्रकृतिवाले हो, ' " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०1 दरमाया या नाम, सत्कार प्रशंसाकी चाहना करते हों, या आलसी उद्योगहीन हो, या नष्ट स्पति हो और सूझसे वचित हो, या व्यग्र और विभ्रांत चित्त हो, या पुष्पुज्ञ (अज्ञानी) भेड़गूंगे बसे हो, वनका सेवन करते हैं वे इन दोषोंके कारण अकुशल भय भैरवको बुलाते हैं। मैं इन दोषोंसे युक्त हो वनका सेवन नहीं कर रहा हूं। जो कोई इन दोषोंसे मुक्त न होकर वनका सेवन करते हैं उनमें से मैं एक हूं। इस तरह हे ब्राह्मण ! अपने भीतर निर्लोमताको, मैत्रीयुक्त चिचको, शारीरिक व मानसिक आलस्पके अभावको, उपशांत तित्पनेको, निःशंक भावको, अपना उत्कर्ष व परनिन्दा न चाहनेवाले भावको, निर्भयताको, अल्प इच्छाको, वीर्यपनेको, स्मृति सयुक्तताको, समाधि सम्पदाको, तथा प्रज्ञासम्पदाको देखता हुमा मुझे अरण्यमें विहार करनेका और भी अधिक उत्साह उत्पन्न हुमा । ___ तब मेरे मनमें ऐसा हुआ जो यह सम्मानित व अमिलक्षित (प्रसिद्ध ) रातियां हैं जैसे पक्षकी चतुदशी, पूर्णर्मासी और अष्टमीकी रातें हैं वैसी रातोंमें जो यह भयप्रद रोमांचकारक स्थान हैं जैसे मारामचैत्य, बनचैत्य, वृश्चैत्य वैसे शयनासनोंमें विहार करनेसे शायद तब भयभैरव देखू । तब मैं वैसे शयनासनोंमें विहार करने लगा। तब ब्राह्मण ! वैसे विहरते समय मेरे पास मृग भाता था या मोर काठ गिरा देता या हवा पत्तोंको फरफराती तो मेरे मनमें जरूर होता कि यह वही भय भैरव मारहा है। तब ब्राह्मण मेरे मनमें होता कि क्यों मैं दूसरेसे भयकी भाकांक्षामें विहररहा हूं ? क्यों न मैं जिस जिस अवस्था रहता। जैसे मेरे पास वह भयभैरव माता है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१ चैसी वैसी अवस्था में रहते उस भयभैरवको हटाऊँ। जब ब्राह्मण ! टहलते हुए मेरे पास भयभैरव आता तब मैं न खड़ा होता, न बैठता, न लेटता। टहलते हुए ही उस भयभैरवको हटाता । इसी तरह खडे होते, बैठे हुए व लेटे हुए जब कोई भय भैरव माता मैं वैसा ही रहता, निर्भय रहता। ब्राह्मण ! मैंने अपना वीर्य या उद्योग भारंम किया था। मेरी मूढ़ता रहित स्मृति जागृत थी, मेरी काय प्रसन्न व आकुलता रहित थी, मेरा चित्त समाधि सहित एकाग्र था। (१) सो मैं कामोंसे रहित, बुरी बातोंसे रहित विवेकसे उत्पन्न सवितर्क और सविचार प्रीति और सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा। (२) फिर वितर्क और विचारके शांत होनेपर भीतरी शांत व चित्तको एकाग्रता वाले वितर्क रहित विचार रहित प्रीति-मुख वाले द्वितीय घ्यानको प्राप्त हो बिहरने लगा। (३) फिर प्रीतिसे विरक्त हो उपेक्षक वन स्मृति और अनुभवसे युक्त हो शरीरसे सुख अनुभव करते जिसे आर्य उपेक्षक, स्मृतिमान् सुख विहारी कहते हैं उस तृतीय ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा । (४) फिर सुख दुखके परित्यागसे चित्तोल्लास व चित्त संतापके पहले ही अस्त होमानेसे, सुख दुःख रहित जिसमें उपेक्षासे स्पतिकी शुद्धि होजाती है, इस चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा। _____ सो इसप्रकार चित्तके एकाग्र, परिशुद्ध, अंगण ( मल) रहित, मृदुमूत, स्थिर, और समाधियुक्त हो जानेपर पूर्व जन्मोंकी स्मृतिके लिये मैंने चित्तको झुकाया । इसप्रकार आकार और उद्देश्य सहित भनेक प्रकारके पूर्व निवासोंको स्मरण करने लगा। इसप्रकार प्रमाद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] दुसरा भाग। रहित व भात्मसंयम युक्त विहरते हुए, रातके पहले पहरमें मुझे यह पहली विद्या प्राप्त हुई. भविद्या नष्ट हुई, तम नष्ट हुआ, मालोक उत्पन्न हुभा । सो इसप्रकार चित्तको एकाग्र व परिशुद्ध होनेपर प्राणियोंके म•ण और जन्मके ज्ञान के लिये चित्तको झुकाया । सो मैं अमानुष, विशुद्ध, दिव्यचक्षुसे अच्छे बुरे, सुवर्ण दुर्वर्ण, सुगतिवाले, दुर्गतिवाले प्राणियोंको भरते उत्पन्न होते देखने लगा। कर्मानुसार (यथा कम्मवगे) गतिको प्राप्त होते प्राणियोंको पहचानने लगा। जो प्राणधारी कायिक दुराचारसे युक्त, वाचिक दुराचारसे युक्त, मानसिक दुराचारसे युक्त, आर्योंके निन्दक मिथ्याष्टि, मिथ्यादृष्टि कर्मको रखनेवाले (मिथ्यादृष्टि कम्म समादाना) थे वे काय छोडनेपर मरने के बाद दुर्गति पतन, नर्कमें प्राप्त हुए हैं । जो प्राणधारी कायिक, वाचिक, मानसिक सदाचारसे युक्त आर्योके मनिन्दक सम्यक्दृष्टि (सच्चे सिद्धांतवाले) सम्यकदृष्टि सम्बन्धी कर्मको करनेवाले (सम्मदिट्ठी कम्म समादाना) वे काय छोडनेपर मरनेके. बाद सुगति, स्वर्गलोकको प्राप्त हुए हैं । इसप्रकार समानुष विशुद्ध दिव्यचक्षुसे प्राणियोंको पहचानने लगा । रातके मध्यम पहरमें यह मुझे दूसरी विद्या प्राप्त हुई फिर इस प्रकार समाधियुक्त व शुद्ध चित्त होते हुए भासवोंके सबके ज्ञान के लिये चित्तको झुकाया। यह दुःख है, यह दुखका कारण है, यह दुःख निरोष है, यह दुःख निरोधका साधन (दुःनिरोध, गामिनीप्रतिपद्,) इसे यथार्भसे जान लिया। यह मानव है, यह आस्रवका कारण है, यह आस्रव निरोष है, यह भास्रव निरोधका साधन है यथार्थ जान लिया। सो इसप्रकार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [२३ देखते जानते मेरा चित्त काम, भव, व अविद्याके आस्रवोंसे मुक्त होगया। विमुक्त होजानेपर 'छूट गया' ऐसा ज्ञान हुआ। " जन्म खतम होगया, ब्रह्मचर्य पूरा होगया, करना था सो करलिया, अब वहां करनेके लिये कुछ शेष नहीं है" इस तरह रात्रिके अंतिम पहरमें यह मुझे तिसरी विद्या प्राप्त हुई। अविद्या चली गई, विद्या उत्पन्न हुई, तम विघटा, मालोक उत्पन्न हुआ । जैसा उनको होता हो जो अप्रमत्त उद्योगशील तत्वज्ञानी हैं। नोट-ऊपरका कथन पढकर कौन यह कह सकता है कि गौतम बुद्धका साधन उस निर्वाणके लिये था जो अभाव (annihilation) रूप है, यह बात बिलकुल समझमें नहीं आती। निर्वाण सदभाव रूप है, वह कोई अनिर्वचनीय अजर अमर शांत व आनन्दमय पदार्थ है ऐसा ही प्रतीतिमें आता है। बास्तवमें उसे ही जैन लोग सिद्ध पद शुद्ध पद, परमात्म पद, निज पद, मुक्त पद कहते हैं। इसी सूत्रमें कहा . है कि परमज्ञान प्राप्त होनेके पहले मैं ऐसा था। वह परमज्ञान वह विज्ञान नहीं होसक्ता जोपांच इंद्रि व मनकेद्वारा होता है, जो रूपके निमित्तसे होता है, जो रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कारसे विज्ञान होता है। इस पंचस्कंधीय वस्तुसे भिन्न ही कोई परम ज्ञान है जिससे जैन लोग शुद्ध ज्ञान या केवलज्ञान कह सक्ते हैं। इस सूत्रमें यह बताया है कि जिन साधुओंका या संतोंका अशुद्ध मन, वचन, कायका आचरण है व जिनका भोजन अशुद्ध है उनको वनमें भय लगता है। परन्तु जिनका मन वचन कायका चारित्र व भोजन शुद्ध हैं व जो लोभी नहीं है, हिंसक नहीं हैं, मानसी नहीं हैं, उद्धत नहीं हैं, संक्षय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] दूसरा भाग। सहित नहीं हैं, परनिन्दक नहीं हैं, भीरु नहीं हैं, सत्कार व लाभके भूखे नहीं हैं, स्मृतिवान हैं, निराकुल हैं, प्रज्ञावान हैं उनको वनमें भय नहीं प्राप्त होता, वे निर्भय हो वनमें विचरते हैं । समाधि और प्रज्ञाको सम्पदा बताई है। किसकी सम्पदा-अपने आपकी-निर्वाणको सर्व परसे भिन्न जाननेको ही प्रज्ञा या भेदविज्ञान कहते हैं। फिर भापका निर्वाण स्वरूप पदार्थके साथ एकाग्र होजाना यही समाधि है, यही बात जैन सिद्धांतमें कही है कि प्रज्ञा द्वारा समाधि प्राप्त होती है। फिर बताया है कि चौदस, अष्टमी, व पूर्णमासीकी रातको गौतमबुद्ध वनमें विशेष निर्भय हो समाधिका अभ्यास करते थे। इन रातोंको प्रसिद्ध कहा है । जैन लोगोंमें चौदस अष्टमीको पर्व मानकर मासमें ४ दिन उपवास करनेका व ध्यानका विशेष अभ्यास करनेका कथन है । कोई कोई श्रावक भी इन रातोंमें वनमें ठहर 'विशेष ध्यान करते हैं। सम्यग्दृष्टी कैसा निर्भय होता है यह बात भलेप्रकार दिखलाई है। यह बात झलकाई है कि निर्भयपना उसे ही कहते हैं जहां अपना मन ऐसा शांत सम व निराकुल हो कि आप जिस स्थितिमें हो वैसा ही रहते हुए निःशंक बना रहे। किसी भयको आते देखकर जरा भी भागनेकी व घबड़ानेकी चेष्टा न करे तो वह भयप्रद पशु आदि भी ऐसे शांत पुरुषको देखकर स्वयं शांत होजाते हैं, आक्रमण नहीं करते हैं। निर्भय होकर समाधिभावका अभ्यास करनेसे चार प्रकारके ध्यानको जागृत किया गया था। (१) जिसमें निर्वाणभावमें प्रीति हो व सुख प्रगटे तथा वितर्क व विचार भी हो, कुछ चिन्तवन भी हो, यह पहला ध्यान है । (२) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ९५ फिर वितक व विचार बंद होनेपर प्रीति व सुख सहित भाव रह जावे यह दूसरा ध्यान है । (३) फिर प्रीति सम्बंधी राग चला जावे - वैराग्य बढ जावे - निर्वाण मानके स्मरण सहित सुखका अनुभव हो सो तीसरा ध्यान है । (४) वैराग्य की वृद्धिसे शुद्ध व एकाग्र -स्मरण हो सो चौथा ध्यान है। ये चार ध्यानकी श्रेणियां हैं जिनको गौतमबुद्धने प्राप्त किया । इसी प्रकार जैन सिद्धांत में सरागध्यान व वीतराग ध्यानका वर्णन किया है। जितना जितना राग घटता है ध्यान निर्मल होता जाता है । फिर यह बताया है कि इस समाधियुक्त ध्यानसे व आत्मसंयमी होने से गौतमबुद्धको अपने पूर्व भव स्मरणमें आए फिर दूसरे प्राणियोंके जन्म मरण व कर्तव्य स्मरणमें आए कि मिथ्यादृष्टी जीव मन वचन कायके दुराचारसे नर्क गया व सम्यग्दृष्टी जीव मन वचन कायके सुभाचार से स्वर्ग गया यहां मिथ्यादृष्टी शब्द के साथ कर्म शब्द लगा है । जिसके अर्थ जैन सिद्धान्तानुसार मिथ्यात्व कर्म भी हो सक्ते हैं । जैन सिद्धांत में कर्म पुद्गलके स्कंध लोकव्यापी हैं उनको यह जीव जब खींचकर बांधता है तब उनमें कर्मका स्वभाव पडता है । मिध्यात्व भावसे मिथ्यात्व कर्म बंध जाता है । तथा सम्यक्त कर्म भी है जो श्रद्धाको निर्मक नहीं रखता है । इस अपने व दुसरोंके पूर्वकालके स्मरणोंकी शक्तिको अवधि ज्ञान नामका दिव्य ज्ञान जैन सिद्धांतने माना है । फिर बुद्ध कहते हैं कि जब मैंने दुःख व दुःखके कारणको व मासव व आसवके कारणको, दुःख व आस्रव निरोधको तथा दुःख व मासव निरोधके लाधनको मेले प्रकार जान लिया तब मैं सर्व इच्छाओंोंसे, जम्म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] . दूसराभाग । धारणके भावसे व सर्व प्रकारकी भविद्यासे मुक्त होगया । ऐसा मुझको भीतरसे अनुभव हुमा। ब्रह्मचर्य भाव जम गया। ब्रह्म भावमें लय होगया । यह तीसरी विद्या स्वरूपानन्दके लाभकी बताई है। यहांतक गौतमबुद्धकी उन्नतिकी बात कही है। इस सूत्रमें निर्भय रहकर विहार करनेकी व ध्यानकी महिमा बताई है। यह दिव्यज्ञान न कि पूर्वका स्मरण हो व समाधिमें मानन्द ज्ञान हो उस विज्ञानसे अवश्य भिन्न है जिसका कारण पांच इन्द्रिय व मन द्वारा रूपका ग्रहण है, फिर उसकी वेदना है, फिर संज्ञा है, फिर संस्कार है, फिर विज्ञान है । वह सब अशुद्ध इन्द्रियद्वारा ज्ञान है। इससे यह दिव्यज्ञान अवश्य विलक्षण है। जब यह बात है तब जो इस दिव्यज्ञानका आधार है वही वह आत्मा है जो निर्वाणमें अजात ममर रूपमें रहता है। सद्भावरूप निर्वाण सिवाय शुद्धात्माके स्वभावरूप पदके और क्या होसक्ता है, यही बात जैन सिद्धांतसे मिल जाती है। जन सिद्धांतके वाक्य-तत्वज्ञानी सम्यग्दृष्टीको सात तरहका भय नहीं करना चाहिये। (१) इस लोकका भय-जगतके लोग नाराज होजायंगे तो मुझे कष्ट देंगे, (२) परलोकका भय-मरकर दुर्गतिमें नाऊंगा तो कष्ट पाऊंगा,(३) वेदनाभय-रोग होजायगा तो क्या करूंगा, (४) अरक्षा भय-कोई मेरा रक्षक नहीं हैं मैं कैसे जीऊँगा (५) अगुप्ति भय-मेरी वस्तुएँ कोई उठा लेगा मैं क्या करूंगा (६) मरण भय-मरण भायगा तो बढ़ा कष्ट होगा (७) अकस्मात् भय-कहीं दीवाल न गिर पडे भूचाल न भावे । मिथ्यादृष्टिकी शरीरसे भासक्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-बौद्ध तत्वज्ञान । ।२७ . होती है, वह इन भयोंको नहीं छोड सक्ता है। सम्यग्दृष्टी तत्वज्ञानी है, आत्माके निर्वाण स्वरूपका प्रेमी है, संसारकी अनित्य अवस्थाओंको अपने ही बांधे हुए कर्मका फल जानकर उनके होनेपर आश्चर्य या भय नहीं मानता है । अब यशशक्ति रोगादिये बचने का उपाय रखता है, परन्तु इयरभाव चित्तमे निकाल देता है। वीर सिपाहीके समान संसारमें रहता है, आत्मसंयमी होकर निर्भय रहता है । श्री अमृतचंद्र आचार्य ने समयसार कलशमें सात भयोंके दूर रहने की बात सम्यग्दृष्टीके लिये कही है। उसका कुछ दिग्दर्शन यह है सम्यग्दृष्टय एव साहस मिदं कर्तुं क्षमन्ते परं । यद्वब्रेऽपि पतत्यमी भयचलत्रैलोक्यमुक्तावनि ॥ सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शङ्कां विहाय स्वयं । जानतः स्वमवध्यबोधवपुष बोधाच्च्यवन्ते न हि ॥ २२-७ ॥ भावार्थ-सम्यग्दृष्टी जीव ही ऐसा साहस करनेको समर्थ हैं कि जहां व जब ऐसा अवसर हो कि वज्रके समान आपत्ति भारही हों जिनको देखकर व जिनके भयसे तीन लोकके प्राणी भयसे भागकर मार्गको छोड दें तब भी वे अपनी पूर्ण स्वाभाविक निर्भयताके साथ रहते हैं । स्वयं शंका रहित होते हैं और अपने भापको ज्ञान शरीरी जानते हैं कि मेरे भात्माका कोई वध कर नहीं सका। ऐसा जानकर वे अपने ज्ञान स्वभावसे किंचित् भी पतन नहीं करते हैं। प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणा: किकास्यात्मनो । ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिचते जातचित् ॥ तस्यातो मरणं न किचन भवेत्तदीः कुतो ज्ञानिनो। निशाः सततं स्वयं स सहजं वानं सदा विन्दति ॥ २७-७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२८] दसरा भाग। __ भावार्थ-बाहरी इन्द्रिय बलादि प्राणों के नाशको मरण कहते हैं किंतु इस आत्माके निश्चय प्राण ज्ञान है । वह ज्ञान सदा भविनाशी है उसका कभी छेदन भेदन नहीं होसक्ता । इसलिये ज्ञानियोंको मरणका कुछ भी भय नहीं होता है-निशंक रहकर सदा ही अपने सहज स्वाभाविक ज्ञान स्वभावका अनुभव करते रहते हैं। पंचाध्यायीम भी कहा हैपरत्रात्मानुभूतेधै विना भीतिः कुतस्तनी । भीतिः पर्यायमूढानां नात्मतत्वैकचेतसाम् ॥ ४९५ ॥ भावार्थ-पर पदार्थोमे आत्मापनेकी बुद्धिके विना भय कैसे होसक्ता है ? जो शरीरमें आसक्त मूढ़ प्राणी है उनको भय होता है । केवल शुद्ध मात्माके अनुभव करनेवाले सम्यग्दृष्टियोंको भय नहीं होता है। ___ ध्यानकी सिद्धिके लिये जैसे निर्भयताकी जरूरत है वैसे ही अशुद्ध भावोंको-क्रोध, मान, माया, लोभको हटानेकी जरूरत है ऐसा ही बुद्ध सूत्रका भाव है । इन सब अशुद्ध भावोंको राग द्वेष मोहमें गर्भित करके श्री नेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्ती द्रव्यसंग्रह ग्रंथमें मा मुज्झह मा रज्जह मा दुस्सह इट्टणिहअत्थेसु । घिरमिच्छह जई चित्तं विचित्तमाणप्पसिद्धीए ॥ ४८॥ भावार्थ-हे भाई ! यदि तू नानाप्रकार ध्यानकी सिद्धिके लिये चित्तको स्थिर करना चाहता है तो इष्ट व अनिष्ट पदार्थों मोह मत कर, राग मत कर, द्वेष मत कर । समभावको प्राप्त हो । श्री देवसेन भाचार्यने तत्वसारमें कहा है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४ जैन बौद्ध समान। इंदियविसयविरामे मणस्स णिल्धरणं इवे जदया। तइया तं भविमप्यं ससलवे गप्पणो तं तु ॥ ६॥ समणे णिच्चलभूये पटे सव्वे वियप्पसंदोहे । थक्को सुदसहायो नवियप्पो णिचको णिचो ॥ ७ ॥ भावार्थ-पांचों इन्द्रियों के विषयोंकी इच्छा न रहनेपर जब मन विध्वंश होजाता है तब अपने ही स्वरूपमें अपना निर्विकल्प (निर्वाण रूप) स्वरूप झलकता है । जब मन निश्चल होजाता है और सर्व विकल्पों का समूह नष्ट होजाता है तब शुद्ध स्वभावमई निश्चल स्थिर अविनाशी निर्विकल्प तत्व (निर्वाण मार्ग या निर्वाण) झलक जाता है । और भी कहा है झाणहिमो हु जोई नइ णो सम्वेय णिययमप्पाणं । तो ण लहइ तं सुद्धं मागविहीणो जहा रयणं ॥ ४६॥ देहसुहे पडिबद्धो जेण य सोतेण लहइ ण सुद्धं । तंचं वियाररहिय णिच चिय झायमाणो हु ॥ ४७ ॥ भावार्य-ध्यानी योगी यदि अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव नहीं प्राप्त करे तो वह शुद्ध स्वभावको नहीं पहुंचेगा जैसे-भाग्यहीन रलको नहीं पा सक्ता । जो देहके सुखमें लीन है वह विचार रहित भविनाशी व शुद्ध तत्वका ध्यान करता हुमा भी नहीं पासता है श्री नागसेन मुनि तत्वानुसासनमें कहते हैंसोऽयं समरसीमावस्तदेकीकरणं स्मृतं । एतदेव समाधिः स्याल्लोकस्यफळप्रदः ॥ १३७ ॥ माध्यस्थ्यं समतोपेक्षा वैराग्यं साम्यमस्पृहः। वैतृष्ण्यं परमः शांतिरित्येकोऽर्थोऽभिधीयते ॥ १३९ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] दूसरा भाग। भावार्थ-जो कोई समरसी भाव है उसीको एकीकरण या ऐक्यभाव कहा है, यही समाधि है इससे इस लोकमें भी दिव्य. शक्तियां प्रगट होती हैं और परलोकमें भी उच्च अवस्था होती है । माध्यस्थभाव, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, निस्पृहभाव, तृष्णा रहितपना, परमभाव, शांति इन सबका एक ही अर्थ है । जैन सिद्धांतमें ध्यान सम्बंधी बहुत वर्णन है, ध्यानहीसे निर्वाणकी सिद्धि बताई है । द्रव्यसग्रहमें कहा है दुवि पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा । तह्मा पयत्तचित्ताजूयं ज्झाणे समन्भसह ॥ ४७ ॥ भावार्थ-निश्चय मोक्षमार्ग आत्मसमाधि व व्यवहार मोक्षमार्ग भहिंसादी व्रत ये दोनों ही मोक्षमार्ग साधुको आत्मध्यानमें मिल जाते हैं इसलिये प्रयत्नचित्त होकर तुम सब ध्यानका भलेप्रकार अभ्यास करो। (४) मज्झिमनिकाय-अनङ्गण सूत्र । आयुषमान् सारिपुत्र भिक्षुओंको कहते हैं-लोकमे चार प्रकारके पुद्गल या व्यक्ति हैं। (१) एक व्यक्ति अंगण (चित्तमल) सहित होता हुमा भी, मेरे भीतर अंगण है इसे ठीकसे वही जानता। (२) कोई व्यक्ति अंगण सहित होता हुआ मेरे मीतर अंगण हैं इसे ठीकसे जानता है । (३) कोई व्यक्ति अंगण रहित होता हुमा मेरे भीतर अंगण नहीं हैं इसे ठीकसे नहीं जानता है। (४) कोई व्यक्ति अंगण रहित होता हुमा मेरे भीतर अंगण नहीं हैं इसे ठीकसे जानता है। . . . . . . . . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद तत्वान। [:३११ इनमेसे अंगण सहित दोनों व्यक्तियोंमें पहला व्यक्तिहीन है, दुसरा व्यक्ति श्रेष्ठ है जो अंगण है इस बातको ठीकसे जानता है। इसी तरह अंगण रहित दोनों से पहला हीन है। दुसरा श्रेष्ठ है जो अंगण नहीं है इस बातको ठीकसे जानता है। इसका हेतु यह है कि जो व्यक्ति अपने भीतर अंगण है इसे ठीकसे नहीं जानता है। यह उस अंगणके नाशके लिये प्रयत्न, उद्योग व वीर्यारंभ न करेगा। वह राग, द्वेष, मोह मुक्त रह मलिन चित्त ही मृत्युको प्राप्त करेगा जैसे-कांसेकी थाली रज और मकसे लिप्स ही कसेरेके यहांसे घर लाई जावे उसको लानेवाला मालिक न उसका उपयोग करे न उसे साफ करे तथा कचरेमें डालदे तब वह कांसे की थाली कालांतरमें और भी अधिक मैली हो जायगी इसीतरह जो अंगण होते हुए उसे ठीकसे नहीं जानता है वह अधिक मलीनचित्त ही रहकर मरेगा। जो व्यक्ति अंगण सहित होनेपर ठीकसे जानता है कि मेरे भीतर मल है वह उस मलके नाशके लिये वीर्यारम्भ कर सकता है, वह राग, द्वेष, मोह रहित हो, निर्मल चित्त हो मरेगा । जैसे रज व मलसे लिप्त कांसेकी थाली लाई जावे, मालिक उसका उपयोग करे, साफ करे, उसे कचरेमें न डाले तब वह स्तु कालांतरमें अधिक परिशुद्ध होजायगी। जो व्यक्ति अंगण रहित होता हुमा भी उसे ठीकसे नहीं जानता है वह मनोज्ञ (सुंदर) निमित्तोंके मिलने नकी ओर मनको झुका देगा तब उसके चित्तमें राग चिपट जाय.. .--वह राग, द्वेष मोह सहित, मलीनचित्त हो मरेगा। जैसे बाजारसे कांसेकी थाली शुद्ध लाई जावे परन्तु उसक' मालिक न उसका उपयोग करे, : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Arranmmmmro inwww न उसे साफ रक्खे-कचरेमें डालदे तो यह थाली कालांतर मैली होजायगी। _जो व्यक्ति अंगण रहित होता हुआ ठीकसे जानता है वह मनोज्ञ निमित्तोंकी तरफ मनको नहीं झुकाएगा तब वह रागसे लिप्त न होगा। वह रागद्वेष मोहरहित होकर, अंगणरहित व निर्मळचित्त हो मरेगा जैसे-शुद्ध कांसे की थाली कसेरेके यहांसे लाई जावे। मालिक उसका उपयोग करें, साफ रक्खें उसे कचरेमें न डाले तब वह थाली कालांतरमें और भी अधिक परिशुद्ध और निर्मल होजायगी। तब भोग्गलापनने प्रश्न किया कि अंगण क्या वस्तु है ? तब सारिपुत्र कहते हैं-पाप, बुराई व इच्छाकी परतंत्रताका नाम अंगण है, उसके कुछ दृष्टांत नीचे प्रकार हैं (१) हो सकता है कि किसी भिक्षुके मनमें यह इच्छा उत्पन्न हो कि मैं अपराध करू तथा कोई भिक्षु इस बातको न जाने । कदाचित् कोई मिन उस मिक्षुकके बारेमें जान जावें कि हमने भापत्ति की है तब वह भिक्षु यह सोचे कि भिक्षुभोंने मेरे अपराधको जान लिया । और मनमें कुपित होवे, नाराज होवे, यही एक तरहका अंगण है। (२) हो सकता है कोई भिक्षु यह इच्छा करे कि मैं अपराध करूं लेकिन भिक्षु मुझे अकेले हीमें दोषी ठहरावें, संघमें नहीं; कदाचित् भिक्षुगण उसे संघके बीचमें दोषी ठहरावें, अकेले में नहीं । तब वह भिक्षु इस बातसे कुपित होजावे यह जो कोप है वही एक तर. हका अंगण है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन बौद्ध तत्वान। [३५ (३) होसकता है कोई भिक्षु यह इच्छा करे कि मैं अपराध करूं, मेरे बराबरका व्यक्ति मुझे दोषी ठहरावे दूसरा नहीं । कदाचित् दुसरेने दोष ठहराया. इस बातसे वह कुपित होजावे, यह कोप एक तरहका अंगण है। (४) होसकता है कोई भिक्षु यह इच्छा करे कि शास्ता (बुद्ध) मुझे ही पूछ पूछकर धर्मोपदेश करें दूसरे भिक्षुको नहीं। कदाचित शास्ता दूसरे भिक्षुको पुछकर धर्मोपदेश करे उसको नहीं, इस बातसे वह मिक्षु कुपित होजावे, यह कोप एक तरहका अंगण है। (५) होसकता है कि कोई भिक्षु यह इच्छा करे कि मैं ही माराम (आश्रम ) में आये भिक्षुओंको धर्मोपदेश करूं दूसरा भिक्षु नहीं। होसकता है कि अन्य ही भिक्षु धर्मोपदेश करे, ऐसा सोच. कर वह कुपित होजावे । यही को। एक तरह का अंगण है। (६) होसकता है किसी भिक्षुको यह इच्छा हो कि भिक्षु मेग ही सत्कार करें, मेरी ही पूजा करें, दूसरे की नहीं। होसकता है कि भिक्षु दूसरे भिक्षुकी सत्कार पूजा करे इससे वह कुपित होजावे यह . एक तरहका अंगण है। इत्यादि ऐसी ही बुराइयों और इच्छाकी परतंत्रताओंका नाम अंगण है । जिस किसी कि भिक्षुकी यह बुगइया नष्ट नहीं दिखाई पड़ती हैं. सुनाई देती हैं, चाहे वह बनवासी, एकांत कुटी निवासी, भिक्षान्नभोजी आदि हो उसका सत्कार व मान स. ब्रह्मचारी नहीं करते क्योंकि उसकी बुगइ नष्ट नहीं हुई हैं। जैसे कोई एक निर्मल कांसेकी थाली बाजारसे लावे, फिर उसका मालिक उसमें मुर्दे सांप, मुर्दे कुत्ते या मुर्दै मनुष्य (के मांस ) को भरकर , Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३.] दसरा मागे । दुसरी कांसेकी थालीसे ढककर बाजारमें रखदें उसे देखकर लोग कहे कि महो! यह चमकता हुआ क्या रक्खा है। फिर ऊपरकी थालीको उठाकर देखें । उसे देखते ही उनके मनमें घृणा, प्रतिकूलता, जुगुप्सा उत्पन्न होजावे, भूखेको भी खानेकी इच्छा न हो, पेटभरोंकी तो बात ही क्या । इसी तरह बुराइयोंसे भरे भिक्षुका सत्कार उत्तम पुरुष नहीं करते। परन्तु जिस किसी भिक्षुकी बुराइयां नष्ट होगई हैं उसका सत्कार सब्रह्मचारी करते हैं। जैसे एक निर्मल कांसेकी थाली बाजारसे लाई जावे उसका मालिक उसमें साफ किये हुए शालीके चाबलको अनेक प्रकारके सूप (दाल) और व्यं मन (साग भाजी) के साथ सजाकर दुसरी कांसे की थालीसे ढककर बाजारमें रखदें, उसे देखकर लोक कहे कि चमकता हुआ क्या है ? थाली उठाकर देखें तो देखते ही उनके मनमें प्रसन्नता, अनुकूलता और भजुगुप्सा उत्पन्न होजावे, पेटभरेकी भी खानेकी इच्छा हो जावे, भूखोंकी तो बात ही क्या है। इसी प्रकार जिसकी बुराइयां नष्ट होगई हैं उसका सत्पुरुष सत्कार करते हैं। नोट-इस सूत्रमें शुद्ध चित्त होकर धर्मसाधनकी महिमा बताई है तथा यह झलकाया है कि नो ज्ञानी है वह अपने दोषोंको मेट सक्ता है। जो अपने भावोंको पहचानता है कि मेरा भाव यह शुद्ध है वह अशुद्ध है वही अशुद्ध मावों के मिटानेका उद्योग करेगा। प्रयत्न करते करते ऐसा समय आयगा कि वह दोषमुक्त व वीतराग होजावे । जैन सिद्धांसमें भी व्रतीके लिये विषयकषाय व शल्य व गारव भादि दोषोंके मेटनेका उपदेश है। उसे पांच इन्द्रियों की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | १५ इच्छाका विजयी, क्रोध, मान, माया, लोभरहित व माया, मिथ्यात्व भोगोंकी इच्छारूप निदान शल्यसे रहित तथा मान बढ़ाई व पूजा मादिकी चाह से रहित होना चाहिये । श्री देवसेनाचार्य सत्यसारमें कहते हैं काहाळा हे सरिसो सुहदुक्खे तह य जीविए मरणे । बंधो मरयसमाणो ज्ञाणसमत्थो हु सो जोई ॥ ११ ॥ राया दिया विभाषा बहिरंतर उहविप्प मुत्तणं । एयग्गमणो झायहि णिरंजणं णिययमप्पाणं ॥ १८ ॥ भावार्थ जो कोई साधु लाभ व अलाभमें, सुख व दुःखमें, जीवन या मरणमें, बन्धु व मित्रमें समान बुद्धि रखता है वही ध्यान करनेको समर्थ होसक्ता है। रागादि विभावोंको व बाहरी व मनके भीतर के विकल्पोंको छोड़कर एकाग्र मन होकर अब आपको निरंजन रूप ध्यान कर मोक्ष पात्र ध्यानी साधु कैसे होते हैं । श्री कुलभद्राचार्य सारसमुच्चय में कहते हैं 1 संगादिरहिता बीरा रागादिमळवर्जिताः । शान्ता दान्तास्तपोभूषा मुक्तिकांक्षणतत्पराः ॥ १९६ ॥ मनोवाक्काययोगेषु प्रणिधानपरायणा: । वृताढ्या ध्यानसम्पन्नास्ते पात्रं करुणापराः ॥ १९७ ॥ अहो हि शमे येषां विग्रहं कर्मशत्रुभिः । विषयेषु निरासङ्गास्ते पात्रं यतितत्तमाः ॥ २०० ॥ यैर्ममत्वं सदा त्यक्तं स्वकायेऽपि मनीषिभिः । ते पात्रं संयतात्मानः सर्वसत्यहिते रताः ॥ २०२ ॥ भावार्थ- जो परिग्रह आदिसे रहित हैं, धीर हैं, राग, द्वेष, मोहके मलसे रहित हैं, शांतचित्त हैं, इन्द्रियों के दमन करनेवाले हैं, www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ] दूसरा भाग । तपसे शोभायमान हैं, मुक्तिकी भावना में तत्पर हैं, मन, वचन व कायको एकाग्र रखने में तत्पर हैं, सुचारित्रवान हैं, ध्यानसम्पन्न हैं व दयावान हैं वे ही पात्र हैं । जिनका शांतभाव पानेका हठ है, जो. कर्मशत्रुओंसे युद्ध करते हैं, पांचों इन्द्रियोंके विषयोंसे मलिप्त हैं वे ही यतिवर पात्र हैं । जिन महापुरुषोंने शरीरसे भी ममत्व त्याग दिया है तथा जो संयमी हैं व सर्व प्राणियोंके हितमें तत्पर हैं के ही पात्र हैं । इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि सम्यग्दृष्टी ही अपने भावोंकी शुद्धि रख सक्ता है । सम्यक्तीको शुद्ध भावोंकी पहचान है, वह मैलपने को भी जानता है । अतएव वही भावोंका मल हटाकर अपने भावोंको शुद्ध कर सक्ता है । (५) मज्झिमनिकाय - वस्त्र सूत्र | गौतम बुद्ध भिक्षुओंको उपदेश करते हैं- जैसे कोई मैला कुचैला वस्त्र हो उसे रङ्गरेजके पास ले जाकर जिस किसी रङ्गमें डाले, चाहे नीलमें, चाहे पीतमें, चाहे लालमें, चाहे मजीठके रंगमें, वह बद रज ही रहेगा, अशुद्ध वर्ण ही रहेगा । ऐसे ही चित्तके मलीन होने से दुर्गति अनिवार्य है । परन्तु जो उजळा साफ वस्त्र हो उसे रङ्गरेज के पास लेजाकर जिस किसी ही रङ्गमें डाले वह सुरंग निकलेगा, शुद्ध वर्ण निकलेगा, क्योंकि वस्त्र शुद्ध है । ऐसे ही चित्तके अन् उपक्लिष्ट अर्थात् निर्मक होने पर सुगति अनिवार्य है । भिक्षुभो ! चित्रके उपक्लेश या मल हैं (१) अभिदया या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [३७ विषयोंका लोभ, (२) व्यापाद या द्रोह, (३) क्रोध, (४) उपनाह या पाखंड, (५) भ्रक्ष (अमरख), (६) प्रदोष (निष्ठुरता), (७) ईर्षा, (८) मात्सर्य (परगुण द्वेष), (९) माया, (१०) शठता, (११) स्तम्भ (जड़ता), (१२) सारंभ (हिंसा), (१३) मान, (१४) अतिमान, (१५) मद, (१६) प्रमाद। जो भिक्षु इन मलोंको मल जानकर त्याग देता है वह बुद्ध में अत्यन्त श्रद्धासे मुक्त होता है । वह जानता है कि भगवान महत् सम्यक्-संबुद्ध (परम ज्ञानी), विद्या और भाचरणसे संपन, सुगत, लोकविद, पुरुषोंको दमन करने (सन्मार्गपर लाने) के लिये भनुपम चाबुक सवार, देव-मनुष्योंके शास्ता ( उपदेशक ) बुद्ध ( ज्ञानी) भगवान हैं। यह धर्ममें भत्यन्त शृद्धासे मुक्त होता है, वह समझता है कि भगवानका धर्म स्वाख्यात (सुन्दर रीतिसे कहा हुआ) है, साहष्टिक ( इसी शरीरमें फल देनेवाला ), मकालिक (सद्यः फलप्रद), एहिपश्यिक (यहीं दिखाई देनेवाला) औपनयिक (निर्वाणके पास लेजानेवाला ), विज्ञ ( पुरुषोंको) अपने अपने भीतर ही विदित होनेवाला है। वह सघमें अत्यन्त शृद्धासे मुक्त होता है, वह समझता है भगवानका श्रावक (शिष्य ) संघ सुमार्गारुढ़ है, ऋजुपतिपत्र (सरत मार्गपर आरूढ़) है, न्यायप्रतिपन्न है, सामीचि प्रतिपन्न है ( ठीक मार्गपर मारूद है) जब भिक्षुके मल त्यक्त, वमित, मोचित, नष्ट व विसर्जित होते हैं तब वह अर्थवेद (मर्थज्ञान), धर्मवेद (धर्मज्ञान) को पाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] दूसरा भाग ।. धर्मवेद सम्बंधी प्रमोदको पाता है, प्रमुदितको संतोष होता है. प्रीतिवानकी काया शांत होती है । प्रश्रब्धकाय सुख अनुभव करता है । सुखीका चित्त एकाग्र होता है । ऐसे शीळवाला, ऐसे धर्मवाला, ऐसी प्रज्ञावाला भिक्षु चाहे काली (भूसी आदि) चुनकर बने शालीके भातको अनेकरूप (दाल) व्यंजन (सागभाजी) के साथ खावे तौभी उसको अन्तराय ( विघ्न ) नहीं होगा | जैसे मैला कुचैला वस्त्र स्वच्छ जलको प्राप्त हो शुद्ध साफ होजाता है; उल्कामुल ( भट्टीकी घड़िया ) में पड़कर सोना शुद्ध साफ होजाता है । वह मैत्री युक्त चित्तसे सर्व दिशाओंको परिपूर्ण कर विहरता है । वह सबका विचार रखनेवाला, विपुल, अप्रमाण, वैररहित, द्रोहरहित, मैत्री युक्त चित्तसे सारे लोकको पूर्णकर विहार करता है । इसी तरह वह करुणायुक्त चितसे, मुदितायुक्त चितसे, उपेक्षायुक्त चिचसे युक्त हो सारे लोकको पूर्णकर विहार करता है। वह जानता है कि यह निकृष्ट है, यह उत्तम है, इन (लौकिक) संज्ञाओंसे ऊपर निस्सण (निकास) है। ऐसा जानते, ऐसा देखते हुए उसका चित्त काम (वासनारूपी) आस्रवसे मुक्त होजाता है, मव आस्रवसे, अविद्या भासवसे मुक्त होजाता है। मुक्त होजाने पर 'मुक्त होगया हूँ' यह ज्ञान होता है और जानता है-जन्म क्षीण होगया, ब्रह्मचर्यवास समाप्त होगया, करना था सो कर लिया, अन दुसरा यहां (कुछ करनेको) नहीं है। ऐसा भिक्षु स्नान करे विवाही स्नात (नहाया हुआ ) कहा जाता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनः बौद्ध तत्वज्ञान। उस समय सुंदरिक भारद्वाज ब्राह्मणने कहा, क्या आप गौतम वाहुका नदी चलेंगे। तब गौतमने कहा वाहुका नदी क्या करेगी। ब्रामणने कहा बाहुका नदी पवित्र है, बहुतसे लोग वाहुका नदीमें मपने किये पापोंको वहाते हैं । तब बुद्धने ब्राह्मणको कहा: बाहुका, अविकक, गया और सुन्दरिकामे । सरस्वती, मौर प्रयाग तथा बाहुमती नदीमें । कालेकोवाला मूढ़ चाहे कितना न्हाये, शुद्ध नहीं होगा। क्या करेगी सुन्दरिका, क्या प्रयाग और क्या बाहुबलिका नदी! पापकर्मी कतकिल्विष दुष्ट नरको नहीं शुद्ध कर सकते । शुद्ध के लिये सदा ही फल्गू है, शुद्धके लिये सदा ही उपोसन्य (व्रत) है। शुद्ध और शुचिकाके व्रत सदा ही पूरे होते रहते हैं। ब्राह्मण ! यहीं ठहर, सारे प्राणियों का क्षेमकर । यदि तू झूठ नहीं बोलता. यदि प्राण नहीं मारता। यदि विना दिया नहीं लेता, श्रद्धावान मत्सर रहित है। गया जाकर क्या करेगा, क्षुद्र जलाशय भी तेरे लिये गया है। नोट-जैसे इस सूत्रमें वस्त्रका दृष्टांत देकर चित्तकी मलीनताका निषेध किया है वैसे ही जैन सिद्धांतमें कहा है। श्री कुंदकुंदाचार्य समयसारमें कहते हैंवत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मलविमेलणाच्छण्णो। मिच्छत्तमलोच्छण्णं तह सम्मत्तं खुणादध्वं ॥ १६४ ॥ वत्थरस सेदभावो नह णादि मलविमेळणाच्छण्णो। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " दूसरा भाग । वत्थस्स सेदभावो जह णासेदि मढविमेळणाच्कृण्णो । तह दु कसायाच्णं चारितं होदि णादव्वं ॥ १६६ ॥ भावार्थ- जैसे वस्त्रका उजलापन मलके मैलसे ढका हुआ नाश होजाता है वैसे ही मिथ्यादर्शन के मैलसे ढका हुआ जीवका सम्यग्दर्शन गुण है ऐसा जानना चाहिये। जैसे वस्त्रका उजलापन मलके मैलसे ढका हुआ नाशको प्राप्त होजाता है वैसे अज्ञान के मैळसे ढका हुआ जीवका ज्ञान गुण जानना चाहिये । जैसे वस्त्रका उजलापन मलके मैकसे ढका हुआ नाश होजाता है वैसे कषायके मलसे ढका हुआ जीवका चारित्र गुण जानना चाहिये । जैसे बौद्ध सूत्रमें चित्तके मळ सोलह गिनाए हैं वैसे जैन सिद्धांत में चित्तको मलीन करनेवाले १६ कषाय व नौ नोकषाम ऐसे २५ गिनाए हैं । देखो तत्वार्थसूत्र उमास्वामी कृत - अध्याय ८ सूत्र ९ । ४ - अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ-ऐसे कषाय जो पत्थर की लकी के समान बहुत काल पीछे हटें। यह सम्यग्दर्शनको रोकती है। ४- अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ - ऐसी कषाय जो हलकी रेखाके समान हो, कुछ काल पीछे मिटे । यह गृहस्थ के व्रत नहीं होने देती है । ४ - प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ- ऐसी कषाय जो वालुके भीतर बनाई लकीरके समान शीघ्र मिटे । यह साधुके चारित्रको रोकती है । ५- संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ-ऐसी कषाय जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जन बौद्ध तत्वज्ञान । [१ पानीमें लकीर करनेके समान तुर्त मिट जावे । यह पूर्ण वीतरागताको रोकती है। __९-नोकषाय या निर्मल कषाय जो १६ कषायोंके साथ साथ काम करती है-१-हास्य, २ शोक, ३ रति, ४ मरति, ५ भय, ६ जुगुप्सा, ७ स्त्रीवेद, ८ पुरुषवेद, ९ नपुंसकवेद । उसी तत्वार्थसूत्रम कहा है अध्याय ७ सूत्र १८ में । निःशल्यो व्रती-व्रतधारी साधु या श्रावकको शल्य रहित होना चाहिये । शल्य कांटेके समान चुभनेवाले गुप्तभावको कहते हैं । वे तीन हैं (१) मायाशल्य-कपटके साथ व्रत पालना, शुद्ध भावसे नहीं। (२) मिथ्याशल्प-श्रद्धाके विना पालना, या मिथ्या श्रद्धाके साथ पालना। (३) निदान शल्य-भोगोंकी आगामी प्राप्तिकी तृष्णासे मुक्त हो पालना। जैसे इस बुद्धसूत्र में श्रद्धावानको शास्ता, धर्म और संघमें श्रद्धाको दृढ़ किया है वैसे जैन सिद्धान्तमें आप्त मागम, गुरुमें श्रद्धाको दृढ़ किया है। भागमसे ही धर्मका बोध लेना चाहिये । श्री समंतभद्राचार्य रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहते हैं श्रद्धानं परमार्थानामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमुढापोढमष्टानं सम्पग्दर्शनमस्मयम् ॥ ४ ॥ भावार्थ-सम्यग्दर्शन या सच्चा विश्वास यह है कि परमार्थ या सच्चे भात्मा (शास्तादेव), आगम या धर्म, तथा तपस्वी गुरूमें पक्की श्रद्धा होनी चाहिये, जो तीन मूढ़ता व आठ मदसे शून्य हो तथा भाठ अंग सहित हो ।' Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ ] दूसरा भाग । I आप्त उसे कहते हैं जो तीन गुण सहित हो । जो सर्वज्ञ, वीतराग तथा हितोपदेशी हो। इन्हींको अईत, सयोग केवली जिन, सकल परमात्मा, जिनेन्द्र आदि कहते हैं । आगम प्राचीन वह है जो आप्तका निर्दोष बचन है । गुरु वह है जो आरम्भ व परिग्रहका त्यागी हो, पांचों इन्द्रियोंकी आशा से रहित हो, आत्मज्ञान व आत्मध्यानमें लीन हो व तपस्वी हो । तीन मूढता - मूर्खता से कुदेवको देव मानना देव मूढता है । मूर्खता से कुगुरुको गुरु मानना पाखण्ड मूढता है । मूर्खतासे लौकिक रूढि या वहमको मानना लोक मृढता है । जैसे नदीमें स्नान से धर्म होगा। | आठ पद - १ जाति, २ कुल, ३रूप, ४ बल, ५ धन, ६ अधिकार, ७ विद्या, ८ तप इनका घमंड करना । आठ अंग-१ निःशंकित ( शंका रहित होना व निर्मल रहना ) । २ निःकांक्षित-भोगोंकी तरफ श्रद्धाका न होना । ३ निर्विचिकित्सित- किसीके साथ घृणाभाव नहीं रखना । ४ अमूढदृष्टि - मूढता की तरफ श्रद्धा नहीं रखना । ५ उपगूहन - धर्मात्मा के दोष प्रगट न करना । ६ स्थितिकरण-अपनेको तथा दूसरोंको धर्म में मजबूत करना । ७ वात्सल्य - धर्मात्माओंसे प्रेम रखना, ८ प्रभावना - धर्मकी उन्नति करना व महिमा फैलाना । जैसे बुद्ध सूत्र में धर्म के साथ स्वाख्यात शब्द है वैसे जैन सूत्रमें है । देखो तत्वार्मसूत्र उमास्वामी अध्याय ९ सूत्र ७ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन बौद्ध तत्वज्ञान। __ [४३ धर्म स्वाख्या तत्व । इस बुद्ध सूत्रमें कहा है कि धर्म वह है जो इसी शरीरमें अनुभव हो व जो भीतर विदित हो व निर्वाणकी तरफ ले जानेवाला हो तब इससे सिद्ध है कि धर्म कोई वस्तु है जो अनुभवगम्य है, वह शुद्ध आत्माके सिवाय दुसरी वस्तु नहीं होसक्ती है। शुद्धात्मा ही निर्वाण स्वरूप है । शुद्धात्माका अनुभव करना निर्वाण का मार्ग है। शुद्धात्मारूप शाश्वत रहना निर्वाण है। यदि निर्वाणको अभाव माना जावे तो कोई अनुभव योग्य धर्म नहीं रह जाता है जो निर्वाणको लेजा सके। आगे चलके कहा है कि जो मलोंसे मुक्त होजाता है वह अर्थवेद, धर्मवेद, प्रमोद, व एकाग्रताको पाता है। यहां जो अर्थज्ञान, धर्मज्ञानके शब्द हैं वे बताते हैं कि परमार्थ रूप निर्वाणका ज्ञान क इसके मार्ग रूप धर्मका ज्ञान, इस धर्मके अनुभवसे आनन्द होता है। मानन्दसे ही एकाग्र ध्यान होता है। श्री देवसेनाचार्य तत्वसार जैन ग्रंथमें कहते हैंसयलवियप्पे थके उपजह कोवि सासमो भावो । जो अपणो सहायो मोक्खस्स य कारणं सो हु ॥६१ ॥ भावाथ-सर्व मन वचन कायके विकल्पोंके रुक जानेपर कोई ऐसा शाश्वत् भाव प्रगट होता है जो अपना ही स्वभाव है । वही मोक्षका कारण है। श्री पूज्यपादस्वामी इष्टोपदेशमें कहते हैं मात्मानुष्ठाननिष्ठस्य व्यवहारमहिःस्थितेः । जायते परमानंदः कश्चिद्योगेन योगिनः ॥ ४७ ॥ भावार्थ-जो मात्माके स्वरूपमें लीन होजाता है ऐसे योगीके योगके बक्से व्यवहारसे दूर रहते हुए कोई भपूर्व मानन्द्र ब्रह्मान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] दूसरा भाग। होजाता है। जब तक किसी शाश्वत् मात्मा पदार्थकी सत्ता न स्वीकार की जायगी तबतक न तो समाधि होसक्ती है न सुखका अनुभव होसक्ता है, न धर्मवेद व अर्थवेद होसक्ता है। ऊपर बुद्ध सूत्र में साधकके भीतर मैत्री, प्रमोद, करुणा व माध्यस्थ ( उपेक्षा ) इन चार भावोंकी महिमा बताई है यही बात जैन सिद्धान्तमें तत्वार्थसूत्रमें कही है मंत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्धानि च सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमाना'विनयेषु ॥ ११-७॥ भावार्थ-व्रती साधकको उचित है कि वह सर्व प्राणी मात्रपर मैत्रीभाव रक्खे, सबका भला विचारे, गुणोंसे जो अधिक हो उनपर 'प्रमोद या हर्षभाव रक्खे, उनको जानकर प्रसन्न हो, दुःखी प्राणियोंपर दयाभाव रक्खे, उनके दुःखोंको मेटनेकी चेष्टा बन सके तो करे, जिनसे सम्मति नहीं मिलती है उन सबपर माध्यस्थ भाव रक्खे, न राग करे न द्वेष करे। फिर इस बुद्ध सूत्रमें कहा है कि यह हीन है यह उत्तम है उन नामोंके ख्यालसे जो परे जायगा उनका ही निकास होगा । यही बात जैन सिद्धांतमें कही है कि जो समभाव रखेगा, किसीको बुरा व किसीको अच्छा मानना त्यागेगा वही मवसागरसे पार होगा। सारसमुच्चयों श्री कुलभद्राचार्य कहते हैं समता सर्वभूतेषु यः करोति सुमानसः । ममत्वभावनिर्मुक्तो यात्यसौ पदमव्ययम् ॥ २१३ ॥ भावार्थ-जो कोई सत्पुरुष सर्व प्राणी मात्रपर समभाव रखता है और ममताभाव नहीं रखता है वही अविनाशी निर्वाण पदको पलिता ~ : .. .. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। इस बुद्ध सूत्रमें अंतमें यह बात बताई है कि जलके स्नानसे पवित्र नहीं होता है। जिसका आत्मा हिंसादि पापोंसे रहित है वही पवित्र है। ऐसा ही जैन सिद्धांतमें कहा है । सार समुच्चयमें कहा हैशीव्रतजले स्नातुं शुद्धिरस्य शरीरिणः । न तु स्नातस्य तीर्थेषु सर्वेष्वपि महीतले ॥ ३१२॥ रागादिवर्जितं स्नानं ये कुर्वन्ति दयापराः । तेषां निर्मळता योगेन च स्नातस्य वारिणा ॥ ३१३ ॥ मात्मानं स्नापयेन्नित्यं ज्ञाननारेण चारुणा । येन निर्मलतां याति जीवो जन्मान्तरेष्वपि ॥ ३१४॥ सत्येन शुद्धयते पाणी मनो ज्ञानेन शुद्धयति । गुरुशुश्रूषया कायः शुद्धिरेष सनातनः ।। ३१७ ॥ भावार्थ-इस शरीरधारी प्राणीकी शुद्धि शीलवत रूपी जकमें स्नान करनेसे होगी। यदि पृथ्वीमरकी सर्व नदियों में स्नान करले तो मी शुद्धि न होगी। जो दयावान रागद्वेषादिको दूर करनेवाले समभावरूपी जलमें स्नान करते हैं, उन हीके भीतर ध्यानमें निर्मलता होती है । जलमें स्नान करनेसे शुद्धि नहीं होती है। पवित्र ज्ञानरूपी जलसे आत्माको सदा स्नान कराना चाहिये । इस स्नानसे यह जीव परलोकमें भी पवित्र होजाता है । सत्य वचनसे वचनकी शुद्धि है, मनकी शुद्धि ज्ञानसे है, शरीर गुरुकी सेवासे शुद्ध होता. है, सनातनसे यही शुद्धि है। हिताकांक्षीको यह तत्वोपदेश ग्रहण करने योग्य है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा मार्ग | (६) मज्झिमनिकाय सल्लेख सूत्र | भिक्षु महाचुन्द गौतमबुद्ध से प्रश्न करता है जो यह आत्मबाद सम्बन्धी या लोकवाद सम्बन्धी अनेक प्रकार की दृष्टियां (दर्शनगत) दुनिया में उत्पन्न होती हैं उनका प्रहाण या त्याग कैसे होता है ? गौतम समझाते हैं जो ये दृष्टियां उत्पन्न होती हैं, जहां ये उत्पन्न होती हैं, जहां यह आश्रय ग्रहण करती हैं, जहां यह व्यवहृत होती हैं वहां यह मेरा नहीं " न यह मैं हूं " " न मेरा यह आत्मा है " इसे इसप्रकार यथार्थ रीतिसे ठीकसे जानकर देखनेवर इन दृष्टियोंका प्रहाण या त्याग होता है । 64 46 होसकता है यदि कोई भिक्षु कार्मोसे विरहित होकर प्रथम ध्यानको या द्वितीय ध्यानको या तृतीय ध्यानको या चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरे या कोई भिक्षु रूप संज्ञा (रूपके विचार ) को सर्वथा छोड़ने से, प्रतिघ ( प्रतिहिंसा ) की संज्ञाओंके सर्वथा भस्त हो जाने से वानापने की संज्ञाओंको मनमें न करनेसे 'आकाश अनन्त' है इस आकाश आनन्द्र आपतनको प्राप्त हो विहरे या इस आपतनको अतिक्रमण करके 'विज्ञान अनन्त है - इस विज्ञान आनन्द्र पतनको प्राप्त हो विहरे या इस आपतनको सर्वथा अति'क्रमण करके 'कुछ नहीं' इस आकिंचन्य आपतनको प्राप्त हो विहरे या इस आपतनको सर्वथा अतिक्रमण करके नैवसंज्ञा-नासंज्ञा आपतन ( जहां न संज्ञा ही हो न असंज्ञा ही हो ) को प्राप्त हो विहरे । उस भिक्षुके मनमें ऐसा हो कि सल्लेख ( तप ) के साथ विहर ·8] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन यदि तीन । रहा हूं। लेकिन मार्य विनयमें इन्हें सल्लेख नहीं कहा जाता। मार्य विनयमें इन्हें इष्टधर्म-सुखविहार ( इसी जन्ममें सुखपूर्वक विहार) कहते हैं या शान्तविहार कहते हैं। . किन्तु सल्लेख तप इस तरह करना चाहिये-(१) हम अहिंसक होंगे, (२) प्राणातिपातसे विरत होंगे, (३) भदत्त ग्रहण न करेंगे, (४) ब्रह्मचारी रहेंगे, (५) मृषावादी न होंगे, (६) पिशुनभाषी (चुगलखोर) न होंगे, (७) परुष (कठोर) भाषी न होंगे, (८) संप्रलापी (बकवादी) न होंगे, (९) अमिध्यालु (लोभी) न होंगे, (१०) व्यापन्न ( हिंसक) चित्त न होंगे, (११) सम्यकदृष्टि होंगे, (१२) सम्यक् संसधारी होंगे, (१३) सम्यकभाषी होंगे, (१४) सम्यक काय कर्म कर्ता होंगे, (१५) सम्यक् भाजीविका करनेवाले होंगे, (१६) सम्यक् व्यायामी होंगे, (१७) सम्यक् स्मृतिधारी होंगे, (१८) सम्यक् समाधिधारी होंगे, (१९) सम्यक्ज्ञानी होंगे, (२०) सम्यक् विमुक्ति भाव सहित होंगे, (२१) स्यानगृद्ध (शरीर व मनके मालस्य) रहित होंगे, (२२) उद्धत न होंगे, (२३) संशयवान होंगे, (२४) क्रोधी न होंगे, (२५) उपनाही (पाखंडी) न होंगे, (२६) मक्षी (कीनावाले) न होंगे, (२७) प्रदःशी (निष्ठुर) न होंगे, (२८) ईर्षारहित होंगे, (२९) मत्सरवान न होंगे, ३०) शठ न होंगे, (३१) मायावी न होंगे, (३२) स्तब्ध (जड़) न होंगे, (३३) भभिमानी न होंगे, (३४) सुवचनभाषी होंगे, (३५) कल्याण मित्र (भलोंको मित्र बनानेवाले) होंगे, (३६) अप्रमत्त रहेंगे, (३७. श्रद्धालु रहेंगे, (३८) निर्लज्ज .. न होंगे, (३९) मपत्रदी (उचितमय को माननेवाले) होंगे, (१०) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ] दूसरा मांग। बहुश्रुत होंगे, (४१) उद्योगी होंगे, (४२ ) उपस्थित स्मृति होंगे, (४३) प्रज्ञा सम्पन्न होंगे, (४४) सादृष्टि परामर्शी ( ऐहिक लाभ सोचने वाले), माघानग्रही ( हठी), दुष्प्रतिनिसर्गी (कठिनाईसे त्याग करनेवाले) न होंगे । अच्छे धर्मोके विषयमें विचारके उत्पन्न होने को भी मैं हितकर कहता हूं । काया और वचनसे उनके अनुष्ठान के बारेमें तो कहना ही क्या है, ऊपर कहे हुए (४४) विचारोंको उत्पन्न करना चाहिये । जैसे कोई विषम (कठिन) मार्ग है और उसके परिक्रमण (त्याग) के लिये दूसरा सममार्ग हो या विषम तीर्थ या घाट हो व उसके परिक्रमणके लिये समतीर्थ हो वैसे ही हिंसक पुरुष पुद्गल (व्यक्ति) को अहिंसा ग्रहण करने योग्य है, इसी तरह ऊपर लिखित ४४ बातें उनके विरोधी बातोंको त्यागकर ग्रहण योग्य हैं। जैसे कोई भी अकुशल धर्म (बुरे काम) हैं वे सभी अघोभाव (अधोगति) को पहुंचानेवाले हैं। जो कोई भी कुशल धर्म (अच्छे काम) हैं वे सभी उपरिभाव (उन्नतिकी तरफ) को पहुंचानेवाले हैं वैसे ही हिंसक पुरुष - पुद्गल को हिंसा ऊपर पहुंचानेवाली होती है । इसीतरह इन ४४ बातोंको जानना चाहिये । जो स्वयं गिरा हुआ है वह दूसरे गिरे हुएको उठाएगा यह संभव नहीं है किंतु जो आप गिरा हुआ नहीं है वही दूसरे गिरे हुएको उठाएगा यह संभव है । जो स्वयं अदान्त (मन के संयम से रहित) है; अविनीत, अपरि निर्वृत ( निर्वाणको न प्राप्त ) है वह दुसरेको दान्त, विनीत व परिनिर्वृत्त करेगा यह संभव नहीं । किंतु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४९ जैन बौदासत्वचा जो स्वयं दान्त, विनीत, परिनिवृत्त है वह दुसरेको दान्त, विनीत, परिनिवृत्त करेगा यह संभव है। ऐसे ही हिंसक पुरुषके लिये अहिंसा परिनिर्वाण के लिये होती है। इसी तरह कार कही ४० बातोंको जानना चाहिये । यह मैंने सल्लेख पर्याय या चिंतुष्मद पर्याय या परिक्रमण पर्याय या उपरिभाव पर्याय या परिनिर्वाण पर्याय उरदेशा है । श्रावको (शियों) के हितैषी, अनुकम्पक, शास्ताको अनुकम्ग करके जो करना चाहिये वह तुम्हारे लिये मैंने कर दिया। ये वृक्षमूल हैं, ये सूने घ! हैं, ध्यानरत होओ, प्रमाद मत करो, पीछे अफसोस करनेवाले मत बनना । यह तुम्हारे लिये हमारा अनुशासन है । नोट-सल्ले व सूत्रका यह भभिनाय पगट होता है कि अपने दोषों को हटाकरके गुणों को प्राप्त करना । सम्यक् प्रकार लेखना या कृश करना सल्लेखना है। अर्थात् दोषों को दूर करना है। ऊपर लिखित ४० दोष वास्तवमें निर्माण के लिये बाधक हैं। इनहीके द्वारा संसारका भ्रमण होता है ।। समयसार ग्रंथमें जैनाचार्य कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैंसामण्णपच्चय। खलु चउरो भण्ग ते वचत्त रो। मिच्छत्तं भविरमण कसाय जोमा य बोद्धश्वः ॥ ११६॥ भावार्थ-कर्मबन्ध के कर्ता सामान्य प्रत्यय या आस्वभाव चार कहे गए हैं। मिथ्यादर्शन, भविरति, कषाय और योग । भापको आपरूप न विश्वास करके और रूप मानना तथा जो अपना नहीं है उसको अपना मानना मिथ्यादर्शन है। आप वह आत्मा है जो निर्वाण स्वरूप है, अनुभवगम्य है । वचनोंसे इतना ही कहा जा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] दुसरा माग।... सका है कि वह जानने देखनेवाला, भमूर्तीक, अविनाशी, मखंड, परम शांत व परमानंदमई एक अपूर्व पदार्थ है। उसे ही अपना स्वरूप मानना सम्यग्दर्शन है । मिथ्यादर्शनके कारण अहंकार और ममकार दो प्रकारके मिथ्याभाव हुआ करते हैं। तत्वानुशासनमें नागसेन मुनि कहते हैंये कर्मकृता भावाः परमार्थनयेन चात्मनो भिन्नाः । तत्रात्माभिनिवेशोऽकारोऽहं यथा नृपतिः ॥ १५ ॥ शश्वदनात्मीयेषु स्वतनुप्रमुखेषु कर्म जनितेषु । मात्मीयाभिनिवेशो ममकारो मम यथा देहः ॥ १४ ॥ भावार्थ-जितने भी भाव या अवस्थाएं कौके उदयसे होती हैं वे सब परमार्थदृष्टिसे आत्माके असली स्वरूपसे भिन्न हैं। उनमें अपनेपनेका मिथ्या अभिप्राय सो अहंकार है । जैसे मैं राजा हूं। जो सदा ही अपनेसे भिन्न हैं जसे शरीर, धन, कुटुम्ब आदि । जिनका संयोग कर्मके उदयसे हुआ है उनमें अपना सम्बन्ध जोड़ना सो ममकार है, जैसे यह देह मेरा है । अविरति-हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील परिग्रहसे विरक्त न होना अविरति है। श्री पुरुषार्थसिद्धिउपाय ग्रन्थमें श्री अमृतचंद्राचार्य कहते हैंयत्खलु कषाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् । ध्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥ ४३ ॥ अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिर्हिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥ भावार्य-जो क्रोध, मान, माया, या लोमके वशीभूत हो मन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्त्वज्ञान। वचन कायके द्वारा भाव प्राण और द्रव्य प्राणोंको कष्ट पहुंचाया जाय या घात किया जाम सो हिंसा है। ज्ञानदर्शन सुख शांति मादि भात्माके भाव प्राण हैं । इनका नाश भावहिंसा है । इंद्रिय, बल, आयु, श्वासोश्वासका नाश द्रव्यहिंसा है। पांच इन्द्रिय, तीन बल-मन, वचन, काय होते हैं । पृथ्वी, जल, क्षमि, वायु, वनस्पति, एकेंद्रिय प्राणियोंके चार प्रकार होते हैं। स्पर्शनइन्द्रिय, शरीरबल, भायु, श्वासोश्वास, द्वेन्द्रिय प्राणी लट, शंख भादिके छः प्राण होते हैं। ऊपरके चारमें रसनाइन्द्रिय व वचनबल बढ़ जायगा । तेन्द्रिय प्राणी चीटी, खटमल आदिके सात प्राण होते हैं। नाक बढ़ जायगी। चौन्द्रिय प्राणी मक्खी, भौंरा आदिके आठ प्राण होते हैं, आंख बढ़ जायगी, पंचेंद्रिय मन रहितके नौ प्राण होते हैं। कान बढ़ जायगे। पंचेंद्रिय मनसहितके दश होते हैं । मनबल बढ़ जायगा। __ प्रायः सर्व ही चौपाए गाय, भैंस, हिरण, कुत्ता, बिल्ली आदि सर्व ही पक्षी कबुतर, तोता, मोर आदि, मछलियां, कछुवा मादि, तथा सर्व ही मनुष्य, देव व नारकी प्राणियोंके दश प्राण होते हैं। जितने अधिक व जितने मूल्यवान प्राणीका घात होगा उतना ही अधिक हिंसाका पाप होगा। इस द्रव्य हिंसाका मूल कारण भावहिंसा है। भावहिंसाको रोक लेनेसे अहिंसावत यथार्थ होजाता है। जैसा कहा है-रागद्वेषादि भावोंका न प्रगट होना ही अहिंसा है । तथा उनका प्रगट होना ही हिंसा है यह जैनागमका संक्षेप . . कथन है। निर्वाण साधकके भावहिंसा नहीं होनी चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। सत्यका स्वरूपयदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदनृतमपि विज्ञेयं तद्मेदाः सन्ति चत्वारः ॥९१॥ भावार्थ-जो क्रोधादि कषाय सहित मन, वचन व कायके द्वारा प्रशस्त या कष्टदायक वचन कहना सो झूठ है । उसके चार भेद हैं स्वक्षेत्रकाळभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिद्यते वस्तु । नत्प्रथममसत्यं स्यानास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥ ९२ ।। भावार्थ-जो वस्तु अपने क्षेत्र, काल, या भावसे है तो भी उसको कहा जाय कि नहीं है सो. पहला असत्य है । जैसे देवदत्त होनेपर भी कहना कि देवदत्त नहीं है। असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः । उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन्यथासित घटः ॥ ९३ ॥ भावार्थ-पर क्षेत्र, काल, भावस वस्तु नहीं है तो भी कहना कि है, यह दूसरा झूठ है । जसे घड़ा न होनेपर भी कहना यहां घड़ा है। वस्तु सदपि स्वरूपात्पारूपेणाभिधीयते यस्मिन् । अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गोरिति यथाश्वः ॥९४ ॥ भावार्थ-वस्तु जिस स्वरूपसे हो वैसा न कहकर पर स्वरूपसे कहना यह तीसरा झूठ है । जैसे घोड़ा होनेपर कहना कि गाय है। गर्हितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन धामतमिदमनृतं तुरीयं तु ॥ ९५ ॥ भावार्थ-चौथा झूठ सामान्य से तीन तरहका बचन है जो बचन गर्हित हो सावध हो व अप्रिय हो । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। पैशून्यहासगर्भ कर्कशमसमञ्जसं प्रलपितं च । अन्यदपि यदुत्सूत्र तत्सर्व गहितं गदितम् ।। ९६ ॥ भावार्थ-जो वचन चुगलीरूप हो, हास्यरूप हो, कर्कश हो, नुक्ति सहित न हो, बकवादरूप हो या शास्त्र विरुद्ध कोई भी वचन हो उसे गर्हित कहा गया है। छेदनभेदनमारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि । तत्सावधे यस्मात्प्राणिवधायाः प्रवर्तन्ते ॥ ९७ ॥ भावार्थ-जो वचन छेदन, भेदन, मारन, खींचनेकी तरफ या व्यापारकी तरफ या चोरी आदिकी तरफ प्रेरणा करनेवाले हों वे सब सावद्य वचन हैं, क्योंकि इनसे प्राणियोंको वध मादि कष्ट पहुंचता है। मरतिकर भीतिकरं खेदकर वैरशोककलहकरम् । यदपरमपि तापकरं पास्य तत्सर्वमप्रिय ज्ञेयम् ॥ ९८॥ भावार्थ-जो वचन भरति, भय, खेद, वैर, शोक, कलह पैषा करे व ऐसे कोई भी वचन जो मनमें ताप या दुःख उत्पन्न करे वह सर्व अप्रिय वचन जानना चाहिये । मवितीणस्य ग्रहणं परिग्रहस्य प्रमत्तयोगाद्यत् । तत्प्रत्येय स्तेयं सैव च हिंसा वधस्य हेतुत्वात् ॥ १०२ ।। भावार्थ-कषाय सहित मन, वचन, कायके द्वारा जो विना दी हुई वस्तुका ले लेना सो चोरी जानना चाहिये, यही हिंसा है। क्योंकि इससे प्राणोंको कष्ट पहुंचाना है । यद्वेदरागयोगान्मैथुनमभिधीयते तदब्रह्म । अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ॥ १७ ॥ भावार्थ-जो कामभावके राग सहित मन, वचन, कायके द्वारा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४) दूसरा भाग। 'मैथुन कर्म या स्पर्श कर्म किया जाय सो अब्रह्म या कुशील है। यहां भी भाव व द्रव्य प्राणोंकी हिंसा हुमा करती है । या मुछा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः । मोहोदयादुदीर्णो मुर्छा तु ममत्वपरिणामः ।। १११॥ भावार्थ-धनादि परपदार्थोमें मुर्छा करना सो परिग्रह है इसमें मोहके तीव्र उदयसे ममताभाव पाया जाता है । ममता पैदा करनेके लिये निमित्त होनेसे धनादि परिग्रहका त्याग व्रतीको करना योग्य है। कषायोंके २५ भेद-वस्त्र सूत्रमें बताये जाचुके हैं ऊपर लिखित मिथ्यात्व, मविरति, कषायके वे सब दोष भागये हैं जिनका मन, वचन, कायसे सन्तोष या त्याग करना चाहिये । इसी तरह सूत्रमें प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ ध्यानके पीछे चार ध्यान और कहे हैं-(१) आकासानन्त्यायतन अर्थात् अनंत भाकाश है, इस भावमें रमजाना, (२) विज्ञानानन्त्यायतन अर्थात् विज्ञान अनन्त है इसमें रम जाना। यहां विज्ञानसे अभिप्राय ज्ञान शक्तिका लेना अधिक रुचता है । ज्ञान अनन्त शक्तिको रखता है, ऐसा ध्यान करना । यदि यहां विज्ञानका भाव रूप, वेदना, संज्ञा व संस्कारसे उत्पन्न विज्ञानको लिया जावे तो वह समझमें नहीं आता क्योकि यह इन्द्रियजन्य रूपादिसे होनेवाला ज्ञान नाशवंत है, शांत है, अनन्त नहीं होसक्ता, अनन्त तो वही होगा जो स्वाभाविक ज्ञान है। तीसरे आकिंचन्य भायतनको कहा है, इसका भी अभिप्राय यही झलकता है कि इस जगतमें कोई भाव मेरा नहीं, है मैं तो एक केवल स्वानुभवगम्य पदार्थ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । - चौथा नैवसंज्ञाना संज्ञा आयतनको कहा है। उसका भाव यह है कि किसी वस्तुका नाम है या नाम नहीं है इस विकल्पको हटाकर स्वानुभवगम्य निर्वाणपर लक्ष्य लेजाओ। ये सब सम्यक् समाधिके प्रकार हैं। अष्टांग बौद्धमार्ग सम्पक्समाधिको सबसे उत्तम कहा है। इसी तरह जैन सिद्धांत मनसे विकल्प हटानेको शून्यरूप आकाशका, ज्ञानगुणका, मार्किचन्य भावका व नामादिकी कल्पना रहितका ध्यान कहा गया है । तत्वानुशासनमें कहा हैतदेवानुभवश्वायमेकप्रयं परमृच्छति । तथात्माधीनमानंदमेति वाचामगोचरं ॥ १७० ॥ यथा निर्वातदेशस्य: प्रदीपो न प्रकंपते । तथा स्वरूपनिष्ठोऽयं योगी नकाप्रयमुज्झति ।। १७१॥ . तदा च परमेकाप्रयाबहिरर्थेषु सरस्वपि । अन्यन्न किंचनाभाति स्वमेवात्मनि पश्यतः ।। १७२ ।। भावाथ-आपको आपसे अनुभव करते हुए परम एकाग्र भाव होजाता है । तब वचन अगोचर स्वाधीन अनादि प्राप्त होता है। जैसे हवाके झोकेसे रहित दीपक कांपता नहीं है वैसे ही स्वरूपमें ठहरा हुमा योगी एकाग्र भावको नहीं छोड़ता है। तब परम एकाग्र होनेसे व अपने भीतर भापको ही देखनेसे बाहरी पदाथोके मौजूद रहते हुए भी उसे कुछ भी नहीं झलकता है। एक मात्मा ही निर्वाण स्वरूप अनुभवमें माता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) मज्झिमनिकाय सम्यग्दृष्टि सूत्र । गौतमबुद्ध के शिष्य सारिपुत्रने भिक्षुओंको कहा-सम्यक्दृष्टि कही जाती है । कैसे मार्य श्रावक सम्यग्दृष्टि ( ठीक सिद्धांतवाला) होता है। उसकी दृष्टि सीधी, वह धर्ममें अत्यन्त श्रद्धावान, इस सधर्मको प्राप्त होता है तब भिक्षुओंने कहा, सारिपुत्र ही इसका मर्थ कहें। सारिपुत्र कहने लगे- जब आर्य श्रावक अकुशल (बुराई) को जानता है, भकुशल मूल को जानता है, कुशल (मलाई) को जानता है, कुशल मूलको जानता है, तब वह सम्यक्दृष्टि होता है । इन चारों का भेद यह है । (१) प्राणातिपात (हिंसा) (२) अदत्तादान (चोरी), (३) काममें दुराचार, (४) मृषावाद (झूठ), (५) पिशुनवाद (चुगली), (६) परुष वचन (कटोर वचन), (७) संपलाप (बकवाद), (८) अभिव्या (लाम), (९) व्यापाद (प्रतिहिंसा), (१०) मिथ्यादृष्टि (झूठी धारणा) अकुशल हैं। ___(१) लोभ, (२) द्वेष, (३) मोह, अकुशल मूल हैं। इन ऊपर कही दश बातोंसे विरति कुशल है। (१) अलोम, (२) अद्वेष, (३) अमोह कुशल मूल है । जो आर्य श्रावक इन चारोंको जानता है वह राग-अनुशव (मल) का परित्याग कर, प्रतिध (पतिहिंसा या द्वेष) को हटाकर अस्थि (मैद) इस दृष्टिमान (धारणाके भाभिमान) अनुशयको उन्मूलन कर अविद्याको नष्ट कर, विद्याको उत्पन्न कर इसी जन्ममें दुःखोंका अन्त करनेवाला सम्यग्दृष्टि होता है। जब मार्य श्रावक आहार, आहार समुदय (माहारकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५७ जैनम्बौदामान। उत्पत्ति ), आहार विरोध और माहार निरोष गामिनी प्रतिपद, ( आहारके विनाशकी ओर लेजाने मार्ग) को जानता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है। इनका खुलासा यह है-सन्तोंकी स्थिति होनेकी सहायताके लिये भूतों (प्राणियों) के लिये चार आहार हैं-(१) स्थूल या सूक्ष्म कवलिंकार (ग्रास करके खाया जानेवाला) आहार, (२) स्पर्श, (३) मनकी संचेतना, (४) विज्ञान, तृष्णाका समुइय ही माहारका समुदय (कारण) है। तृष्णाका निरोध-आहारका निरोध है । आर्द-आतंगिक मार्ग आहार निरोधगामिनी प्रतिपद है जैसे (१) सम्यग्दृष्टि, (२) सम्यक् संकल्प, (३) सम्यक्वचन, (४) सम्यक् कर्मान्त (कर्म), (५) सम्यक् मानीव (भोजन), (६) सम्यक् व्यायाम (उद्योग), (७) सम्यक् स्मृति, (८) सम्यक् समाधि । जो इनको जानकर सर्वथा रागानुशमको परित्याग करता है वह सम्यग्दृष्टि होता है । जब आर्य श्रावक (१) दुःख, (२) दुःख समुदय (कारण), (३) दुःस्व निरोध, (४) दुःख निरोधगामिनी प्रतिपदको जानता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है । इसका खुलाशा यह है-जन्म, जरा, व्याधि, मरण, शोक, परिदेव (रोना), दुःख दौर्मनस्य (मनका संताप), उपायास (परेशानी) दुःख है। किसीकी इच्छा करके उसे न पाना भी दुःख है । संक्षेप पांचों उपादान (विषयके तौरपर ग्रहण करने योग्य रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान) स्कंध ही दुःख है। वह जो नन्दी उन उन भोगोंको अभिनन्दन करनेवाली, रागसे संयुक्त फिर फिर जन्मनेकी तृष्णा है जैसे (१) काम (इन्द्रिय संभोग) की तृष्णा, (२) भव (जन्मने) की तृष्णा, • (३) विभव (धन) की.कृष्णा । वह दुःख समुदय (कारण) है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] । प्रदुसरा भाग। . जो उस तृष्णाका सम्पूर्णतया विराग, निरोध, त्याग, प्रतिनिःसर्ग, मुक्ति, अनालय (लीन न होना) वह दुःख निरोध है। ऊपर लिखित आर्य अष्टांगिक मार्ग दुःख निरोधगामिनि प्रतिपद है। ___जव मार्य श्रावक जरा मरणको, इसके कारणको, इसके निरोधको व निरोधके उपायको जानता है तब यह सम्यग्दृष्टि होता है। प्राणियों के शरीरमें जीर्णता, वांडित्य (दांत टूटना), पालित्य (बालकपना), बलिवक्ता (झुरीं पडना), आयुक्षय, इन्द्रिय परिपाक यह जरा कही जाती है। प्राणियोंका शरीरोंसे च्युति, भेद, भन्तर्धान, मृत्यु, मरण, स्कंधोंका विलग होना, कलेवरका निक्षेप, यह मरण कहा जाता है। जाति समुदय (जन्मका होना) जरा मरण समुदय है। जाति निरोध, जरा मरण निरोध है । वही अष्टांगिक मार्ग निरोधका उपाय है। जब आर्य श्रावक तृष्णाको, तृष्णाके समुदयको, उसके निरोधको तथा निरोष गामिनी प्रतिपदको जानता है तब यह सम्यग्दृष्टि होता है । तृष्णाके छः आकार हैं-(१) रूप तृष्णा, (२) शब्द तृष्णा, (३) गन्ध तृष्णा, (४) रस तृष्णा, (५) स्पर्श तृष्णा, (६) धम ( मनके विषयोंकी ) तृष्णा । वेदना (अनुभव) समुदय ही तृष्णा समुदय है (तृष्णाका कारण) है । वेदना निरोध ही तृष्णा निरोध है। वही अष्टांगिक मार्ग निरोध प्रतिपद है। जब मार्य श्रावक वेदनाको, बेदना समुदयको, उसके निरोपको, तथा निरोपगामिनी प्रतिपदूको जानता है तब वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | 6 सम्यक दृष्टि होता है । वेदनाके छः प्रकार हैं (१) चक्षु संस्पर्शजा ( चक्षु के संयोग से उत्पन्न ) वेदना, (२) श्रोत्र संस्पर्शजा वेदना, (३) प्राण संस्पर्शजा वेदना, (४) जिद्दा संस्पर्शजा वेदना, (५) काय संस्पर्शजा वेदना, (६) मनः संस्पर्शजा वेदना । स्पर्श (इन्द्रिय और विषयका संयोग ) समुदय ही वेदना समुदय है ( वेदनाका कारण है ।) स्पर्शनिरोधसे वेदनाका निरोध है । वही आष्टांगिक मार्ग वेदना विरोध प्रतिपद है । जब आर्य श्रावक स्पर्श (इन्द्रिय और विषय के संयोग ) को, स्पर्श समुदयको, उसके निरोधको, तथा निरोधगामिनी प्रतिपदको जानता है तब सम्यकदृष्टि होती है। स्पर्शके छः प्रकार हैं (१) चक्षुः - संस्पर्श (२) श्रोत्र - संस्पर्श, (३) घ्राण - संस्पर्श, (४) जिह्वा - संस्पर्श, (५) काय - संस्पर्श, (६) मन- संस्पर्श । षड् आयतन (चक्षु, श्रोत्र, घ्राण, जिह्ना, काय या तन तथा मन ये छः इन्द्रियां ) समुदय ही स्पर्श समुदय ( स्पर्शका कारण ) है । षडायतन निरोधसे स्पर्श निरोव होता है । वही अष्टांगिक मार्ग निरोधका उपाय है । जब आर्य श्रावक षडायतनको, उसके समुदयको, उसके निरोधको, उस निरोधके उपायको जानता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है । ये छः आयतन ( इन्द्रियां ) हैं - (१) चक्षु, (२) श्रोत्र, (३) प्राण, (४) जिह्वा, (५) काय, (६) मन । नामरूप ( विज्ञान और रूप Mind and Matter) समुदय षडायतन समुदय ( कारण ) है । नामरूप निरोध षडायतन निशेध है । वही अष्टांगिक मार्ग उस निरोधका उपाय है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.] दूमरा माग। जब भार्य श्रावक नामरूपको, उसके समुदयको, उसके निरोधको व निरोधके उपायको जानता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है-(१) वेदना-(विषय और इन्द्रियके संयोगसे उत्पन्न मन पर प्रथम प्रमाव ), (२) संज्ञा-( वेदनाके अनन्तरकी मनकी अवस्था ), (३) चेतना-(संज्ञाके अनन्तरकी मनकी अवस्था ), (४) स्पर्शमन सिकार ( मनपर संस्कार ) यह नाम है। चार महाभूत (पृथ्वी, जल, भाग, वायु) और चार महाभूतोंको लेकर (वन) रूप कहा जाता है । विज्ञान समुदय नाम-रूप समुदय है, विज्ञान निरोध नामरूप निरोध है, उसका उपाय यही माष्टांगिक मार्ग है। जब आर्य श्रावक विज्ञानको, विज्ञानके समुदयको, विज्ञान निरोधको व उसके उपायको जानता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है । छः विज्ञानके समुदाय ( काय ) हैं-(१) चक्षु विज्ञान, (२) श्रोत्र विज्ञान, (३) घ्रण विज्ञान, (४) जिह्वा विज्ञान, (५) काय विज्ञान, (६) मनो विज्ञान । संस्कार समुदय विज्ञान समुदय है। संस्कार निरोध-विज्ञान निरोध है। उसका उपाय यह आष्टांगिक मार्ग है। जब आर्य श्रावक संस्कागेको, संस्कारोंके समुदयको, उनके निरोधको, उसके उपायको जानता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है । संस्कार (क्रिया, गति) तीन हैं-(१) काय संस्कार, (२) वचन संस्कार, (३) चित्त संस्कार । अविद्या समुदय-संस्कार समुदय है, अविद्या निरोध संस्कार निरोध है । उसका उपाय यही माष्टांगिक मार्ग है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। जब आर्य श्रावक अविद्याको, मविद्या समुदय, मविद्या निरोधको व उसके उपायको जानता है तब वह सम्यग्दृष्टि होता है । दुःखके विषयमें अज्ञान, दुःख समुदयके विषयमें अज्ञान, दुःख निरोके विषयमें अज्ञान, दुःख निरोव गामिनी प्रतिपदके. विषयमें अज्ञान अविद्या है । आस्रव समुदय-अविद्या समुदय है । भास्रव निरोध, अविद्या निरोध है। उसक! आय यही आष्टांगिक मार्ग है । जब आर्य श्रावक आस्रव (चित्तमल) को, भास्रव समुद्यको, आस्रव निरोधको, उसके उपायको जानता है तब बह सम्पाटष्टि होता है। तीन आस्रव हैं-(१) काम मास्रव, (२) भव ( जन्मनेका ) भास्रव, (३) अविद्या मास्रव । अविद्या समुदय अस्रव समुदय है । अविद्या निरोध भास्रव निरोध है । यही आष्टांगिक मार्ग सुखका उपाय है। इस तरह वह सब रागानुशुमय (रागमल) को दूरकर, प्रतिघ (प्रतिहिंसा) अनुशयको हटाकर, मस्मि ( मैं हू ) इस दृष्टिमान (धारणाके अभिमान ) अनुशयको उन्मूलन कर, अविद्याको नष्टकर, विद्याको उत्पन्न कर, इसी जन्ममें दुःखोंका अन्त करनेवाला होता है। इस तरह आर्य श्रावक सम्यक्ष्टि होता है। उसकी दृष्टि सीधी होती है। वह धर्ममें अत्यन्त श्रद्धावान हो इस सद्धर्मको प्राप्त होता है। नोट-इस सूत्रमें सम्यग्दृष्टि या सत्य श्रद्धावानके लिये पहले ही यह बताया है कि वह मिथ्यात्वको तथा हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील व लोभको छोड़े, तथा उनके कारणों को त्यागेर मारत. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] दूसरा माग । लोभ ( राग ), द्वेष, व मोहको छोड़े, वह वीतरागी होकर अहंकारका त्याग करे । निर्वाणके सिवाय जो कुछ यह अपनेको मान रहा था, उस भावको त्याग करे तब यह अविद्यासे हटकर विद्याको या सच्चे ज्ञानको उत्पन्न करेगा व इसी जन्म में निर्वाणका अनुभव करता हुआ सुखी होगा, दुःखोंका अन्त करनेवाला होगा। यदि कोई निर्वाण स्वरूप आत्मा नहीं हो तो इस तरहका कथन होना ही संभव नहीं है । अभावका अनुभव नहीं होता है। यहां स्वानुभवको ही सम्यक्त कहा है। यही बात जैन सिद्धांत में कही है। विद्याका उत्पन्न होना ही आत्मीक ज्ञानका जन्म है । आगे चलकर बताया है कि तृष्णा के कारणसे चार प्रकारका आहार होता है। (१) भोजन, (२) पदार्थों का रागसे स्पर्श, (३) मनमें उनका विचार, (४) तत्सम्बन्धी विज्ञान | जब तृष्णाका निरोष होजाता है - तब ये चारों प्रकारके आहार बंद होजाते हैं । तब शुद्ध ज्ञानानंदका ही आहार रह जाता है । सम्यकदृष्टि इस बातको जानता है। - यह बात भी जैन सिद्धांत के अनुकूल है । साधन अष्टांग मार्ग है जो जैनोंके रत्नत्रय मार्गसे मिल जाता है । फिर बताया है कि दुःख जन्म, जरा, मरण, माघि, व्याधि तथा विषयोंकी इच्छा है जो पांच इन्द्रिय व मनद्वारा इस विषयको ग्रहण कर उनके वेदन, मदिसे पैदा होती है। इन दुःखोंका कारण काम या इन्द्रियभोगकी तृष्णा है, भावी जन्मकी तथा संपदाकी तृष्णा है। उनका निरोध तब ही होगा जब अष्टांग मार्गका सेवन करेगा । यह बात भी जैन सिद्धांतसे मिलती है । सांसारीक सर्व दुःखका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्ज्ञान । [ ६३ मूळ विषयोंकी तृष्णा है । सम्यक् प्रकार स्वस्वरूपके भीतर रमण करनेसे ही विषयोंकी वासना दूर होती है। फिर बताया है कि जरा मरणका कारण जन्म है। जन्मका निरोध होगा तब जरा व मरण न होगा। फिर बताया है पांच इन्द्रिय और मनके विषयोंकी तृष्णाकी उत्पत्ति इन छहोंके द्वारा विषयोंकी वेदना है या उनका अनुभव है। केळका कारण इन छहों का और विषयोका संयोग है । इस संयोगका कारण छहों इन्द्रियोंका होना है। इनकी प्राप्ति नामरूप होनेपर होती है । नामरूप अशुद्ध ज्ञान सहित शरीरको कहते हैं । शरीरकी उत्पत्ति पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुसे होती है वही रूप है । नामकी उत्पत्ति वेदना, संज्ञा, चेतना संस्कारसे होती है । विज्ञान ही नामरूपका कारण है। पांच इन्द्रिय और मन सम्बन्धी ज्ञानको विज्ञान कहते हैं, उसका कारण संस्कार है | संस्कार मन, वचन, काय सम्बन्धी तीन हैं । इसका संस्कार कारण विद्या है। दुःख, दुःखके कारण, दुःख निरोध और दुःख निरोध मार्गके सम्बन्धमें अज्ञान ही अविधा है । अविद्याका कारण आस्रव है अर्थात् चित्तमल है वे तीन हैं-काम भाव (इच्छा), भव या जन्मनेकी इच्छा, अविद्या इस असवका भी कारण अविद्या है | आसव अविद्याका कारण है । इस कथनका सार यह है कि अविद्या या अज्ञान ही सर्व संसारके दुःखोंका मूल है। जब यह रागके वशीभूत होकर मज्ञानसे इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रवृत्ति करता है तब उनके अनुभवसे संज्ञा होजाती है। उनका संसार पड़ जाता है। संस्कारसे विज्ञान होती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] है। अर्थात् एक संस्कारोंका पुन होजाता है। उसीसे नामरूप होता है । नामरूप ही अशुद्ध प्राणी है, सशरीरी है । इस सर्व अविद्या व उनके परिवारको दूर करने का मार्ग सम्यग्दृष्टि होकर फिर आष्टांग मार्गको पालना है । मुख्य सम्यक्समाधिका अभ्यास है। सम्यग्दृष्टि वही है जो इस सर्व मविद्या आदिको त्यागने योग्य समझ ले, इन्द्रिय व मनके विषयोंसे विरक्त होजावे । गग, द्वेष, मोहको दूर कर दे। यहां भी मोहसे प्रयोजन अहंकार ममकारसे है। भापको निर्वाणरूप न जानकर कुछ और समझना। आपके सिवाय परको अपना समझना मोह या मिथ्यादृष्टि है। इसीसे पर इष्ट पदार्थोंमें राग व अनिष्टमें द्वेष होता है । अविद्या सम्बन्धी रागद्वेष मोह सम्यकदृष्टिके नहीं होता है। उसके भीतर विद्या का जन्म हो जाता है, सम्र ज्ञान होजाता है । वह निर्वा. णका अत्यन्त श्रद्ध वान होकर सत्य धर्मका लाम लेनेवाला सम्यक् दृष्टि होजाता है। __ जैन सिद्धांतको देखा जायगा तो यही बात विदित होगी कि अज्ञान सम्बन्धी राग व द्वेष तथा मोह सम्यकदृष्टिके नहीं होता है। जैन सिद्धांतमें कर्मके संबन्धको ष्ट करते हुए, इसी बातको सम. झाया है । इस निर्वाण स्वरूप आमाका स्वरूप ही सम्यग्दर्शन या स्वात्म प्रतिति है परन्तु अनादि कालसे उनका प्रकाश पांच प्रकारकी कर्म प्रकृतियोंके आवरणसे या उनके मैलसे नहीं हो रहा है। चार अनंतानुबन्धी (पाषाणकी रेखाके समान) क्रोध, मान, माया, कोम और मिथ्यात्व कर्म। मनंतानुबंधी माया और लोभको भज्ञान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान [६५ संबन्धी राग व क्रोध और मानको अज्ञान संबन्धी द्वेष कहते हैं। मिथ्यात्वको मोह कहते हैं। इस तरह राग, द्वेष, मोहके उत्पन्न करनेवाले कर्मों का संयोग बाधक है। जैन सिद्धांतमें पुद्गल : Matter) के परमाणुओंके समुदायसे बने हुए एक खास जातिके स्कंधोंको कार्माण वर्गणा Karmic molecules कहते हैं। जब यह संसारी प्राणीसे संयोग पाते हैं तब इनको कर्म कहते हैं। कर्मविपाक ही कर्म फल है। जब तक सम्यग्दर्शनके घातक या निरोधक इन पंच कर्मोको दबाया या क्षय नहीं किया जाता है तब तक सम्यग्दर्शनका उदय नहीं होता है। इनके असरको मारनेका उपाय तत्व अभ्यास है। तत्व अभ्यासके लिये चार बातोंकी जरूरत है-(१) शास्त्रोंको पढकर समझना, (२) शास्त्रज्ञाता गुरुओंसे उपदेश लेना. (३) पूज्यनीय परमात्मा अरहंत और सिद्धकी भक्ति करना । (४) एकांसमें बैठकर स्वतत्व परतत्वका मनन करना कि एक निर्वाण स्वरूप मेरा शुद्धात्मा ही स्वतत्व है, ग्रहण करने योग्य है तथा अन्य सर्व शरीर वचन व मनके संस्कार व कर्म आदि त्यागने योग्य हैं । शरीर सहित जीवनमुक्त सर्वज्ञ वीतराग पदधारी आत्माको भरहंत परमात्मा कहते हैं। शरीर हित अमूर्ती मर्वज्ञ वीतराग पदधारी आत्माको सिद्ध परमात्मा कहते हैं। इसीलिये जैनागममें बचारि मंगलं-मरहतमंगलं, सिद्धमंगल, साहूमंगल, केवलि पण्णतो. पम्मो मंगळ ॥१॥ पचारि गुत्तमा-परहंत लोगुचना, सिबलोत्तमा, माइलोगुत्तमा, फेवलिपण्णचो बम्मो मेगुचमा ॥२॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। चारि सरणं पव्वजामि-अरहंतसरणं पवजामि, सिद्धस्सरणं पध्वजामि, साहू सरणं पञ्चजामि, केवलिण्णत्तो धम्मो सरणं पयजामि । . चार मंगल हैं। अरहंत मंगल है, सिद्ध मंगल है, साधु मंगल है, केवलीका कहा हुआ धर्म मंगल (पापनाशक ) है । चार लोकमें उत्तम हैंअरहंत, सिद्ध, साधु व केवली कथित धर्म। चारकी शरण जाता हूंअरहंत, सिद्ध. साधु व केवली कथित धर्म । - धर्मके ज्ञानके लिये शास्त्रोंको पढ़कर दुःखके कारण व दुःख मेटने के कारणको जानना चाहिये। इसीलिये जैन सिद्धांतमें श्री उमास्वामीने कहा है-" तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं ॥ २॥१ तत्व सहित पदार्थोंको श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। तत्व सात हैं" जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्व" जीव, अजीव, भास्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष, इनसे निर्वाण पाने का मार्ग समझमें भाता है। मैं तो मजा. अमर, शाश्वत. अनुभव गोचर, ज्ञानदर्शनस्वरूप व निर्वाणमय अखण्ड एक अमूर्ती पदाथ हूं। यह जीव तत्व है। मेरे साथ शरीर सूक्ष्म और स्थूल तथा बाहरी जड़ पदार्थ, या भाकाश, काल तथा धर्मास्तिकाय (गमन सहकारी द्रव्य ) और अधर्मास्तिकाय (स्थिति सहकारी द्रव्य ) ये सब अजीव हैं, मुझसे भिन्न हैं। कार्माण शरीर किन कर्मवर्गणाओं (Karmic molecules) से बनता है उनका खिंचकर पाना सो आस्रव है। तथा उनका सूक्ष्म शरीर के साथ बंधना बंत्र है। इन दोनों का कारण मन, वचन कायकी क्रिया तथा क्रोधादि कषाय हैं। इन भावों के रोकनेसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। उनका नहीं आना संवर है । ध्यान समाधिसे कोका क्षय करना निर्जरा है। सर्व कर्मोसे मुक्त होना, निर्वाण लाभ करना मोक्ष है। इन सात तत्वोंको श्रद्धानमें लाकर फिर साधक अपने आत्माको परसे भिन्न निर्वाण स्वरूप प्रतीत करके भावना भाता है। निरंतर अपने आत्माके मननसे भावोंमें निर्मकता होती है तब एक समय भाजाता है जब सम्यग्दर्शनके रोकनेवाले चार अनंतानुबन्धी कषाय और मिथ्यात्वका उपशम कर देता है और सम्पग्दशनको प्राप्त कर लेता है। जब सम्यग्दर्शनका प्रकाश झलकता है तब आत्माका साक्षात्कार होजाता है-स्वानुभव हो जाता है । इसी जन्ममें निर्वाणका दर्शन होजाता है । सम्यग्दर्शन के प्रतापसे सच्चा सुख स्वादमें आता है । अज्ञान सम्बन्धी राग, द्वेष, मोह सब चला जाता है, ज्ञान सम्बन्धी रागद्वेष रहता है । जब सम्यग्दृष्टी श्रावक हो अहिं.. सादि अणुव्रतोंको पालता है तब रागद्वेष कम करता है । जब वही . साधु होकर अहिंसादि महावतोंको पालता हुआ सम्यक् समाधिका मले प्रकार साधन करता है तब अरहंत परमात्मा हो जाता है। फिर मायुके क्षय होनेपर निर्वाण लाभकर सिद्ध परमात्मा होजाता है। पंचाध्यायी कहा हैसम्यक्तं वस्तुतः सूक्ष्म केवलज्ञानगोचरम् । गोचरं खावधिस्वान्तपर्ययज्ञानयोयोः ॥ ३७५ ॥ . अस्त्यात्मनो गुणः कश्चित् सम्यक्त्वं निर्विकल्पकं । . तद्द्दङ्मोहोदयान्मिथ्यास्वादुरूपमनादितः ॥ ३७५ ॥ . भावार्थ:-सम्यग्दर्शन वास्तवमें केवलज्ञानगोचर भति सूक्ष्म . गुण है या परमावधि, सर्वावधि व मनः पर्ययज्ञानका भी विषय है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] दूसरा भाग। बह निर्विकल्प अनुभव गोचर मात्माका एक गुण है । वह दर्शन मोहनीयके उदयसे अनादि कालसे मिथ्या सादु रूप होरहा है। तपथा स्वानुभूतौ वा रत्काले वा तदात्मनि । मस्त्यवश्यं हि सम्यक्त्वं यस्मात्सा न विनापि तत् ॥४०॥ भावार्थ:-जिस मात्मामें जिस काल स्वानुभति है (आत्माका निर्वाण स्वरूप साक्षात्कार होरहा है) उस आत्मामें उस समय अवश्य ही सम्यक्त्व है । क्योंकि विना सम्यक्त के स्वानुभूति नहीं होसक्ती है। सम्यग्दृष्टि प्रशम, संवेग, अनुकम्श, भास्तिक्य चार गुण होते हैं। इनका लक्षण पंचाध्यायीमें है प्रशमो विषयेषूचे वक्रोधादिवेषु च । लोका संख्यातमात्रेषु स्वरूपाच्छथिलं मनः ॥ ४२६ ॥ भा०-पांच इन्द्रियके विषयों में और असंख्यात लोक प्रमाण क्रोधादि भावोंमें स्वभावसे ही मनकी शिथिलता होना प्रशम या शांति है। संवेगः परमोत्साहो धर्मे धर्मफले चितः । सधर्मेष्वनुरागो वा प्रीतिर्वा परमेष्ठिषु ॥ ४३१ ॥ भा०-साधक मात्माको धर्ममें व धर्मके फल में परम उत्साह होना संवेग है। अन्यथा साधर्मियों के साथ अनुराग करना व भरहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय, साधुमें प्रेम करना भी संवेग है । अनुकम्पा क्रिया ज्ञेया सर्वसत्त्वेष्वनुग्रहः। मैत्रीमावोऽय माध्यस्थ नै शल्यं वैरवनात् ॥ ४४६ ॥ मापाय-सर्व प्राणियोंने उपकार बुद्धि रखना अनुकम्पा (खया) प्रगती मला सर्व माणियोम मंत्रीभाव रखना मी तु. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन पौद सलमान। [३९ कम्पा है या वेष बुद्धिको छोड़कर माध्यस्थ भाव रखना वा बेरभाष छोडकर शल्य रहित या कषाय रहित होना भी अनुकम्पा है। मास्तिक्यं तत्त्वसद्भावे स्वतः सिद्धे विनिश्चतिः । धर्मे हेतौ च धर्मस्य फले चाऽऽत्मादि धर्मवत् ॥ ४९२ ॥ भावार्य-स्वतः सिद्ध तत्वोंके सदभावमें, धर्ममें, धर्मके कारणमें, धर्मके फलमें निश्चय बुद्धि रखना भास्तिक्य है। जैसे भात्मा भादि पदार्थोके धर्म या स्वभाव हैं उनका वैसा ही श्रदान करना मास्तिक्य है। तत्राय जीवसंज्ञो यः स्वसंवेश्चिदात्मकः । सोहमन्ये तु गगाथा हेयाः पौगलिका ममी ॥ ४५७ ॥ भावार्थ-यह जो नीव संज्ञाधारी भात्मा है वह स्वसंवेब (अपने भापको आप ही जाननेवाला) है, ज्ञानवान है, वही मैंई। शेष जितने रागद्वेषादि भाव हैं वे पुद्गलमयी हैं, मुझसे मिन्न है, त्यागने योग्य हैं, तब खोजियोंको उचित है कि जैन सिद्धांत देखकर सम्यग्दर्शनका विशेष स्वरूप समझें । (८) मज्झिमनिकाय स्मृतिप्रस्थानसूत्र । गौतम बुद्ध कहते हैं-भिक्षुओ! ये जो चार स्मृति प्रस्थान हैं वे सत्वोंके कष्ट मेटने के लिये, दुःख दौमनस्यके अतिक्रमणके लिये, सत्यकी प्राप्तिके लिये, निर्वाणकी प्राप्ति और साक्षात्कार करने के लिये मार्ग हैं। (१) काय काय-अनुपश्यी (शरीरको उसके असल स्वरूप केश, नख, मलमूत्र मादि रूपमें देखनेवाला), Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसरा भाग। (२) वेदनाओंमें वेदनानुपश्यी ( सुख, दुःख व न दुःख सुख इन तीन चित्तकी अवस्थारूपी वेदनाओंको जैसा हो वैसा देखनेवाला । (३) चित्तमें चित्तानुपश्यी, (४) धर्मो में धर्मानुपश्यी हो, उद्योगशील अनुभव ज्ञानयुक्त, स्मृतिवान् लोकमें (संसार या शरीर) में (अमिघ्या) लोम और दौर्यभस्म (दुःख) को हटाकर विहरता है। (१) कैसे भिक्षु कायमें कायानुपश्यी हो विहरता है। भिक्षु भाराममें वृक्षके नीचे या शून्यागारमें आसन मारकर, शरीरको 'सीधा कर, स्मृतिको सामने रखकर बैठता है । वह स्मरण रखते हुए श्वास छोड़ता है, श्वास लेता है । लम्बी या छोटी श्वास लेना सीखता है, कायके संस्कारको शांत करते हुए श्वास लेना सीखता है, कायके भीतरी और बाहरी भागको जानता है, कायकी उत्पत्तिको देखता है. कायमें नाशको देखता है । कायको कायरूप जानकर तृष्णासे अलिप्त हो विहरता है। लोक में कुछ भी (मैं मेरा करके) नहीं ग्रहण करता है। भिक्षु जाते हुए, बैठते हुए, गमन-भागमन करते हुए, सकोड़ते, कैलाते हुए, स्वाते-पीते, मलमूत्र करते हुए, खड़े होते, सोते-जागते, बोलते, चुप रहते जानकर कानेवाला होता है। वह पैरसे मस्तक तक सर्व मा उपाङ्गोंको नाना प्रकार मलोंसे पूर्ण देखता है। वह कायकी रचनाको देखता है कि यह पृथ्वी, जल, अमि, वायु. इन चार धातुओंसे बनी है । वह मुर्दा शरीरकी छिन्नभिन्न दशाको देखकर शरीरको उत्पत्ति व्यय स्वभावी जानकर कायको कायरूप जानकर विहरता है। - (२) मिश्र वेदनाओंमें वेदनानुपश्यी हो कैसे विहरता है। मुख वेदनाभोंको अनुभव करते हुए "मुख वेदना अनुभव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद तत्वज्ञान। [७१ कर रहा हूं" जानता है। दुख वेदनाको अनुभव करते हुए" दुखवेदना अनुभव कर रहा हूं" जानता है । अदुःख अमुख वेदनाको अनुभव करते हुए "अदुःख असुख वेदनाको अनुभव कर रहा हूं" जानता है। (३) भिक्षु चित्तम चित्तानुपश्यी हो कसे विहरता हैवह सराग चित्तको " सराग चित्त है " जानता है। इसी तरह विराग चित्तको विराग रूप, सद्वेष चित्तको सद्वेष रूप, वीत द्वेषको वीत द्वेष रूप, समोह चित्तको समोहरूप, वीत मोह चित्तको वीत मोहरूप, इसी तरह संक्षिप्त, विक्षिप्त, महद्गत, अमहद्गत, उत्तर, अनुत्तर, समाहित, (एकाग्र), अप्महित, विमुक्त, अविमुक्त चित्तको जानकर विहरता है। (४) भिक्षु धर्मोमं धर्मानुपश्यी हो कैसे विहरता है-भिक्षु पांच नीवरण धर्मोमें धर्मानुपश्यी हो विहरत है। वे पांच नीवरण हैं-(१) कामच्छन्द - विद्यमान कामच्छन्दकी, अविद्यमान कामच्छन्दकी, मनुत्पन्नकामच्छन्दकी कसे उत्पत्ति होती है। उत्पन्न कामच्छन्दका कैसे विनाश होता है। विनष्ट कामच्छन्दकी मागे फिर उत्पत्ति नहीं होती, जानता है। इसी तरह (२) व्यापाद (द्रोहको), (३) स्त्या-गृद्ध ( शरीर व मनकी अलसता ) को. (४) उदुचकुक्कुच्छ ( उद्वेग-खेद ) को तथा (५) विचिकित्सा ( संशय) को जानता है। यह पांच उपादान स्कंध धर्मोमे धर्मानुपश्यी हो विहरता है। वह अनुभव करता है कि यह (१) रूप है, यह रूपकी उत्पत्ति है। यह रूपका विनाश है, (२) यह वेदना -यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] इससभाग। वेदनाकी उत्पत्ति है, यह वेदनाका विनाश है, (३) यह संशा - यह संज्ञाकी उत्पत्ति है. यह संज्ञाका विनाश है (४) यह संस्कार है, यह संस्कारकी उत्पत्ति है, यह संस्कारका विनाश है, (५) यह विज्ञान है-यह विज्ञानकी उत्पत्ति है, यह विज्ञानका विनाश है। वह छः शरीरके भीतरी और बाहरी आयतन धर्मोमें धर्म अनुभव करता विहरता है, भिक्षु--(१) चक्षुको व रूपको अनुभव करता है। उन दोनोंका संयोजन कैसे उत्पन्न होता है उसे भी अनुभव करता है, जिस प्रकार अनुत्पन्न संयोजनकी उत्पत्ति होती है उसे भी जानता है । जिस प्रकार उत्पन्न संयोजनका नाश होता है उसे भी जानता है। जिस प्रकार नष्ट संयोजनकी आगे फिर उत्पत्ति नहीं होती उसे भी जानता है । इसी तरह (२) श्रोत्र व शब्दको, (३) प्राण व गंधको (४) जिहा व रसको (५) काया व स्पर्शको (६) मन व मनके धर्मोको। इस तरह भिक्षु शरीरके मीतर और बाहरवाले छः आयतन धर्मों का स्वभाव अनुभव करते हुए विहरता है। वह सात बोधिअंग धर्मोमें धर्म अनुभव करता विहरता है (१) स्मृति-विद्यमान भीतरी ( अध्यात्म ) स्मृति बोधिअंगको मेरे भीतर स्मृति है, अनुभव करता है। अविद्यमान स्मृतिको मेरे भीतर स्मृति नहीं है, अनुभव करता है। जिस प्रकार अनुत्पन्न स्मृतिकी उत्पत्ति होती है उसे जानता है, जिस प्रकार स्मृति बोधिअंगकी भावना पूर्ण होती है उसे भी जानता है । इसी तरह (२) धर्मविचय (धर्म अन्वेषण), (३) वीर्य, (४) प्रीति, (५) प्रश्रधि (शांति), Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गौरवज्ञान। [७१ (६) समाधि, (७) उपेक्षा गोषिगो सम्बन्ध मानता है। (बोधि (परमज्ञान) प्राप्त करने के सातों परम सहायक है इसलिये इनको बोधिअंग कहा जाता है) वह मिक्षु चार मार्य सत्य धर्मों में धर्म अनुभव करते विहरता है । (१) यह दुःख है, ठीक २ अनुभव करता है, (२) यह दुःखका समुदय या कारण है, (३) यह दुःख निरोध है, (१) यह दुःख निरोधकी मोर लेजानेवाला मार्ग है, ठीक ठीक अनुभव करता है। इसी तरह भिक्षु मीतरी धर्मोमें धर्मानुपश्यी होकर विहरता है। अलम (भलिप्त) हो विहरता है। लोकमें किसीको भी "मैं और मेरा" करके नहीं ग्रहण करता है । जो कोई इन चार स्मृति प्रस्थानोंको इस प्रकार सात वर्ष भावना करता है उसको दो फलोंमें एक फल अवश्य होना चाहिये। इसी नन्ममें आज्ञा (अईत्व) का साक्षात्कार वा उपाधि शेष होनेपर अनागामी मवि रहनेको सात वर्ष, जो कोई छः वर्ष, पांच वर्ष, चार वर्ष, तीन वर्ष, दो वर्ष, एक वर्ष, सात मास, छः मास, पांच मास, चार मास, तीन मास, दो मास, एक मास, मर्ष मास या एक सप्ताह भावना करे वह दो फलोंमेंसे एक फल अवश्य पावे । ये चार स्मृति प्रस्थान सत्वोंके शोक कष्टकी विशुद्धिके लिये दुःख-दौर्मनस्यके अतिक्रमणके लिये, सत्यकी प्राप्तिके लिये, निर्वाणकी प्राप्ति और साक्षात् करनेके लिये एकापन मार्ग है। नोट इस सूत्रमें पहले ही बताया है कि वे चार स्मृतिये निर्वाणकी प्राप्ति और साक्षात्कार करने के लिये मार्ग हैं। ये वाक्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१) दूसरा माग। प्रगद करते हैं कि निर्वाण कोई मस्तिरूप पदार्थ है जो प्राप्त किया जाता है या जिसका साक्षात्कार किया जाता है। वह अभाव नहीं है। कोई भी बुद्धिमान अभावके लिये प्रयत्न नहीं करेगा। वह मस्ति रूप पदार्थ सिवाय शुद्धात्माके और कोई नहीं होसक्ता है। वही अज्ञात, अमर, शांत, पंडित वेदनीय है । जैसे विशेषण निर्वाणके सम्बन्धमें बौद्ध पाली पुस्तकोंमें दिये हुए हैं। ___ ये चारों स्मृति प्रस्थान जैन सिद्धांतमें कही हुई बारह अपेक्षाओंमें गर्भित होजाती हैं। जिनक नाम भनित्य, मशरण मादि सर्वानव सूत्र नामके दूसरे अध्यायमें कहे गए हैं। (१) पहला स्मृति प्रस्थान-शरीरके सम्बन्धमें है कि वह साधक पवन संचार या प्राणायामकी विधिको जानता है। शरीरके भीतर-बाहर क्या है, कैसे इसका वर्ताव होता है । यह मल, मूत्र तथा रुधिरादिसे भरा है। यह पृथ्वी आदि चार धातुओंसे बना है। इसके नाशको विचार कर शरीरसे उदासीन होजाता है । न शरीर. रूप मैं हूं न यह मेरा है । ऐसा वह शरीरसे अलिप्त होजाता है । जैन सिद्धांतमें बारह भावनामोंके भीतर अशुचि भावनामें यही विचार किया गया है। श्री देवसेनाचार्य तत्त्वसारमें कहते हैंमुक्खो विणासरूवो चेयणपरिवजिमो सयादेहो । तस्स ममत्ति कुणतो बाहिरप्पा होइ सो जीमो ॥ ४८ ॥ रोय सदण पडणं देहस्स य पिच्छिऊण जरमरणं । जो मप्पाणं झायदि सो मुच्चइ पंच देहेहि ॥ ४९ ॥ भावाय-यह शरीर मूर्ख है, मज्ञानी है, नाशवान है, व सदा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ७५ 1 . ही चेतना रहित है । जो इसके भीतर ममता करता है वह जीव बहिरात्मा - मूढ़ है। ज्ञानी आत्मा शरीरको रोगसे भरा हुआ, सड़नेवाला, पड़नेवाला व जरा तथा मरणसे पूर्ण देखकर इससे तृष्णा छोड देता है और अपना ही ध्यान करता है । वह पांच प्रकार के शरीर से छूटकर शुद्ध व अशरीर होजाता है । जैन सिद्धांत में सर्व प्राणियों के सम्बन्ध करनेवाले पांच शरीरोंको माना है । (१) औदारिक शरीर - वह स्थूल शरीर जो बाहरी दीखनेवाला मनुष्य, पशु, पक्षी, कीटादि, वृक्षादि, सर्व तिर्थचोंके होता है । (२) वैक्रियिक शरीर- जो देव तथा नारकी जीवका स्थूल शरीर है। (३) आहारकतपसी मुनियोंके मस्तक से बनकर किसी अरहन्त या श्रुतके पूर्ण ज्ञाताके पास जानेवाला व मुनिके संशयको मिटानेवाला यह एक दिव्य शरीर है । ( ४ ) तेजस शरीर - बिजलीका शरीर electric body. (५) कार्माण शरीर-पाप पुण्य कर्मका बना शरीर ये दोनों शरीर तैजर और कार्माण सर्व संसारी जीवोंके हर दशामें पाए जाते हैं । एक शरीरको छोडते हुए ये दो शरीर साथ साथ जाते हैं । इनसे भी जब मुक्ति होती है तब निर्वाणका लाभ होता है । श्री पूज्यपाद स्वामी इष्टोपदेशम कहते हैं भवति प्राप्य यत्संयमशुचीनि शुचीन्यपि । स काय: संततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा ॥ १८ ॥ भावार्थ - जिसकी संगति पाकर पवित्र भोजन, फूलमाला, वस्त्रादि पदार्थ अपवित्र होजाते हैं । वे जो क्षुधा आदि दुःखोंसे पीडित हैं व नाशवान हैं उस कामके लिये तृष्णा रखना वृथा है । इसकी रक्षा करते २ भी यह एक दिन अवश्य छूट जाता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। श्री गुणभद्राचार्य आत्मानुशासनमें कहते हैंमास्थिस्थूलतुलाकलापघटित नद्धं शिरास्न युमिश्वर्माच्छादितमस्रमान्द्रपिशितलिप्तं सुगुप्त खलैः । कर्मागतिभिरायुरुच्चनिगलालानं शरीरालयं कारागारमवेहि ते इतमते प्रतिं वृथा मा कथाः ॥ ५९॥ भावार्थ-हे निर्बुद्धि : यह शरीररूपी कैदखाना तेरे लिये धर्मरूपी दुष्ट शत्रुओंने बनाकर तुझे कैरमें डाल दिया है। यह कैदखाना हड्डियोंके मोटे समूहोंसे बनाया गया है. नशोंके जालसे बंधा गया है । रुधिर, पीप, मांससे भरा है, चमड़ेसे ढका हुमा है, मायुरूपी बेडियोंसे जकड़ा है । ऐसे शरीरमें तु वृषा मोह न कर । श्री अमृतचन्द्राचार्य तत्वार्थसारमें कहते हैंमानाकृमिशताकीर्णे दुर्गन्धे मळपुरते । मात्मनश्च परेषां च क शुचित्वं शरीरके ॥ ३६-६ ॥ भावार्थ-यह शरीर अनेक तरहके सैंकड़ों कीरोंसे मरा है। भूलसे पूर्ण है। यह अपने को व दुसरेको अपवित्र करनेवाला है, ऐसे शरीरमें कोई पवित्रता नहीं है, यह वैराग्य के योग्य है। (२) वेदना-दूसरा स्मृति-प्रस्थान यह बताया है कि मुखको मुख, दुःखको दुःस्व, असुख-अदुःखको असुख-मदुःख-जैसा इनका स्वरूप है वैसा स्मरणमें लेवे। सांसारिक सुखका भाव तब होता है जब कोई इष्ट वस्तु मिल जाती है उस समय मैं मुखी यह भाव होता है । दुःखका भाव तब होता है जब किसी अनिष्ट वस्तुका संयोग हो या इष्ट वस्तुका वियोग हो या कोई रोगादि पीड़ा हो। जब हम किसी ऐसे कामको कर रहे हैं, जहां रागद्वेष तो हैं परन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [७७ सुख या दुःखके अनुभवका विचार नहीं है, उस समय भदुःख मसुख भावका अनुभव करना चाहिये जैसे हम पत्र लिख रहे हैं, मकान साफ कर रहे हैं, पढ़ा रहे हैं। जैन शास्त्रमें कर्मफल चेतना और कर्म चेतना बताई हैं। कर्मफळ चेतनामें मैं सुखी या मैं दुःखी ऐसा भाव होता है। कर्म चेतनामें केवल राग व द्वेषपूर्वक काम करनेका भाव होता है, उस समय दुःख या सुखका भाव नहीं है । इसीको यहां पाली सूत्रमें. अदुःख असुखका अनुभव कहा है, ऐसा समझमें आता है । ज्ञानी जीव इन्द्रियजनित सुखको हेय अर्थात् त्यागने योग्य जानता है, मात्मसुखको ही सच्चा सुख जानता है । वह सुख तथा दुःखको भोगते हुए पुण्य कर्म व पाप-कर्मका फल समझकर न तो उन्मत्त होता है और न क्लेशभाव युक्त होता है। जैन सिद्धांतमें विपाकविचय धर्मध्यान बताया है कि सुख व दुःखको अनुभव करते हुए आने ही कर्मों का विपाक है ऐसा समझना चाहिये। श्री तत्वार्थसारमें कहा हैद्रव्यादिप्रत्ययं कर्म फलानुभवनं प्रति । भवति प्रणिवानं यद्विपाकवि चयस्तु सः ॥ ४२-७ ॥ भावार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काक भादिके निमित्तसे जो कर्म अपना फल देता है उस समय उसे अपने ही पूर्व किये हुए कर्मका फल अनुभव करना विपाक विचय धर्मध्यान है । इष्टोपदेशमें कहा हैवासनामात्रमेक्तत्सुख दुख च देहिनां । तथा मयत्येते मोगा रोगी इवापदि ॥६॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] दसरा माग । भावार्थ-संसारी प्राणियोंके भीतर अनादिकालकी यह वासना है कि शरीरादिमें ममता करते हैं इसलिये जब मनोज्ञ इन्द्रिय विषयकी प्राप्ति होती है तब सुख, जब इसके विरुद्ध हो तब दुःख अनुभव कर लेते हैं । परन्तु ये ही भोग जिनसे सुख मानता है मापत्तिके समय, चिन्ताके समय रोगके समय अच्छे नहीं लगते हैं। भूख प्याससे पीडित मानवको सुंदर गाना बजाना व सुंदर स्त्रीका संयोग भी दुःखदाई भासता है, अपनी कल्पनासे यह प्राणी सुखी दुःखी होजाता है । तत्वसारमें कहा है---- भुजतो कम्मफलं कुणइ ण रायं च तह य दोस वा । सो संचिय विणासइ महिणवकम्म ण बंधे ॥ ११ ॥ भुजतो कम्मफलं भाव मोहेण कुणइ सुहमसुई । जह तं पुणोवि बंधह णाणाधरणादि अट्टविहं ।। १२ ॥ भावार्थ-जो ज्ञानी कर्मों का फल सुख या दुःख भोगते हुए उनके स्वरूपको जसाका तैसा जानकर राग व द्वेष नहीं करता है वह उस संचित कर्मको नाश करता हुआ नवीन कर्मोको नहीं बांधता है, परन्तु जो कोई अज्ञानी कर्मोका फल भोगता हुमा मोहसे सुख व दुःखमें शुभ या अशुभ भाव करता है अर्थात् मैं सुखी या मैं दुःखी इस भावनामें लिप्त होजाता है वह ज्ञानावरणादि माठ प्रकाके कर्मोको बांध लेता है। श्री समन्तभद्राचाय सांसारिक सुख की भसारता बताते हैंस्वयभूस्तोत्रमें कहा हैशरहदोन्मेषचल हि सौख्यं तृष्णामयाप्यायनमात्रहेतुः । तृष्णाभिवृद्धिश्च तपस्यजसं तापस्तदायासयतीत्यवादीः ॥१३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन बौद्ध तत्वज्ञान। [७९ . भावार्थ-हे संभवनाथ स्वामी! आपने यह उपदेश दिया है कि ये इन्द्रियोंके सुल विजलीके चमत्कार के समान नाशवान हैं। इनके भोगनेसे तृष्णाका रोग बढ़ जाता है। तृष्णाकी वृद्धि निरन्तर चिंताका भाताप पैदा करती है। उस आतापसे प्राणी कष्ट पाता है। श्री रत्नकरण्डमें कहा हैकर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरित दये । पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता ॥ १२॥ भावाथ-सम्यक्दृष्टी इन्द्रियोंके सुखोंमें श्रद्धा नहीं रखता है व समझता है कि ये सुख पूर्व बांधे हुए पुण्य कर्मोके आधीन हैं, मन्त सहित हैं, इनके भीतर दुःख भरा हुआ है । तथा पाप-कर्मके बन्धके कारण हैं। श्री कुलभद्राचार्य सार समुच्चयमें कहते हैंइन्द्रियप्रभवं सौख्य सुखाभास न तत्सुखम् । तच्च कर्मविषन्धाय दुःखदानकपण्डितम् ।। ७७ ॥ भावार्थ-इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाला सुख सुखसा झलकता है परन्तु वह सच्चा सुख नहीं है। इससे कर्मों का बन्ध होता है व केवल दुःखोंको देनेमें चतुर है। शक्रचापसमा भोगाः सम दो जलदोपमाः । यौवनं जळरेखेव सर्वमेतदशाश्वतम् ॥ १५१॥ भावाय-ये भोग इन्द्रधनुष के समान चंचल ,है छूट जाते हैं, ये सम्पदाएं बादलों के समान सरक जाती हैं, यह युवानी जलमें खींची हुई रेखाके समान नाश होजाती है। ये सब मोग, सम्पत्ति व युवानी आदि क्षणभंगुर हैं व अनित्य हैं। .. ... ... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ] दूसरा माग । (३) तीसरी स्मृति यह बताई है कि चितको जैसा हो वैसा जाने । इसका भाव यह है कि ज्ञानी अपने भावोंको पहचाने। जब परिणामोंमें राग, द्वेष, मोह, आकुलता, चंचलता, दीनता हो तब वैसा जाने | उसको त्यागने योग्य जाने और जब भावोंमें राग, द्वेष, मोह न हो, निराकुल चित्त हो, स्थिर हो, व उदार हो तब वैसा जाने । वीतराग भावोंको उपादेय या ग्रहण योग्य समझे । पांचवें वस्त्र सूत्र में अनन्तानुबन्धी क्रोध आदि पचीस कषा - योंको गिनाया गया है। ज्ञानी पहचान लेता है कि कब मेरे कैसे भाव किस प्रकार के राग व द्वेषसे मलीन हैं। जो मैलको मैल व निर्मलताको निर्मक जानेगा वही मैलसे हटने व निर्मलता प्राप्त करने का यत्न करेगा। सार समुच्चय में कहते हैं - रागद्वेषम्यो जीवः कामक्रोशे यतः । लोभमोहमदाविष्टः संसारे संतरत्यसौ ॥ २४ ॥ कामक्रोवस्तथा मोsस्त्रयोऽप्येते महाद्विषः । एतेन निर्जिता यावत्तावत्सौख्यं कुतो नृणाम् ॥ २६ ॥ भावार्थ- जो जीव रागी है, द्वेषी है व काम तथा क्रोध के वश है लोभ या मोह या मदसे घिरा हुआ है वह संसार में भ्रमण करता है । काम, क्रोध, मोह या रागद्वेष मोह ये तीनों ही महान् शत्रु हैं। जो कोई इनके वशमें जबतक है तबतक मानवों को सुख कहांसे होसता है । (४) चौथी स्तुति धर्मोके सम्बन्धमें है । (१) पहली बात यह बताई है कि ज्ञानीको पांच-नीवरण दोषोंके सम्बन्धमें जानना चाहिये कि (१) कामभाव, (२) डोलाव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [८१ (३) आलस्य, (४) उद्वेग-खेद (५) संशय । ये मेरे भीतर हैं या नहीं हैं तथा यदि नहीं हैं तो किन कारणोंसे इनकी उत्पत्ति होसक्ती है। तथा यदि हैं तो उनका नाश कैसे किया जावे तथा मैं कौनसा यत्न करूं कि फिर ये पैदा न हों। आत्मोन्नतिमें ये पांच दोष बाधक हैं (२) दुसरी बात यह बताई है कि पांच उपादान स्कंधोंकी उत्पत्ति व नाशको समझता है। सारा संसारका प्रपंच नाल इनमें गर्भित है । रूपसे वेदना, वेदनास संज्ञा, संज्ञासे संस्कार, संस्कारसे विज्ञान होता है। ये सर्व अशुद्ध ज्ञान हैं जो पांच इंद्रिय और मनके कारण होते हैं । इनका नाश तत्व मननसे होता है । तत्वसारमें कहा है रूसह तूसइ णिचं इंदियविमये हि संगो मुढो । सकसामो अण्णाणी णाणी एदो दु विवरीदो ।। ३ ।। भावार्थ-अज्ञानी क्रोध, मान, माया लोभके वशीभूत होकर सदा अपनी इन्द्रियोंसे अच्छे या बुरे पदार्थोको ग्रहण करता हुआ रागद्वेष करके भाकुलित होता है। ज्ञानी इनसे अलग रहता है। बौद्ध साहित्य में इन्हीं पांच उपादान स्कंघों के क्षयको निर्वाण कहते हैं जिसका अभिप्राय जैन सिद्धांतानुसार यह है कि जितने भी विचार व अशुद्ध ज्ञानके भेद पांच इन्द्रिय व म्नके द्वारा होते हैं, उनका जब नाश हो जाता है तब इद्ध आत्मीक ज्ञान या केवलज्ञान प्रगट होता है। यह शुद्ध ज्ञान निर्वाण स्वरूप आत्माका स्वभाव है। (३) फिर बताया है कि चक्षु आदि पांच इन्द्रिय और मनसे पदार्थों का सम्बन्ध होकर जो रागद्वेषका मल उत्पन्न ोता है, उसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२. ] दूसरा भाग । जानता है कि कैसे उत्पन्न हुआ है तथा यदि वर्तमानमें इन छः विषयोंका मल नहीं है तो वह आगामी किन कारणोंसे पैदा होता हैं उनको भी जानता है तथा जो उत्पन्न मक है वह कैसे दूर हो इसको भी जानता है तथा नाश हुआ राग द्वेष फिर न पैदा हो उसके लिये क्या सम्हाल रखनी इसे भी जानता है । यह स्मृति इन्द्रिय और मनके जीतनेके लिये बड़ी ही आवश्यक है । निमियोंको बचानेसे ही इन्द्रिय सम्बन्धी राग हट सक्ता है। यदि हम नाटक, खेल, तमाशा देखेंगे, श्रृंगार पूर्ण ज्ञान सुनेंगे, अत्तर फुलेल सूंघेंगे, स्वादिष्ट भोजन रागयुक्त होकर ग्रहण करेंगे, मनोहर वस्तुओंको स्पर्श करेंगे, पूर्वरत भोगोंको मनमें स्मरण करेंगे व आगामी भोगोंकी वांछा करेंगे तब इन्द्रिय विषय सम्बन्धी राग द्वेष दूर नहीं होता । यदि विषय राग उत्पन्न होजाये तो उसे मल जानकर उसके दूर करने के लिये आत्मतत्वका विचार करे । आगामी फिर न पैदा हो इसके लिये सदा ही ध्यान, स्वाध्याय, व तत्व मनन व सत्संगति व एकांत सेवनमें लगा रहे । जिसको आत्मानन्दकी गाढ रुचि होगी वह इन्द्रिय वचन सम्बन्धी मलसे अपने को बचा सकेगा । ध्यानीको स्त्री पुरुष नपुंसक रहित एकांत स्थानके सेवनकी इसीलिये आवश्यक्ता बताई है कि इन्द्रियों के विषय सम्बन्धी मळ न पैदा हों । तत्वानुशासनम कहा है शून्य गारे गुहायां वा दिवा वा यदि वा निशि । स्त्रीपशुको जीवानां क्षुद ण मप्यगोवरे ॥ ९० ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मैनपौर तत्वज्ञान। बन्यत्र वा कचिदशे प्रशस्ते प्रामुके समे । चेतनाचेतनाशेषध्यानविघ्नविवर्जिते ॥ ९१ ॥ भूतले वा शिमपट्टे सुखासीनः स्थितोऽथवा । सममृज्वायतं गात्रं नि:कंपावयवं दबत् ॥९२ ॥ नासामन्यस्तनिष्पंदलोचनो मंदमुच्छ्वसन् । द्वात्रिंशदोपनिमुक्तकायोत्सर्गव्यवस्थितः ॥ ९३ ॥ प्रत्याहृत्याक्षलंटाकास्तदर्थेभ्यः प्रयत्नतः । चिंतां चाकृष्य सर्वेभ्यो निरुध्य ध्येयवस्तुनि ॥ ९४ ॥ निरस्तनिद्रो निर्भीतिनिरालस्यो निरंतरं । वरूपं वा पररूपं वा ध्यायेदंतविशुद्धये ॥ ९५ ॥ भावार्थ-ध्यानीको उचित है कि दिन हो या रात, सूने स्थानमें या गुफामें या किसी भी ऐसे स्थानमें बैठे जो स्त्री, पुरुष, नपुंसक या क्षुद्र जंतुओंसे रहित हो, सचित्त न हो, रमणीक, व सम भूमि हो जहाँपर किसी प्रकारके विघ्न चेतनकृत या अचेतनकृत ध्यानमें नहोसकें । जमीन पर या शिलापर सुस्वासनसे बैठे या खड़ा हो, शरीरको सीधा व निश्चल रखे, नाशाग्रदृष्टि हो, लोचन पलक रहित हो, मंद मंद श्वास माता हो, ३२ दोषरहित कामसे ममता छोड़के, इन्द्रिय रूपी लुटेरोंको उनके विषयोंकी तरफ जानेसे प्रयत्न सहित रोककर तथा चित्तको सर्वसे हटाकर एक ध्येय वस्तुमें लगावे। निन्द्राका विजयी हो, आलसी न हो, भयरहित हो। ऐसा होकर मतरन विशुद्ध भावके लिये अपने या परके स्वरूपका ध्यान करे । एकांत सेवन व तत्व मनन इन्द्रिय व मनके जीतने का उपाय है। ... (४) चौथी बात इस सत्रमें बताई है कि बोधि या परम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] दूसस माग। जानकी प्राप्तिके लिये सात बातोंकी जरूरत है। यह परमज्ञान विज्ञानसे भिन्न है, यह परमज्ञान निर्वाणका साधक व स्वयं निर्वाण रूप है। इससे साफ झलकता है कि निर्वाण मभावरूप नहीं है किंतु परमज्ञान स्वरूप है । वे सात बातें हैं-(१) स्मृति-तत्वका स्मरण निर्वाण स्वरूपका स्मरण, (२) धर्म विचय-निर्वाण साधक धर्मका विचार, (३) वीर्य-आत्मबलको व उत्साहको बढ़ाकर निर्वाणका साधन करे । (४) प्रीति-निर्वाण व निर्वाण साधनमें प्रेम हो, (५) प्रश्रब्धि-शांति हो राग द्वेष मोह हटाकर मावोंको सम रखे, (६) समाधि-ध्यानका अभ्यास करे, (७) उपेक्षा-वीतरागता-जब वीतरागता माजाती है तब स्वास्मरमण होता है । यही परम ज्ञानकी प्राप्तिका खास उपाय है। तत्वानुशासनमें कहा हैसोऽयं समरसीभावस्तदेकीकरणं स्मृतं । एतदेव समाधिः स्याल्लोकद्वयफलप्रदः ॥ १३७ ॥ किमत्र बहुनोतेन ज्ञात्वा श्रद्धाय तत्त्वतः। ध्येये समस्तमप्येतन्माध्यस्थ्यं तत्र बिभ्रता ॥ १३८ । माध्यस्थ्य समतोपेक्षा घेराग्य साम्यमस्पृहः । पैतृष्ण्यं परमः शांतिरित्येकोऽर्थोऽभिधीयते ॥ १३९ ॥ मावार्थ-जो यह समरससे भरा हुमा भाव है उसे ही एकाग्रता कहते हैं, यही समाधि है। इसीसे इस लोकमें सिद्धि व परलोकमें सिद्धि प्राप्त होती है। बहुत क्या कहे-सर्व ही ध्येय वस्तुको भले प्रकार जानकर व श्रद्धानकर ध्यावे, सर्व पर माध्यस्थ भाव रखे। माध्यस्थ, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, निस्पृहता, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८५ वृष्णा रहितता, परम भाव, शांति इत्यादि उसी समरसी भावके ही भाव हैं इन सबका प्रयोजन मात्मध्यानका सम्बन्ध है। इनमें जो धर्मविषय शब्द भाया है-ऐसा ही शब्द जैन सिद्धांतमें धर्मध्यानके भेदोंमें भाया है। देखो तत्वार्य सूत्र " मानापायविपाकसंखानविचयाय धय " ॥३६॥९ धर्मध्यान चार तरहका है (१) मज्ञाविचय-शासकी भाज्ञाके अनुसार तत्वका विचार, (२) अपाय विचय-मेरे व अन्योंके राग द्वेष मोहका नाश कैसे हो, (३) विपाक विचय-कौके पच्छे या बुरे फलको विचारना, (४) संस्थान विचय-लोकका बा अपना स्वरूप विचारना । बोधि शब्द भी जैनसिद्धांतमें इसी अर्थमें भाया है। देखो बारह भावनाओंके नाम। पहले सर्वास्तवसूत्र में कहे हैं। ११वी भावना बोधि दुर्लभ है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, गर्मित परम ज्ञान या भात्मज्ञानका काम होना बहुत दुर्लभ है ऐसी भावना करनी चाहिये। (५) पांचमी बात यह बताई है कि वह मिक्षु चार बातोंको टीकर जानता है कि दुःख क्या है, दुःखका कारण क्या है। दुःखका निरोध क्या है तथा दुःख निरोधका क्या उपाय है। . जैन सिद्धांतमें भी इसी बातको बतानेके लिये कर्मका संयोग नहातक है वहांतक दुःख है । कर्म संयोगका कारण मानव और बंध तत्व बताया है । किनर मावोंसे कर्म भाकर बंध जाते हैं, दुःखका निरोष कर्मका क्षय होकर निर्वाणका लाम है। निर्वाणका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा मांग। भोग संवर तथा निर्जरा तत्व बताया है। अर्थात् रलत्रय धर्मका साधन है जो बौद्धोंके अष्टांग मार्गसे मिल जाता है। तस्वानुशासनमें कहा है:- .. बंधो निबन्धनं चास्य हेयमित्युपदर्शितं । हेयं स्यादुःखसुखयोर्यस्मादीनमिदं द्वयं ॥ ४ ॥ मोक्षस्तत्कारण चतदुपादेयमुदाहृतं । । उपादेयं सुख यस्मादस्मादाविर्भविष्यति ॥५॥ स्युमिथ्यादर्शनज्ञान चारित्राणि समासतः । बंधस्य हेतवोऽन्यस्तु त्रयाणामेव विस्तरः ॥८॥.. ततस्त्वं बंधहेतूनां समस्तानां विनाशतः । बंधप्रणाशान्मुक्तः सम भ्रमिष्यसि संसृतौ ॥ २२ ॥ स्यात्सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रत्रितयात्मकः।। मुक्तिहेतुर्जिनोपझं निर्जरासंबरक्रियाः ॥ २४ ॥ .. भावार्थ-बंध और उसका कारण त्यागने योग्य है। क्योंकि इनहीसे त्यागने योग्य सांसारिक दुःख-सुखकी उत्पत्ति होती है। मोक्ष गौर उसका कारण उपादेय है। क्योंकि उनसे ग्रहण करने योग्य मात्मानंदकी प्राप्ति होती है। बंधके कारण संक्षेपसे मिथ्यादर्शन, मिथ्या. ज्ञान तथा मिथ्याचारित्र है। इनही तीनका विस्तार बहुत है। हे भाई ! यदि त बंधके सब कारणों का नाश कर देगा तो मुक्त होजायगा, फिर संसारमें नहीं भ्रमण करेगा। मोक्षके कारण सम्यग्दर्शन, सम्बज्ञान व सम्यक्चारित्र यह रत्नत्रय धर्म है। उन हीके सेवनसे माप्त समाधि प्राप्त होनेसे संवर व निर्जरा होती है, ऐसा जिनें. ने कहा है। इस स्मृतिप्रस्थान सूत्रके अंतमें कहा है कि जो इन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। चार स्मृति प्रस्थानोंको मनन करेगा वह अरहंत पदका साक्षात्कार करेगा । उसको सत्यकी प्राप्ति होगी, वह निर्वाणको प्राप्त करेगाव निर्वाणको साक्षात् करेगा । इन वाक्योंसे निर्वाणके पूर्वकी अवस्था जैनोंके महंत पदसे मिलती है और निर्वाणकी अवस्था सिद्ध पदसे मिलती है । जैनोंमें जीवनयुक्त परमात्माको अरहन्त कहते हैं जो सर्वज्ञ वीतराग होते हुए जन्म भग्तक धर्मोपदेश करते हैं। वे ही जब शरीर रहित व कर्म रहित मुक्त होजाते हैं तब उनको निर्वाणनाथ या सिद्ध कहते हैं। यह सूत्र बड़ा ही उपकारी है व जैन सिद्धांतसे बिलकुल मिल जाता है। . (९) मज्झिमनिकाय चूलसिंहनाद सूत्र । गौतम बुद्ध कहते हैं-भिक्षुओ होसक्ता है कि अन्य तैर्थिक ( मतवाले ) यह कहें। आयुष्मानोंको क्या माश्वास या बल है जिससे यह कहते हो कि यहां ही श्रमण हैं। ऐसा कहनेवालोंको तुम ऐसा कहना-भगवान जाननहार, देखनहार, सम्यक् सम्बुद्धने हमें चार धर्म बताए हैं। जिनको हम अपने भीतर देखते हुए ऐसा कहते हैं 'यहां ही श्रवण है। ये चार धर्म हैं-(१) हमारी शास्वामें श्रद्धा है, (२) धर्ममें श्रद्धा है, (३) शील (सदाचार में परिपूर्ण करनेवाला होना है, (४) सहधर्मी गृहस्थ और प्रवजित हमारे प्रिय हैं। हो सकता है अन्य मतानुवादी कहे कि हम भी चारों बातें मानते हैं तब क्या विशेष है। ऐसा कहनेवालोंको कहना क्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ <<] दूसरा I आपकी एक निष्ठा है या पृथक् ? वे ठीकसे उत्तर देंगे एक निष्ठा है। फिर कहना क्या यह निष्ठा सरागके सम्बन्धमें है या वीतरागके सम्बन्ध में है वे ठीक से उत्तर देंगे कि वीतरागके सम्बन्धमें है, इसी तरह पूछने पर कि वह निष्ठा क्या सद्वेष, समोह, सतृष्णा, सउपादान (ग्रहण करनेवाले), अविद्वान, विरुद्ध, या प्रपंचाराम के सम्बन्धमें है या उनके विरुद्धों में है तब वे ठीकसे विचारकर कहेंगे कि वह निष्ठा वीतद्वेष, वीतमोह, वीत तृष्णा, अनुपादान, विद्वान, अविरुद्ध, निष्प्रपंचाराममें है। भिक्षुओ ! दो तरह की दृष्टियां हैं- (१) भव (संसार) दृष्टि, (२) विभव ( असंसार ) दृष्टि । जो कोई भवदृष्टि में लीन, भदट्टष्टको प्राप्त, भवदृष्टिमें तत्पर है वह विभव दृष्टिसे विरुद्ध है। जो विभवदृष्टिमें लीन विभवदृष्टिको प्राप्त, विभवदृष्टिमें तत्पर है वह भवदृष्टि से विरुद्ध है। जो श्रमण व ब्राह्मण इन दोनों दृष्टियों के समुदय ( उत्पत्ति ), अस्तगमन, आस्वाद आदि नव ( परिणाम ), निस्सरण ( निकास ) को यथार्थ या नहीं जानते वह सराग, सद्वेष, समोह, सतृष्णा, सउपादान, अविद्वान, विरुद्ध, प्रपंचरत है । जो श्रमण इन दोनों दृष्टियोंके समुदय आदिको यथार्थतथा जानते हैं वे वीतराग, वीतद्वेष, वीतमोह, वीततृष्णा, अनुषापान, विद्वान, अविरुद्ध तथा अप्रपंच रत हैं व जन्म, जरा, मरणसे छूटे हैं। ऐसा मैं कहता हूं । भिक्षुओ ! चार उपादान हैं - (१) काम ( इन्द्रिय भोग ) उपादान, (२) दृष्टि ( धारणा ) उपादान, (३) शीलबन उपादान, (४) आत्मवाद उपादान । कोई कोई श्रमण ब्राह्मण सर्व उपादान के त्यागका मत रखनेवाले अपनेको कहते हुए भी सारे उपादान त्याग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं करते । या तो केवल काम उपादान त्याग करते हैं बाकाम और इष्ट उपादान त्याग करते हैं या काम, दृष्टि और शीलवत उपादान त्याग करते है। किंतु मातवाद उपादानको त्याग नहीं करते क्योंकि इस बातको ठीकसे नहीं जानते । भिक्षुषो! ये चारों उपादान तृष्णा निदानवाले हैं, तृष्णा समुदयवाले हैं, तृष्णा जातिवाले हैं और तृष्णा प्रभववाले हैं। तृष्णा वेदना निदानवाली है, वेदना स्पच निदानवाली है, स्पर्श षडायतन निदानवाला है। पढ़ायतन नाम-रूप निदानवाला है। नाम-रूप विज्ञान निदानवाला है। विज्ञान संस्कार निदानवाला है। संस्कार अवित्रा निदानवाले हैं। भिक्षुओ ! जब मिक्षुकी अविद्या नष्ट होजाती है और विद्या उत्पन्न होजाती है। मविद्याके विरागसे, विद्याकी उत्पत्तिसे न काम उपादान पकड़ा जाता है न दृष्टि उपादान न शीलव्रत उपादान न मात्मवाद-उपादान पकड़ा जाता है। उपादानोंको न पकड़नेसे भयभीत नहीं होता, भयभीत न होनेपर इसी शरीरसे निर्वाणको प्राप्त होजाता है "जन्म क्षीण होगया, ब्रह्मचर्यवास पूरा होगया, करना था सो कर लिया, और अब यहां कुछ करनेको नहीं है-" यह जान लेता है। नोट-इस सुत्रमें पहले चार बातोंको धर्म बताया है (१) शास्ता (देव) में श्रद्धा, (२) धर्ममें श्रद्धा, (३) शीलको पूर्ण पालना, (४) साधर्मीसे प्रीति । फिर यह बताया है कि जिसकी श्रद्धा चारों धर्मोमें होगी - उसकी श्रद्धा ऐसे शास्ता व धर्ममें होगी, जिसमें राग नहीं, द्वेष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं, मोह नहीं, तृष्णा नहीं, उपादान नहीं हो।।तथा जो विद्वान या ज्ञानपूर्ण हो, जो विरुद्ध न हो व जो प्रपंचमें रत न हो। जैन सिद्धांतमें भी शास्ता उसे ही माना है जो इस सर्व दोषोंसे रहित हो तथा जो सर्वज्ञ हो। स्वात्मरमी हो तथा धर्म भी वीतराग विज्ञान रूप आप्तरमण रूप माना है । तथा सदाचारको सहाई जान पूर्णपने पालनेकी आज्ञा है व साधर्मीसे वात्सल्यभाव रखना सिखाया है। समंतभद्राचार्य रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें कहते हैं माप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना । भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत् ॥ ५॥ क्षुत्पिपासाजरातङ्कनन्मान्तकमयस्मपाः। न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः सः प्रकीयते ॥ ६ ॥ शास्ता या आप्त वही है जो दोषोंसे रहित हो, सर्वज्ञ हो व मागमका स्वामी हो । इन गुणोंसे रहित भाप्त नहीं होसक्ता । जिसके भीतर १८ दोष नहीं हों वही आप्त है-(१) क्षुषा, (२) त्रषा, (३) जरा, (४) रोग, (५) जन्म, (६) मरण, (७) भय, (८) माश्चर्य, (९) राग, (१०) द्वेष, (११) मोह, (१२) चिंता, (१३) खेद, (१४) स्वेद (पसीना), (१५) निद्रा, (१६) मद, (१७) रति, (१८) ओक । आत्मस्वरूप ग्रंथमें कहा है रागद्वेषादयो येन जिताः कर्ममहाभटाः । कालचक्रविनिर्मुक्तः स जिनः परिकीर्तितः ॥ २१ ॥ केवबज्ञानबोधेन बुद्धिवान् स जगत्रयम् । मनन्तज्ञानसंकीर्ण त बुद्ध नमाम्यहम् ॥ ३९ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न चौद्ध तत्वज्ञान । [९१ सर्वद्वन्दविनिमुक्तं स्थानमात्मस्वभावजम् । प्राप्त परमनिर्वाण येनासो सुगतः स्मृतः॥ ४१ ॥ भावार्थ-जिसने कर्मोंमें महान योद्धः स्वरूप रागद्वेषादिको जीत लिया है व जो जन्म मरणके चक्रसे छूट गया है वह जिन कहलाता है। जिसने केवलज्ञान रूपी बोषसे तीन लोकको जान लिया व जो अनन्त ज्ञानसे पूर्ण है उस बुद्धको में नमन करता हूं। जिसने सर्व उपाधियोंसे रहित मात्मीक स्वभावसे उत्पन्न परम निर्वाणको प्राप्त कर लिया है वही सुगत कहा गया है। धर्मध्यानका स्वरूप तत्वानुशासनमें कहा हैसदृष्टिलान्वृत्तानि धर्म मेश्वग विदुः। तस्माद्यढनपेतं हि धम्य तद्धयानमभ्यधुः ॥ ११॥ आत्मन: परिणामो यो मोहक्षोभविवर्जितः। स च धर्मोपेत यत्तस्मात्तद्धर्यमित्यपि ॥ १२ ॥ भावार्थ-सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्रको धर्मके ईश्वरोंने धर्म कहा है। ऐसे धर्मका जो ध्यान है सो धर्मध्यान है । निश्चयसे मोह व क्षोभ ( रागद्वेष ) रहित जो आत्माका परिणाम है वही धर्म है, ऐसे धर्मसहित ध्यानको धर्मध्यान कहते हैं। ___आत्मा निर्वाण स्वरूप है, मोह रागद्वेष रहित है ऐसा श्रद्धान सम्यग्दर्शन है व ऐसा ज्ञान सम्यग्ज्ञान है व ऐसा ही ध्यान सम्यक्चारित्र है। तीनोंका एकीकरण आत्माका वीतरागभाव मात्मतल्लीन रूप ही धर्म है। पुरुषार्थसिदयुपायमें कहा है बद्धोद्यमेन नित्यं लब्ध्वा समयं च बोधिळामस्य । पदमवलम्ब्य मुनीनां कर्तव्यं सपदि परिपूर्णम् ॥२१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] दसरा माग। शीलवतके सम्बंधमें कहते हैं कि रत्नत्रयके लाभके समयको पाकर उद्यम करके मुनियों के पदको धारणकर शीघ्र ही चारित्रको पूर्ण पालना चाहिये। इसी ग्रन्थ में साधर्मीजनोंसे प्रेम भावको बताया हैमनवरतमहिंसायां शिवसुखक्ष्मीनिवन्धने धर्मे । सर्वेष्वपि च सधर्मिषु परमं वात्सल्यमालारम् ॥ २९ ॥ भावार्थ-धर्मात्माका कर्तव्य है कि निरंतर मोक्ष सुखकी लक्ष्मीके कारण अहिंसाधर्ममें तथा सर्व ही साधर्मीजनोंमें परम प्रेम रखना चाहिये। मागे चलके इसी सूत्रमें कहा है कि दृष्टियां दो हैं-एक संसार दृष्टि, दूसरी असंसार दृष्टि । इसीको जैन सिद्धांतमें कहा है व्यवहार दृष्टि तथा निश्चय दृष्टि । व्यवहार दृष्टि देखती है कि मशुद्ध भवस्थानोंकी ताफ लक्ष्य रखती है, निश्चय दृष्टि शुद्ध पदार्थ या निर्वाण स्वरूप भात्मापर दृष्टि रखती है। एक दूसरेसे विरोध है । संसारलीन व्यवहाराक्त होता है। निश्चय दृष्टिसे अज्ञान है, निश्चय दृष्टिवाला संसारसे उदासीन रहता है। आवश्यक्ता पडनेपर व्यवहार करता है परन्तु उसको त्यागनेयोग्य जानता है। इन दोनों दृष्टियोंको भी त्यागनेका व उनसे निकलनेका जो संकेत इस सत्रमें किया है वह निर्विकल्प समाधि या स्वानुभवकी अवस्था है । वहां साधक अपने आपमें ऐसा तल्लीन होजाता है कि वहां न व्यवहारनयका विचार है न निश्चयनयका विचार है, यही वास्तवमें निर्वाण मार्ग है। उसी स्थितिमें साधक सच्च वीतराग, शानी व विरक्त होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौध वान। [९३ जैन सिद्धांतके वाक्य इस प्रकार हैंपुरुषार्थसिदद्यपायमें कहा हैनिश्चयमिह भूतार्थ व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् । भूतार्थबोधविमुखः प्रायः सर्वोऽपि संपारः ॥५॥ भावार्थ-निश्चय दृष्टि सत्यार्थ है, व्यवहार दृष्टि अनित्यार्थ हैं क्योंकि क्षणभंगुर संसारकी तरफ है । प्रायः संसारके प्राणी सत्य पदार्थके ज्ञानसे बाहर हैं-निश्चयदृष्टिको या परमार्थदृष्टिको नहीं जानते हैं। समयसार कलशमें कहा हैएकस्य मावो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपाती। यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥३६-३॥ भावार्थ-व्यवहारनय या दृष्टि कहती है कि यह आत्माकोसे बन्धा हुआ है । निश्चय दृष्टि कहती है कि यह मात्मा कर्मोसे बंधा हुमा नहीं है । ये दोनों पक्ष भिन्न २ दो दृष्टियोंके हैं, जो कोई इन दोनों पक्षको छोड़कर स्वरूप गुप्त होजाता है उसके अनुभवमें चैतन्य चैतन्य स्वरूप ही भासता है। और भी कहा हैय एव मुक्त्वानयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता विनसन्ति नित्यं ॥ विकल्पजाळच्युतशान्तचित्तान्त एव साक्षादमृतं पियन्ति ॥२४-३॥ भावार्थ-जो कोई इन दोनों दृष्टियोंके पक्षको छोड़कर स्वस्वरूपमें गुप्त होकर नित्य ठहरते हैं, सम्यक्-समाधिको प्राप्त कर लेते हैं वे सर्व विकल्प जालोंसे छूटकर शांत मन होते हुए साक्षात् मानन्द अमृतका पान करते हैं, उनको निर्वाणका साक्षात्कार होजाता है, वे परम सुखको पाते हैं । और भी कहा है: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ ] दूसरा भाग व्यवहारविमूढदृष्टयः परमार्थ कलयन्ति नो जनाः । तुषबोध विमुग्धबुद्धयः कलयन्तीह तुषं न तन्दुरम् ॥ ४८ ॥ भावार्थ- जो व्यवहारदृष्टिमें मूढ हैं वे मानव परमार्थ सत्यको नहीं जानते हैं। जो तुषको चावक समझकर इस अज्ञानको मनमें धारते हैं वे तुषका ही अनुभव करते हैं, उनको तुष ही चावल मासता हैं । वे चावलको नहीं पासते । निर्वाणको सत्यार्थ समझना यह असं-सार दृष्टि है। समाधिशतक पूज्यपादस्वामी कहते हैंदेहान्तरगतेर्बीज देहेऽस्मिन्नात्मभावना | बीजं विदेहनिष्पत्तेरात्मन्येवात्मभावना ॥ ७४ ॥ भावार्थ - इस शरीर में या शरीर सम्बन्धी सर्व प्रकार संसगौ आपा मानना वारवार शरीर के पानेका बीज है। किंतु अपने ही 'निर्वाण स्वरूप में आपकी भावना करनी शरीरसे मुक्त होने का बीज है । व्यवहारे सुषुप्तो यः स जागत्मगोचरे । जागर्ति व्यवहारेऽस्मिन् सुषुप्तश्चात्मगोचरे ॥ ७८ ॥ आत्मानमन्तरे दृष्ट्वा दृष्ट्वा देहादिकं बहिः । तयोरन्तर विज्ञानादभ्यासादच्युतो भवेत् ॥ ७९ ॥ भावार्थ- जो व्यवहार दृष्टिमें सोया हुआ है अर्थात् व्यवहारसे उदासीन है वही आत्मा सम्बन्धी निश्चय दृष्टिसे जाग रहा है। जो व्यवहार में जागता है वह आत्माके अनुभव के लिये सोया हुआ है। अपने आत्माको निर्वाण स्वरूप भीतर देखके व देहादिकको बाहर देखके उनके भेदविज्ञानसे आपके अभ्याससे यह अविनाशी मुक्ति या निर्वाणको पाता है । आगे चलके इस सूत्र में चार उपादानों का वर्णन किया है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वान। [९: (१) काम या इन्द्रियमोग उपादान, (२) दृष्टि उपादान, (३) शीलव्रत उपादान, (१) मात्मवाद उपादान । इनका भाव यही है कि ये सब उपादान या ग्रहण सम्यक् समाधिमें बाधक हैं। काम उपादानमें साधकके भीतर किंचित् भी इन्द्रियमोगकी तृष्णा. नहीं रहनी चाहिये । दृष्टि उपादानमें न तो संसारकी तृष्णा हो न असंसारकी तृष्णा हो, समभाव रहना चाहिये । अथवा निश्चय नय. तथा व्यवहार नय किसीका भी पक्षबुद्धिमें नहीं रहना चाहिये। तब समाधि जागृत होगी। शीलव्रत उपादानमें यह बुद्धि नहीं रहनी चाहिये कि मैं सदाचारी हूं। साधुके व्रत पालता हूं, इससे निर्वाण होजायगा। यह भाचार व्यवहार धर्म है। मन, वचन, कायका वर्तन है। यह निर्वाण मार्गसे भिन्न है। इनकी तरफसे अहंकार बुद्धि नहीं रहनी चाहिये। आत्मवाद उपादानमें आत्मा सम्बन्धी विकल्प भी समाधिको बाधक है । यह भात्मा नित्य है या अनित्य है, एक है या अनेक है, शुद्ध है या अशुद्ध है, है या नहीं है। किस गुणवाला है, किस पर्यायवाला है इत्यादि आत्मा संम्बन्धी विचार समाधिके समय बाधक है। वास्तवमें आत्मा वचन गोचर नहीं है, वह तो निर्वाण स्वरूप है, अनुभव गोचर है । इन चार उपादानोंके स्यागसे ही समाधि जागृत होगी। इन चारों उपादानोंके होनेका मूल कारण सबसे अंतिम अविद्या बताया है । और कहा है कि साधक भिक्षुकी भविद्या नष्ट होजाती है, विद्या उत्पन्न होती है अर्थात् निर्वाणका स्वानुभव होता है तब वहां चारों ही उपादान नहीं रहते तब वह निर्वाणका स्वयं अनुभव करता है और ऐसा जानता है कि मैं कृतकृत्य हूं, ब्रह्मचर्य पूर्ण हूं, मेरा संसार क्षीण होगया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धांतमें स्वानुभवको निर्वाण मार्ग बताया है और वह स्वानुभव तब ही प्राप्त होगा जब सर्व विकल्पोंका या विचारोंका या दृष्टियोंका या कामवासनाओंका या अहंकारका व ममकारका त्याग होगा । निर्विकल्प समाधिका लाम ही यथार्थ मोक्षमार्ग है। जहां साधकके भावोंमें स्वात्मरसवेदनके सिवाय कुछ भी विचार नहीं है, वह माप्तत्वमें निर्वाण स्वरूप अपने मात्माको मापसे ग्रहण कर लेता है तब सब मन, वचन, कायके विकल्प छूट जाते हैं। समयसार कळशम कहा हैमन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं बिभ्रत् पृथक् वस्तुतामादानोज्झनशून्यमेतदमलं ज्ञान तथावस्थितम् । मध्यावन्तविभागमुक्तसहजस्फारप्रमाभासुरः शुद्धज्ञानघनो यथास्य महिमा नित्योदितस्तिष्ठति ॥४२॥ भावार्थ-ज्ञान ज्ञानस्वरूप होके ठहर गया, और सबसे छूटकर अपने मात्मामें निश्चल होगया, सबसे भिन्न वस्तुपनेको प्राप्त हो गया। उसे ग्रहण त्यागका विकल्प नहीं रहा, वह दोष रहित होगया तब मादि मध्य अत्तके विमागसे रहित सहज स्वभावसे प्रकाशमान होता हुआ शुद्ध ज्ञान समूहरूप महिमाका धारक यह मात्मा नित्य उदय रूप रहता है। उन्मुक्तमुन्मोच्यमशेषतस्तत्तथात्तमादेयमशेषतस्तत् । यदात्मनः संहतसर्वशक्तेः पूर्णस्य सन्धारणमात्मनोह ॥४३॥ भावार्य-जब आत्मा अपनी पूर्ण शक्तिको संकोच करके अपनेमें ही अपनी पूर्णताको धारण करता है तब जो कुछ सर्व छोड़ना था सो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वान। छूट गया तथा जो कुछ सर्व ग्रहण करना था सो ग्रहण कर लिया। भावार्थ एक निर्वाणस्वरूप मारमा रह गया, शेष सर्व उपादान रह गया। समाधिशतक पूज्यपादस्वामी कहते हैं:यत्परः प्रतिपाद्योई यत्परान प्रतिपादये। उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदहं निर्विकल्पकः ॥ १९ ॥ मावार्थ-मैं तो निर्विकल्प हूं, यह सब उन्मत्तपनेकी चेष्टा है कि मैं दुसरोंसे आत्माको समझ लूँगा या मैं दूसरोंको समझा दूँ। येनात्मनाऽनुभूयेऽहमात्मनैवात्मनात्मनि । सोऽहं न तन्न सा नासौ नको न द्वौ न वा बहुः ॥ २३ ॥ भावार्थ-निस स्वरूपसे मैं अपने ही द्वारा मानमें अपने ही समान अपनेको अनुभव करता हूं वही मैं हूं। अर्थात् अनुभवगोचर हूं । न यह नपुंसक है न स्त्री है, न पुरुष है, न एक है, न दो है, न बहुत है, पर्याप्त सह लिंग व संख्याकी कानासे बाहर है। . (१०) मज्झिमनिकाय महादुःखस्कंध सूत्र । गौतमबुद्ध कहते हैं-भिक्षुओ ! क्या है कामों ( भोगों) का भास्वाद, क्या है अदिनव ( उनका दुष्परिणाम), क्या है निस्करण (निकास) इसी तरह क्या है रूपों का तथा वेदनाओंका भास्वाद, परिणाम और निस्सरण । (१) क्या है कामोंका दुष्परिणाम- यहां कुल पुत्र जिस किसी शिल्पसे चाहे मुद्रासे या गणनासे या संख्वानसे या कृषिसे या वाणिज्यसे, गोपालनसे या वाण-मनसे या राजाकी नौरीसे या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] दूसरा भाग । किसी शिल्पसे शीत-उष्ण पीडित, डंस, मच्छर, धूप हवा व्यादिसे उत्पीड़ित, भूख प्यास से मरता आजीविका करता है। इसी जन्म में कामके हेतु यह लोक दुःखोंका पुंज है। उस कुल पुत्रको यदि इस प्रकार उद्योग करते, मेहनत करते वे भोग उत्पन्न नहीं होते (जिनको वह चाहता है तो वह शोक करता है, दुःखी होता है, चिल्लाता है, छाती पीटकर रुदन करता है, मूर्छित होता है । हाय ! मेरा प्रयत्न व्यर्थ हुआ, मेरी मिहनत निष्फल हुई, यह भी कायका दुष्परिणाम है । यदि उस कुलपुत्रको इसप्रकार उद्योग करते हुए भोग उत्पन्न होते हैं तो वह उन भोगोंकी रक्षा के लिये दुःख दौर्मनस्य झेलता है । कहीं मेरे भोग राजा न हरले, चोर न हर लेजावें, आग न दाहे, पानी न बहा लेजावे, अप्रिय दायाद न हर लेजावे | इस प्रकार रक्षा करते हुए यदि उन मोगोंको राजा आदि हर लेते हैं या किसी तरह नाश होजाता है तो वह शोक करता है। जो भी मेरा था वह भी मेरा नहीं रहा । यह भी कामोंका दुष्परिणाम है। कामके हेतु राजा भी राजाओंसे लड़ते हैं, क्षत्रिय, ब्राह्मण, गृहपति वैश्य भी परस्पर झगड़ते हैं, माता पुत्र, पिता पुत्र, भाई भाई, भाई बहिन, मित्र मित्र, परस्पर झगड़ते हैं । कलह विवाद करते, एक दूसरे पर हाथोंसे भी अाक्रमण करते, डंडोंसे व शस्त्रोंसे भी आक्रमण करते हैं । कोई वहां मृत्युको प्राप्त होते हैं, मृत्यु समान दुःखको सहते हैं। यह भी कामों का दुष्परिणाम है । कार्मोके हेतु ढाल तलवार लेकर, तीर धनुष चढ़ाकर, दोनों तरफ व्यूह रचकर संग्राम करते हैं, अनेक मरण करते हैं । यह भी कामोंका दुष्परिणाम है । . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन बौद्ध तत्वज्ञान । __ कामोंके हेतु चोर चोरी करते हैं, सेंध लगाते हैं, गांव उजाड़ डालते हैं, लोग परस्त्रीगमन भी करते हैं तब उन्हें राजा लोग पकडकर नानाप्रकार दंड देते हैं । यहांतक कि तलवारसे सिर कटवाते हैं । वे यहां मरणको प्राप्त होते हैं । मरण समान दुःख नहीं। यह भी कामोंका दुष्परिणाम है । कार्मोके हेतु-काय, वचन, मनसे दुश्चरित करते हैं। वे मरकर दुर्गतिमें, नरक में उत्पन्न होते हैं। भिक्षुमो-जन्मान्तरमें कामोंका दुष्परिणाम दुःस्वपुंज है। (२) क्या है कामोंका निस्सरण (निकास) भिक्षुओ ! कामोंसे रागका परित्याग करना कामोंका निस्सरण है। __ भिक्षुओ ! जो कोई श्रमण या ब्राह्मण कामोंके आस्वाद, कामोंके दुष्परिणाम तथा निस्सरणको यथाभूत नहीं जानते वे स्वयं कामोंको छोड़ेंगे व दूसरों को वैसी शिक्षा देंगे यह संभव नहीं । (३) क्या है भिक्षुमो ! रूपका आस्वाद ? जैसे कोई क्षत्रिय, ब्रामण, या वैश्य कन्या १५ या १६ वर्षकी, न लम्बी न ठिगनी, न मोटी न पतली, न काली परम सुन्दर हो वह अपनेको रूपवान मनुभव करती है। इसी तरह जो किसी शुभ शरीरको देखकर सुख या सोमनस्स उत्पन्न होता है यह है रूपका आस्वाद । (४) क्या है रूपका आदिनव या दुष्परिणाम-दूसरे समय उस रूपवान बहनको देखा जावे जब वह अस्सी या नव्वे वर्षकी हो, या १०० वर्षकी हो तो वह अति जीर्ण दिखाई देगी, लकड़ी लेकर चलती दिखेगी। यौवन चला गया है, दांत गिर गए हैं, बाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दूसा मामा सफेद होगए हैं। यही रूपका आदिनव है। जो पहले सुंदर थी सो अब ऐसी होगई है। फिर उसी भगिनीको देखा जाये कि वह रोगसे पौड़ित है, दुःखित है, मक मुत्रसे लिपी हुई है, दूसरोंके द्वारा उठाई जाती है, सुलाई जाती है । यह वही है जो पहले शुभ थी। यह है रूपका आदिनव । फिर उसी भगिनीको मृतक देखा जावे जो एक या दो या तीन दिनका पड़ा हुआ है। वह काक. गृद्ध, कुत्ते, शृगाल आदि प्राणियोंसे खाया जारहा है । हड्डी, मांस, नसें मादि अलगर हैं । सर मलग है, धड़ अलग है । इत्यादि दुर्दशा यह सब रूपका आदिनव या दुष्परिणाम है। (५) क्या रूपका निस्सरन-सर्व प्रकारके रूपोंसे रागका परित्याग यह है रूपका निस्सरण। जो कोई श्रमण या ब्राह्मण इसतरह रूपका आस्वाद नहीं करता है, दुष्परिणाम तथा निस्सरण पर्याय रूपसे जानता है वह अपने भी रूपको वैसा जानेगा, परके रूपको भी वैसा जानेगा। (६) क्या है बेदनाओंका आस्वाद-यहां भिक्षु कामोंसे विरहित, बुरी बातोसे विरहित सवितर्क सविचार विवेकसे उत्पन्न प्रीति और सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगता है। उस समय वह न अपनेको पीड़ित करनेका ख्याल रखता है न दुसरेको न दोनोंको, वह पीड़ा पहुंचानेसे रहित वेदनाको अनुभव करता है। फिर वही भिक्षु वितर्क और विचार शांत होनेपर भीतरी शांति और चित्तकी एकाग्रतावाले वितर्क विचार रहित प्रीति सुखबाले द्वितीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है। फिर तीसरे फिर चौथे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन वौद तत्वज्ञान । [१०१ ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । तब भिक्षु सुख और दुःखका त्यागी होता है, उपेक्षा व स्फूर्तिसे शुद्ध होता है। उस समय वह न अपनेको न दुसरेको न दोनों को पीड़ित करता है, उस समय वेदनाको वेदता है। यह है अव्यावाध वेदना भास्वाद । (७) क्या है वेदनाका दुष्परिणाम-वेदना भनित्य, दुःख और विकार स्वभाववाली है। (८) क्या है वेदनाका निस्सरण-वेदनाओंसे रागका हटाना, रागका परित्याग, इसतरह जो कोई वेदनामोंका मास्वाद नहीं करता है, उनके मादिनव व निस्सरणको यथार्थ जानता है, वह स्वयं वेदनाओंको त्यागेंगे व दुसरेको भी वैसा उपदेश करेंगे यह संभव है। नोट-इस वैराग्य पूर्ण सूत्रमें कामभोग, रूप तथा वेदनाओंसे वैराग्य बताया है तथा यह दिखलाया है कि जिस भिक्षुको इन तीनोंका राग नहीं है वही निर्वाणको अनुभव कर सत्ता है। बहुत उच्च विचार है। (९) काम विचार-काम भोगोंके आस्वादका तो सर्वको पता है इसलिये उनका वर्णन करनेकी जरूरत न समझकर काम भोगोंकी तृष्णासे व इन्द्रियोंकी इच्छासे प्रेरित होकर मानव क्या क्या खटपट करते हैं व किस तरह निराश होते हैं व तृष्णाको बढ़ाते हैं या हिंसा, चोरी भादि पाप करते हैं, राज्यदंड भोगते हैं, फिर दुःखसे मरते हैं, नर्कादि दुर्गतिमें जाते हैं, यह बात साफ साफ बताई है। जिसका भाव यही है कि प्राणी असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, सेवा इन छ: भाजीविकाका उबम करता है, वहां उसके तृष्णा मधिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....१०२] दूसरा भाग। होती है कि इच्छित धन मिले। यदि संतोषपूर्वक करे तो संताप कम हो। असंतोषपूर्वक करनेसे बहुत परिश्रम करता है। यदि सफल नहीं होता है तो महान शोक करता है। यदि सफल होगया, इच्छित धन प्राप्त कर लिया तो उस धनकी रक्षाकी चिन्ता करके दुःखित होता है। यदि कदाचित् किसी तरह जीवित रहते नाश होगया तो महान् दुःख भोगता है या आप शीघ्र मर गया तो मैं धनको भोग न सका ऐसा मानकर दुःख करता है । भोग सामग्रीके लाभके हेतु कुटुम्बी जीव परस्पर लड़ते हैं, राजालोग लड़ते हैं, युद्ध होजाते हैं, भनेक मरते हैं, महान् कष्ट उठाते हैं। उन्हीं भोगोंकी लालसासे धन एकत्र करनेके हेतु लोग झूठ बोलते, चोरी करते, डाका डालते, परस्त्री हरण करते हैं। जब वे पकड़े जाते हैं, राजाओं द्वारा भारी दंड पाते हैं, सिर तक छेदा जाता है, दुःखसे मरते हैं। इन्हीं काम भोगकी तृष्णावश मन वचन कायके सर्व ही अशुभ योग कहाते हैं जिनसे पापकर्मका बंध होता है और जीव दुर्गतिमें जाकर दुःख भोगते हैं । जो कोई काम भोगकी तृष्णाको त्याग देता है वह इन सब इस लोक सम्बन्धी तथा परलोक सम्बन्धी दुःखोंसे छूट जाता है। वह यदि गृहस्थ हो तो संतोषसे मावश्यक्तानुसार कमाता है, कम खर्च करता है, न्यायसे व्यवहार करता है। यदि धन नष्ट होजाता है तो शोक महीं करता है। न तो वह राज्यदंड भोगता है न मरकर दुर्गतिमें जाता है। क्योंकि वह भोगोंकी तृष्णासे ग्रसित नहीं है। न्यायवान धर्मात्मा है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व मुर्छासे रहित है। साधु तो पूर्ण विरक्त होते हैं। वे पांचों इन्द्रियोंकी इच्छाओंसे बिलकुल विरक्त होते हैं । निर्वा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१०३ णके अमृतमई रसके ही प्रेमी होते हैं । ऐसे ज्ञानी कामरागसे छूट जाते हैं। जैन सिद्धांतमें इन काम भोगोंकी तृष्णासे बुराईका व इनके त्यागका बहुत उपदेश है । कुछ प्रमाण नीचे दिया जाते हैं सार समुच्चयमें कुलभद्राचार्य कहते हैं वरं हालाहलं भुक्तं विष तद्भवनाशनम् ।। __न तु भोगविष भुक्तमनन्तभवदुःखदम् ॥ ७६ ॥ भावार्थ-हालाहल विषका पीना अच्छा है, क्योंकि उसी जन्मका नाश होगा, परन्तु मोगरूपी विषका भोगना अच्छा नहीं, जिन भोगोंकी तृष्णासे यहां भी बहुत दुःख सहने पड़ते हैं और पाप बांधकर परलोक में भी दुःख भोगने पड़ते हैं। अग्निना तु प्रदग्बानां शमोस्तोति यतोऽत्र वै। स्मरवन्हिप्रदग्धानां शमो नास्ति भवेष्वपि ॥ ९२॥ भावार्थ-अमिसे जलनेवालोंकी शांति तो यहां जलादिसे हो जाती है परन्तु कामकी ममिसे जो जलते हैं उनकी शांति भव भवमें नहीं होती है। दुःखानामाकरो यस्तु संसारस्य च वर्धनम् । स एव मदनो नाम नराणां स्मृतिसूदनः ॥९६ ॥ भावार्थ:-जो कई दुःखोंकी खान है, जो संसार भ्रमणको , बढ़ानेवाला है, वह कामदेव है। यह मानवोंकी स्मृतियोंको भी नाश करनेवाला है। चित्तसंदूषणः कामस्तथा सद्गतिनाशनः । सत्यध्वंसनश्चासौ कामोऽनर्थपरम्परा ॥ १.३॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ दूसरा माग । भावार्थ - कामभाव चित्तको मलीन करनेवाला है । सदाचाका नाश करनेवाला है । शुभ गतिको बिगाड़नेवाला है । कामभाव अनर्थो की संततिको चलानेवाला है । भवभव में दुःखदाई है । दोषाणामाकरः कामो गुणानां च विनाशकृत् । पापस्य च निजो बन्धुः परापदां चैव संगमः ॥ १०४ ॥ भावार्थ - यह काम दोषोंकी खान है, गुणोंको नाश करनेवाला है, पापका अपना बन्धु है, बड़ीर आपत्तियोंका संगम मिलानेवाला है। कामी त्यजति सद्वृत्तं गुरोर्वार्णी हिये तथा । गुणानां समुदायं च चेतः स्वास्थ्यं तथैव च ॥ १०७ ॥ तस्मात्कामः सदा यो मोक्षसौख्यं जिघृक्षुभिः । संसारं च परित्यक्तुं वाञ्छद्भितिसत्तमैः ॥ १०८ ॥ भावाथ - कामभाव से ग्रसित प्राणी सदाचारको, गुरुकी वाणीको, लज्जाको, गुणके समूहको तथा मनकी निश्चलताको खो देता है । इसलिये जो साधु संसारके त्यागकी इच्छा रखते हों तथा मोक्षके सुखके ग्रहणकी भावना से उत्साहित हों उनको कामका भाव सदा ही छोड़ देना चाहिये । इष्टोपदेशमें श्री पूज्यपादस्वामी कहते हैंबारम्भे ताकान्प्राप्ताव तृप्तिप्रतिपादकान् । ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं कः सेवते सुधीः ॥ १७ ॥ भावार्थ-भोगोंकी प्राप्ति करते हुए खेती आदि परिश्रम उठाते हुए बहुत क्लेश होता है, बड़ी कठिनता से भोग मिलते हैं, भोगते हुए तृप्ति नहीं होती है । जैसे २ भोग भोगे जाते हैं तृष्णाकी आम बढ़ती जाती है। फिर प्राप्त भोगोंको छोडना नहीं चाहता है। छूटते 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०५ हुए मनको बड़ी पीड़ा होती है। ऐसे भोगोंको कोई बुद्धिमान सेवन नहीं करता है । यदि गृहस्थ ज्ञानी हुआ तो मावश्यक्तानुसार अल्प भोग संतोषपूर्वक करता है-उनकी तृष्णा नहीं रखता है। आत्मानुशासनम गुणभद्राचार्य कहते हैंकट्याप्त्वा नृपतीनिषेव्य बहुशो भ्रान्तवा बनेऽम्मोनियो । किं क्लिश्नासि सुखार्थमत्र सुचिरं हा कष्टमज्ञानतः ॥ तैलं त्वं सिकता स्वयं मृगयसे वाञ्छेद् विषाजीवितुं । नन्वाशाग्रह निग्रहात्तव सुख न ज्ञातमेतत्त्वया ॥ ४२ ॥ भावाथ-खेती करके व कराके बीज बुवाकर, नाना प्रकार राजामोंकी सेवा कर, वनमें या समुद्र में धनार्थ भ्रमणकर तूने सुखके लिये अज्ञानवश दीर्घकालसे क्यों कष्ट उठाया है। हा ! तेरा कष्ट वृथा है। तू या तो वालू पेलकर तेल निकालना चाहता है या विष खाकर जीना चाहता है। इन भोगोंकी तृष्णासे तुझे सच्चा सुख नहीं मिलेगा। क्या तूने यह बात अब तक नहीं जानी है कि तुझे सुख तब ही प्राप्त होगा जब तू भाशारूपी पिशाचको वशमें कर लेगा ? दूसरी बात इस सूत्रमें रूपके नाशकी कही है। वास्तवमें यह यौवन क्षणभंगुर है, शरीरका स्वभाव गलनशील है, जीर्ण होकर कुरूप होजाता है, भीतर महा दुर्गंधमय अशुचि है। रूपको देखकर राग करना भारी अविद्या है । ज्ञानी इसके स्वरूपको विचार कर इसे पुद्गलपिंड समझकर मोहसे बचे रहते हैं। माठवें स्मृति प्रस्थान सूत्र में इसका वर्णन हो चुका है। तो भी जैन सिद्धांतके कुछ वाक्य दिये जाते हैं- .. .... ....... - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। श्री चन्द्रकृत वैराग्य मणिमालामें हैमा कुरु यौवनधनगृहगई तब काठस्तु हरिष्यति सर्व । इंद्रजालमिदमफलं हित्वा मोक्षपदं च गवेषय मत्वा ॥१८॥ नीलोत्पलदलगतजलचपलं इंदजालविद्युत्समतरलं । किं न वेत्ति संसारमसारं भ्रांत्या जानासि त्वं सारं ॥१९॥ भावाय-यह युवानीका रूप, धन, घर मादि इन्द्रजालके समान चंचल हैं व फल रहित हैं, ऐसा जानकर इनका गर्व न कर । जब मरण आयगा तब छूट जायगा ऐसा जानकर तु निर्वाणकी खोज कर। यह संसारके पदार्थ नीलकमल पत्तेपर पानीकी बुन्दके समान या इन्द्रधनुषके समान या विजलीके समान चंचल हैं। इनको तु असार क्यों नहीं देखता है। भ्रमसे तु इनको सार जान रहा है। मूलाचार भनगार भावनामें कहा हैमहिणिछण्णं णालिणिवद्धं कलिमळभरिदं किमिउळपुण्ण । मंसविलितं तयपडिछण्ण सरीरघरं तं सददमचोक्ख ॥ ८३ ॥ एदारिसे सरीरे दुग्गंधे कुणिमपूदियमचोक्खे । सरणपडणे असारे रागंण करिति सप्पुरिसा ॥ ८४ ॥ भावार्थ-यह शरीररूपी घर हड्डियोंसे बना है, नसोंसे बंधा है, मक मुत्रादिसे भरा है, कीड़ोंसे पूर्ण है, मांससे भरा है, चमड़ेसे ढका है, यह तो सदा ही अपवित्र है। ऐसे दुर्गंधित, पीपादिसे भरे अपवित्र सडने पड़ने वाले, सार रहित, इस शरीरसे सत्पुरुष राम नहीं करते हैं। तीसरी बात वेदनाके सम्बन्ध कही है। कामभोग सम्बन्धी मुख दुःख वेदनाका कथन साधारण जानकर जो ध्यान करते हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१०७. भी साताकी वेदना झलकती है उसको यहां वेदनाका आस्वाद कहा है । यह वेदना भी भनित्य है। भारमानन्दसे विलक्षण है। अतएक दुःखरूप है। विकार स्वभावरूप है। इसमें अतीन्द्रिय सुख नहीं है। इस प्रकार सर्व तरहकी वेदनाका राग त्यागना आवश्यक है। जैा सिद्धांतमें जहां सूक्ष्म वर्णन किया है वहां चेतना या वेदनाके तीन भेद किये हैं। (१) कर्मफल चेतना-कर्मोका फल सुख अथवा दुःख भोगते हुए यह भाव होना कि मैं सुखी हूं या दुःखी हूं। (२) कर्म चेतना-राग या द्वेषपूर्वक कोई शुभ या अशुभ काम करते हुए यह वेदना कि मैं अमुक काम कर रहा हूं (३) ज्ञानचेतना-ज्ञान स्वरूपकी ही वेदना या ज्ञानका आनंद लेना । इनमेंसे पहली दोको अज्ञान चेतना कहकर त्यागने योग्य कहा है। ज्ञानचेतना शुद्ध है व ग्रहणयोग्य है। श्री पंचास्तिकायमें कुंदकंदाचार्य कहते हैंकम्माणं फलमेक्को एक्को कजं तु णाण मधएको । चेदयदि जीवरासी चेदनाभावेण तिविहेण ॥ ३८ ॥ भावार्थ-कोई जीवराशिको कर्मोके सुख दुःख फलको वेदे है, कोई जीवराशि कुछ उद्यम लिये मुख दुखरूप कोंके भोगनेके निमित इष्ट अनिष्ट विकल्परूप कार्यको विशेषताके साथ वेदे है और एक जीवराशि शुद्ध ज्ञान हीको विशेषतासे वेदे हैं। इस तरह चेतना तीन प्रकार है। ये वेदनायें मुख्यतासे कौन२ वेदते हैं ?-- सम्वे खलु कम्मफलं थावरकाया तसा हि कज्ज जुदं । पाणितमदिकंता णाणं विदंति ते जीवा ॥ ३९ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.८] दूसरा भाग। भावार्थ-निश्चमसे सर्व ही स्थावर कायिक जीव-पृथ्वी, जल, मग्नि, वायु तथा वनस्पति कायिक जीव मुख्यतासे कर्मफल चेतना रखते हैं अर्थात् कर्मो का फल सुख तथा दुःख वेदते हैं । द्वेन्द्रियादि सर्व त्रसजीव कर्मफल चेतना सहित कर्म चेतनाको भी मुख्यतासे वेदते हैं तथा अतीन्द्रिय ज्ञानी ईत् आदि शुद्ध ज्ञान चेतनाको ही वेदते हैं। समयसार कलशमें कहा है ज्ञानस्य संचेतनयैव नित्यं प्रकाशते ज्ञानमतीव शुद्धं । मज्ञानसंचेतनया तु धादन् बोधस्य शुद्धिं निरुणद्धि पन्धः ॥३१॥ भावार्थ-ज्ञानके अनुभवसे ही ज्ञान निरन्तर अत्यन्त शुद्ध झलकता है। अज्ञानके अनुभवसे बंध दौड़कर आता है और ज्ञानकी शुद्धिको रोकता है । भावार्थ-शुद्ध ज्ञानका वेदन ही हितकारी है । (११) मज्झिमनिकाय चूल दुःख स्कंध सूत्र । __एक दफे एक महानाम शाक्य गौतम बुद्धके पास गया और कहने लगा-बहुत समयसे मैं भगवानके उपदिष्ट धर्मको इस प्रकार जानता हूं । लोभ चित्तका उपक्लेश (मक ) है, द्वेष चित्तका उपक्लेश है, मोह चित्तका उपक्लेश है, तौ भी एक समय लोभवाले धर्म मेरे चित्तको चिपट रहते हैं तब मुझे ऐसा होता है कि कौनसा धर्म ( वात ) मेरे भीतर ( मध्यात्म ) से नहीं छूटा है। बुद्ध कहते हैं-वही धर्म तेरे भीतरसे नहीं छूटा जिससे एक समय लोभधर्म तेरे चित्तको चिपट रहते हैं। हे महानाम ! यदि वह धर्म भीतर से छूटा हुआ होता तौ तु घरमें वास न करता, कामोप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञानः । [ १०९ भोग न करता । चूंकि वह धर्म तेरे भीतर से नहीं छूटा इसलिये तू गृहस्थ है, कामोपभोग करता है। ये कामभोग अप्रसन्न करनेवाले, बहुत दुःख देनेवाले, बहुत उवायास ( कष्ट ) देनेवाले हैं । इनमें आदिनव ( दुष्परिणाम ) बहुत हैं । जब सार्य श्रावक यथार्थतः अच्छी तरह जानकर इसे देख लेता है, तो वह कार्मोसे अलग, अकुशल धर्मोसे पृथक् हो, प्रीतिसुख या उनसे भी शांततर सुख पाता है। तब वह कामोंकी ओर न फिरनेवाला होता है। मुझे भी सम्बोधि प्राप्ति के पूर्व ये काम होते थे । इनमें दुष्परिणाम बहुत हैं ऐसा जानते हुए भी मैं कार्मोसे अलग शांततर सुख नहीं पासका । जब मैंने उससे भी शांततर सुख पाया तब मैंने अपनेको कामों की ओर न फिरनेवाला जाना | क्या है कामका आस्वाद - ये पांच काम गुण हैं (१) इष्टमनोज्ञ चक्षु से जाननेयोग्य रूप, (२) इष्ट- मनोज्ञ श्रोत्र से जाननेयोग्य शब्द, (३) इष्ट- मनोज्ञ घ्राणविज्ञेय गंध, (४) इष्ट - मनोज्ञ जिल्हा विज्ञेय रस, (५) इष्ट - मनोज्ञ कायविज्ञेय स्पर्श । इन पांच काम गुणोंके कारण जो सुख या सौमनस्य उत्पन्न होता है यही कामका आस्वाद है । कामका आदिनव इसके पहले अध्यायमें कहा जाचुका है। इस सूत्र में निर्ग्रथ (जैन) साधुओंसे गौतमका वार्तालाप दिया है उसको अनावश्यक समझकर यहां न देकर उसका सार यह है । परस्पर यह प्रश्न हुआ कि राजा श्रेणिक बिम्बसार अधिक सुख विहारी है या गौतम ? तब यह वार्तालापका सार हुआ कि राजा मगध श्रेणिक बिम्बसारसे गौतम ही अधिक सुख-विहारी है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा माण। ११.] नोट-इस सूत्रका सार यह है कि राग द्वेष मोह ही दुःखके कारण हैं। उनकी उत्पत्तिके हेतु पांच इन्द्रियों के विषयोंकी लालसा है। इन्द्रिय भोग योग्य पदार्थोका संग्रह अर्थात् परिग्रहका सम्बन्ध जहांतक है वहांतक राग द्वेष मोहका दुर होना कठिन है । परिग्रह ही सर्व सांसारिक कष्टोंकी भूमि है। जैन सिद्धांतमें बताया है कि पहले तो सम्यग्दृष्टी होकर यह बात अच्छी तरह जान लेनी चाहिये कि विषयभोगोंसे सच्चा सुख नहीं प्राप्त होता है-सुखमा दिखता है परन्तु सुख नहीं है । अतीन्द्रिय सुख जो अपना स्वभाव है वही सच्चा सुख है। करोड़ों जन्मोंमें इस जीवने पांच इन्द्रियोंके सुख भोगे हैं परन्तु यह कभी तृप्त नहीं होसका। ऐसी श्रद्धा होजानेपर फिर यह सम्यग्दृष्टी उसी समय तक गृहस्थमें रहता है जबतक भीतरसे पूरा वैराग्य नहीं हुमा । घरमें रहता हुमा भी वह अति लोभसे विरक्त होकर न्यायपूर्वक व संतोषपूर्वक आवश्यक इन्द्रिय भोग करता है तब वह अपनेको उस अवस्थासे बहुत अधिक सुख शांतिका भोगनेवाला पाता है। जब वह मिथ्यादृष्टी था तो भी गृहवासकी आकुलतासे वह बच नहीं सक्ता । उसकी निरन्तर भावना यही रहती है कि कब पूर्ण वैराग्य हो कि कब गृहवास छोड़कर साधु हो परम सुख शांतिका स्वाद लूं । जब समय बाजाता है तब वह परिग्रह त्यागकर साधु होजाता है । जैनोंमें वर्तमान युगके चौवीस महापुरुष तीर्थकर होगए हैं, जो एक दुसरेके बहुत पीछे हुए। ये सब राज्यवंशी क्षत्रिय थे, जन्मसे भात्मज्ञानी थे। इनमें से बारहवें वासपूज्य, उन्नीसवें मल्लि, बाईसवें नेमि, तेईसवें पार्श्वनाथ, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१११ चौवीसवें महावीर या निग्रन्थनाथपुत्रने कुमारवयमें-राज्य किये विना ही गृहवास छोड दीक्षा ली व साधु हो आत्मध्यान करके मुक्ति प्राप्त की। शेष-१ ऋषभ, २ मजित, ३ संभव, ४ अभिनंदन, ५ सुमति, ६ पद्मप्रभ, ७ सुपार्श्व, ८ चंद्रप्रभु, ९ पुष्पदंत, १० सीतल, ११ श्रेयांश, १३ विमल, १४ अनंत, १५ धर्म, १६ शांति, १७ कुंथु, १८ भरह, २० मुनिसुव्रत, २१ नमि इस तरह १९ तीथैकरोने दीर्घकालतक राज्य किया, गृहस्थके योग्य कामभोग भोगे, पश्चात् अधिक वय होनेपर गृहत्याग निग्रंथ होकर मात्मध्यान करके परम सुख पाया व निर्वाण पद प्राप्त कर लिया । इसलिये परिग्रहके त्याग करनेसे ही लालसा छूटती है । पर वस्तुका सम्बन्ध लोभका कारण होता है। यदि १०) भी पास है तो उनकी रक्षाका लोम है, न खर्च होनेका लोम है। यदि गिर जाय तो शोक होता है। जहां किसी वस्तुकी चाह नहीं, तृष्णा नहीं, राग नहीं वहां ही सच्चा सुख भीतरसे झलक जाता है। इसलिये इस सूत्रका तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय भोग त्यागने योग्य हैं, दुःखके मूल हैं, ऐसी श्रद्धा रखके घरमें वैराग्य युक्त रहो । जब प्रत्याख्यानावरण कषाय ( जो मुनिके संयमको रोकती है ) का उपशम होजावे तब गृहत्याग साधुके अध्यात्मीक शांति और सुखमें विहार करना चाहिये। तत्वाथसूत्र में अध्यायमें कहा है कि परिग्रह त्यागके लिये पांच भावनाएं मानी चाहिये: मनोज्ञामनोज्ञे न्द्रयविषयरागद्वेषर्वजनानि पञ्च ॥ ८ ॥ . भावार्थ-इष्ट तथा मनिष्ट पांचों इन्द्रियों के विषयों में या पदार्थोमें रागद्वेष नहीं रखना, मावश्यक्तानुसार समभावसे भोजनपान कर लेना। .... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ __ " मूर्छ परिग्रहः ॥ १७ ॥ पर पदार्थोमे ममत्व भाव ही परिग्रह है। बाहरी पदार्थ ममत्व भावके कारण हैं इसलिये गृहस्थी प्रमाण करता है, साधु त्याग करता है । वे दश प्रकारके हैं।"क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्पप्रमाणातिकमा:" ॥२९॥ (१) क्षेत्र (भमि), (२) वास्तु (मकान), (३) हिरण्य (चांदी), (४) सुवर्ण (सोना जवाहरात), ५ धन (गो, भेंस, घोड़े, हाथी), ६ धान्य (अनाज), ७ दासी, ८ दास, ९ कुप्य (कपड़े), १० मांड (वर्तन) ___"अगार्यनगारश्च" । १९ । व्रती दो तरहके हैं-गृहस्थी (सागार) व गृहत्यागी (अनगार)। ___ "हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् ॥१॥ " देशसवतोऽगुमहती" ॥२॥ "अणुक्तोऽगारी ॥ २० ॥ भावार्थ-हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील (अब्रह्मा तथा परिग्रह, इनसे विरक्त होना व्रत है । इन पापोंको एकदेश शक्तिके अनुसार त्यागनेवाला अणुव्रती है। इनको सर्वदेश पूर्ण त्यागनेवाला महाव्रती है । अणुव्रती सागार है, महाव्रती अनगार है । अतएव अणुव्रती मल्ल सुखशांतिका भोगी है, महाव्रती महान सुखशांतिका भोगी है। श्री समंतभद्राचार्य रत्नकरण्डश्रावकाचारमें कहते हैंमोहति मापहरणे दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः । रागद्वेषनिवृत्त्यै चरणं प्रतिपद्यते साधुः ॥ ४७ ॥ भावार्थ-मिथ्यात्वके अंधकारके दूर हो जानेपर जब सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्ज्ञानका लाम होजावे तब साधु राग द्वेषके हटाने के लिये चारित्रको पालते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्त्वज्ञान | रागद्वेषनिवृत्तेहिंसादिनिवर्तना कृता भवति । अनपेक्षितार्थवृत्तिः कः पुरुषः सेवते नृपतीन् ॥ ४८ ॥ भावार्थ - राग द्वेष छूटने से हिंसादि पाप छूट जाते हैं । जैसे जिसको धन प्राप्तिकी इच्छा नहीं है वह कौन पुरुष है जो राजाकी सेवा करेगा | ११२ हिंसानृतचभ्यो मैथुनसेवा परिग्रहाभ्यां च । पापप्रणालिकाम्यो विरतिः संज्ञस्य चारित्रम् ॥ १९ ॥ भावार्थ- पाप कर्मको लानेवाली मोरी पांच हैं-हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुनसेवा तथा परिग्रह । इससे विरक्त होना ही सम्यग्ज्ञानीका चारित्र है । सकलं विकलं चरणं तत्सकलं सर्वसङ्गविरतानाम् । अनगाराणां विकलं सागाराणां ससङ्गानाम् ॥ ९० ॥ भावार्थ:- चारित्र दो तरहका है - पूर्ण (मल) अपूर्ण (विकल) जो सर्व परिग्रह के त्यागी गृहरहित साधु हैं वे पूर्ण चारित्र पाळते हैं। जो गृहस्थ परिग्रह सहित हैं वे अपूर्ण चारित्र पाळते हैं । कषायैरिन्द्रियै दुष्टे कुळी क्रियते मना । ततः कर्तुं न शक्नोति भावना गृहमेधिनी ॥ भावार्थ- गृहस्थीका मन क्रोधादि कषाय तथा दुष्ट पांचों इन्द्रियोंकी इच्छाएं इनमे व्याकुल रहता है। इससे गृहस्थी आत्माकी भावना ( भले प्रकार पूर्णरूप से ) नहीं वर सक्ता है । श्री कुंदकुंदाचार्य प्रवचन लार में कहते हैं जेसि विसयेसु रदी तेसिं दुःखं वियाण रुम्मावं | जदितं ण हि सम्भावं वावारोणत्थि विसयत्थं ॥ ६४-१ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] दूसरा भाग। भावार्थ-जिनकी इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रीति है उनको स्वाभाविक दुःख जानो । जो पीड़ा या भाकुलता न हो तो विषयों के भोगका व्यापार नहीं दोसक्ता । ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहि विसयसौख्याणि । इच्छंति अणुइवंति य आमरण दुक्खसंतत्ता ॥ ७९ ॥ भावार्थ-संसारी प्राणी तृष्णाके वशीभूत होकर तृष्णाकी दाहसे दुःखी हो इन्द्रियों के विषयसुखोंकी इच्छा करते रहते हैं और दुखोंसे संतापित होते हुए मरण पर्यंत भोगते रहते हैं ( परन्तु तृप्ति नहीं पाते )। स्वामी मोक्षपाहुड़में कहते हैंताम ण णजह अप्पा विसएसु णरो पवट्टर जाम । विसए वित्तचित्तो जोई जाणे माणं ॥ ६६ ॥ जे पुण (वसयवित्ता पप्या णाऊण भावणासहिया। ठंडंति चाउरंग तवगुणजुत्ता ण संदेहो ॥ ६८ ॥ भावार्थ-जबतक यह नर इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति करता है तबतक यह आत्माको नहीं जानता है। जो योगी विषयोंसे विरक्त है वही आत्माको यथार्थ जानता है। जो कोई विषयोंसे विरक्त होकर उत्तम भावना के साथ आत्माको जानते हैं तथा साधुके तप व मूलगुण पालते हैं वे अवश्य चार गति रूप संसारमें छूट जाते हैं इसमें संदेह नहीं। श्री शिवकोटि आचार्य भगवतीआराधनामें कहते हैंअप्पायत्ता अजह पर दी मोगरमणं परायत्त । भोगरदीए चइदो होदि ण अप्परमणेग ॥ १२७० ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ११५ भोगरदीए णासो नियदो विग्वा य होति यदिवडुगा । परदीप सुभाविदाए ण णासो ण विग्धो वा ॥ १२७१ ॥ णचा दुरंतमदुव मचाणमतप्पयं व्यविस्सामं । भोगसुई तो तझा विरदो मोक्खे मदि कुज्जा ॥ १२८३॥ भावार्थ - अध्यात्म में रति स्वाधीन है, भोगों में रति पराधीन है भोगों से तो छूटना पड़ता है, अध्यात्म रतिमें स्थिर रह सक्ता है । भोमोंका सुख नाश सहित है व अनेक विघ्नोंसे भरा हुआ है । परन्तु मलेप्रकार भाया हुआ आत्मसुख नाश और विघ्नसे रहित है । इन इन्द्रियोंके भोगोंको दुःखरूपी फल देनेवाले, अथिर, अशरण, अतृप्तिके कर्ता तथा विश्राम रहित जानकर इनसे विरक्त हो, मोक्ष के लिये भक्ति करनी चाहिये । (१२) मज्झिमनिकाय अनुमानसूत्र । एक दफे महा मौद्गलायन बौद्ध भिक्षुने भिक्षुओंसे कहा :चाहे भिक्षु यह कहता भी हो कि मैं आयुष्मानों ( महान भिक्षु ) के वचन ( दोष दिखानेवाले शब्द) का पात्र हूं, किन्तु यदि वह दुर्वचनी है, दुर्वचन पैदा करनेवाले धर्मोंसे युक्त है और अनुशासन (शिक्षा) ग्रहण करने में अक्षत्र और अप्रदक्षिणा ग्राही ( उत्साह र हित ) है तो फिर सब्रह्मचारी न तो उसे शिक्षाका पात्र मानते हैं, न अनुशासनीय मानते हैं न उस व्यक्तिमें विश्वास करना उचित मानते हैं । दुर्वचन पैदा करनेवाले धर्म - (१) पापकारी इच्छाओंके वशीभूत होना, (२) क्रोधके वश होना, (३) क्रोधके हेतु ढोंग करना, (४) क्रोधके हेतु डाह करना, (५) कोषपूर्ण वाणी कहना, (६) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ] दूसरा माग । दोष दिखलानेपर दोष दिखलानेवालेकी तरफ हिंसक भाव करना, (७) दोष दिखलानेवालेपर क्रोध करना, (८) दोष दिखलानेवालेपर उल्टा आरोप कहना, (९) दोष दिखलानेवाले के साथ दूसरी दूसरी बात करना, बातको प्रकरणसे बाहर के जाता है, क्रोध, द्वेष, अप्रत्यय ( नाराजगी) उत्पन्न कराता है । (१०) दोष दिखलानेवालेका साथ छोड़ देना, (११) अमरखी होना, (१२) निष्ठुर होना, (१३) इर्षालु व मत्सरी होना, (१४) शठ व मायावी होना, (१५) जड़ और अतिमानी होना, (१६) तुरन्त लाभ चाहनेवाला, हठी व न त्यागनेवाला होना । इसके विरुद्ध जो भिक्षु सुवचनी है वह सुवचन पैदा करनेवाले धर्मों से युक्त होता है, जो ऊपर लिखे १६ से विरक्त हैं । वह मनुशासन ग्रहण करने में समर्थ होता है, उत्साहसे ग्रहण करनेवाला होता है। सब्रह्मचारी उसे शिक्षाका पात्र मानते हैं, अनुशासनीय मानते हैं, उसमें विश्वास उत्पन्न करना उचित समझते हैं । भिक्षुको उचित है कि वह अपने हीमे अपनेको इस प्रकार समझावे । जो व्यक्ति पापेच्छ है, पापपूर्ण इच्छाओंके वशीभूत है, वह पुद्गक (व्यक्ति) मुझे मप्रिय लगता है, तब यदि मैं भी पापेच्छ या पापपूर्ण इच्छाओंके वशीभूत हूंगा तो मैं भी दूसरोंको अप्रिय हूंगा । ऐसा जानकर भिक्षुको मन ऐसा दृढ़ करना चाहिये कि मैं पापेच्छ नहीं हूंगा । इसी तरह ऊपर लिखे हुए १६ दोषोंके सम्बधर्मे विचार कर अपनेको इनसे रहित करना चाहिये । भावार्थ - यह है कि भिक्षुको अपने आप इस प्रकार परीक्षण करना चाहिये। क्या मैं पापके वशीभूत हूं, क्या मैं क्रोधी हूं। इसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन बौद तत्वज्ञान। [११७ बरह क्या मैं ऊपर लिखित दोषोंके वशीभूत है। यदि वह देखे कि वह पापके वशीभूत है या क्रोधके वशीभूत है या अन्य दोषके वशीभूत है तो उस भिक्षुको उन बुरे अकुशल धर्मोके परित्यागके लिये उद्योग करना चाहिये । यदि वह देखे कि उसमें ये दोष नहीं हैं तो उस भिक्षुको प्रामोघ (खुशी ) के साथ रातदिन कुशल धर्मोको सीखते विहार करना चाहिये ।। जैसे दहर (मल्पायु युवक) युवा शौकीन स्त्री या पुरुष परिशुद्ध उज्वल पादर्श (दर्पण) या स्वच्छ जलपात्र में अपने मुखके प्रतिविम्बको देखते हुए, यदि वहां रज (मैल) या अंगण (दोष)को देखता है तो उस रज या अंगणके दूर करनेकी कोशिश करता है। यदि वहां रज या अंगण नहीं देखता है तो उसीसे संतुष्ट होता है कि महो मेरा मुख परिशुद्ध है। इसी तरह भिक्षु अपनेको देखे । मदि भकुशल धर्मोको अनहीण देखे तो उसे उन अकुशल धोके नाशके लिये प्रयत्न करना चाहिये। यदि इन अकुशल पोको पहीण देखे तो उसे प्रीति व प्रामोषके साथ रातदिन कुशल धोको सीखते हुए विहार करना चाहिये । नोट- इस सूत्रमें मिक्षुओंको यह शिक्षा दी गई है कि वे अपने भावोंको दोषोंसे मुक्त करें। उन्हें शुद्ध भावसे अपने भावोंकी शुद्धतापर स्वयं ही ध्यान देना चाहिये । जैसे अपने मुखको सदा स्वच्छ रखनेकी इच्छा करनेवाला मानव दर्पणमें मुखको देखता रहता है, यदि जरा भी मैल पाता है तो तुरत मुखको कमालसे पोछकर साफ कर लेता है। यदि मधिक मैक देखता है तो पानीसे धोकर साफ करता है। इसीतरह साधुको अपने भाप अपने दोषोंकी जांच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] दूसरा भाग। करनी चाहिये। यदि अपने भीतर दोष दीखें तो उनको दुर करनेका पुरा उद्योग करना चाहिये। यदि दोष न दीखें तो प्रसन्न होकर भागामी दोष न पैदा हों इस बातका प्रयत्न रखना चाहिये । यह प्रयत्न सत्संगति और शास्त्रोंका अभ्यास है। भिक्षुको बहुत करके गुरुके साथ या दूसरे साधुके साथ रहना चाहिये । यदि कोई दोष अपनेमें हो और अपनेको वह दोष न दिखलाई पड़ता हो भौर दुसरा दोषको बता दे तो उसपर बहुत संतोष मानना चाहिये । उसको धन्यवाद देना चाहिये । कभी भी दोष दिहलानेवाले पर क्रोध या द्वेषभाव नहीं करना चाहिये । जैसे किसीको अपने मुखपर मैलका धब्बा न दीखे मोर दुसरा मित्र बता दें तो वह मित्र उसपर नाराज न होकर तुर्त अपने मुखके मैलको दूर कर देता है । इसीतरह जो सरल भावसे मोक्षमार्गका साधन करते हैं वे दोषों के बतानेवाले पर संतुष्ट होकर अपने दोषोंको दूर करनेका उद्योग करते हैं। यदि कोई साधु अपने में बड़ा दोष पाते हैं तो अपने गुरुसे एकांतमें निवेदन करते हैं और जो कुछ दंड वे देते हैं उसको बड़े आनन्दसे स्वीकार करते हैं। जैन सिद्धांतमें पचीस कषाय बताए हैं, जिनके नाम पहले कहे जा चुके हैं। इन क्रोध, मान, माया लोभादिके वशीभूत हो मानसिक, वाचिक, व कायिक दोषोंका होजाना सम्भव है । इस लिये साधु नित्य सबेरे व संध्याको प्रतिक्रमण ( पश्चाताप ) करते हैं व भागामी दोष न हो इसके लिये प्रत्याख्यान (त्याग)की भावना भाते हैं। साधुके भावोंकी शुद्धताको ही साधुपद समझना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ ११९ समभाव या शांतभाव मोक्ष साधक है, रागद्वेष मोहभाव मोक्ष मार्गमें बाधक है । ऐसा समझ कर अपने भावोंकी शुद्धिका सदा प्रयत्न करना चाहिये । श्री कुळभद्राचार्य सार समुच्चय में कहते हैं— यथा च जायते चेतः सम्यक्छुद्धिं सुनिर्मलाम् । तथा ज्ञानविदा कार्य प्रयत्नेनापि भूरिणा ॥ १६९॥ भावार्थ - जिस तरह यह मन मले प्रकार शुद्धिको या निर्मलताको धारण करे उसी तरह ज्ञानीको बहुत प्रयत्न करके आचरण करना चाहिये । विशुद्धं मानसं यस्य रागादिमवर्जितम् | संसाराग्र्यं फलं तस्य सकलं समुपस्थितम् ॥ १६२॥ भावाथ - जिसका मन रागादि मैलसे रहित शुद्ध है उसीको इस जगत में मुख्य फळ सफलता से प्राप्त हुआ है । विशुद्धपरिणामेन शान्तिर्भवति सर्वतः । संक्किष्टेन तु चित्तेन नास्ति शान्तिवेष्वपि ॥ १७२ ॥ भावार्थ - निर्मल भावोंके होनेसे सर्व तरफसे शांति रहती है परन्तु क्रोधादिसे- दुःखित परिणामोंसे भवभवमें भी शांति नहीं मिळ सक्ती । संक्लिष्टचेतसां पुंसां माया संसारवर्धिनी । विशुद्धचेतसां वृत्तिः सम्पत्तिवित्तदायिनी ॥ १७३॥ भावार्थ- संक्लेश परिणामधारी मानवोंकी बुद्धि संसारको बढ़ानेवाली होती है, परन्तु निर्मल भावधारी पुरुषोंका वर्तन सम्यग्दर्शनरूपी धनको देनेवाला है, मोक्षकी तरफ लेजानेवाला है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२.1 परोऽप्युत्पथमापन्नो निषेधु युक्त एव सः । किं पुनः स्वमनोत्यर्थं विषयोत्पथयायिषत् ॥ १७५ ॥ भावार्थ- दूसरा कोई कुमार्गगामी होगया हो तो भी उसे मनाही करना चाहिये, यह तो ठीक है परन्तु विषयोंके कुमार्गमे जाने वाले अपने मनको अतिशयरूप क्यों नहीं रोकना चाहिये ? अवश्य रोकना चाहिये । भज्ञानाद्यदि मोहाद्यत्कृतं कर्म सुकुत्सितम् । ब्यावर्तयेन्मनस्तस्मात् पुनस्तन्न समाचरेत् ॥ १७६ ॥ भावार्थ-यदि अज्ञानके वशीभूत होकर या मोहके माधीन होकर जो कोई अशुभ काम किया गया हो उससे मनको हटा लेवे फिर उस कामको नहीं करे। धर्मस्य संचये यत्नं कर्मणां च परिक्षये । साधूनां चेष्टित चित्तं सर्वपापप्रणाशनम् ॥ १९३ ॥ भावार्थ-साधुओंका उद्योग धर्मके संग्रह करनेमें तथा कर्मों के क्षय करने में होता है तथा उनका चित्त ऐसे चारित्रके पालनमें होता है जिससे सर्व पापोंका नाश होजावे । साधकको नित्य प्रति अपने दोषोंको विचार कर अपने भावोंको निर्मल करना चाहिये। श्री अमितगति भाचार्य सामायिक पाठमें कहते हैंएकेन्द्रियाद्या यदि देव देहिन : प्रमादतः संचरता इतस्ततः । क्षता विभिन्ना मिलिता निपीडिता तदस्तु मिथ्या दुग्नुष्ठितं तदा ॥५॥ भावार्थ-हे देव ! प्रमादसे इधर उधर चलते हुए एकेन्द्रिय मादि प्राणी यदि मेरे द्वारा नाश किये गये हों, जुदे किये गए हों, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ मिला दिये गए हों, दुःखित किये गए हों तो यह मेरा अयोग्य कार्य मिथ्या हो । अर्थात् मैं इस भूलको स्वीकार करता है। विमुक्तिमार्गप्रतिकूलपतिना भया कषायाक्षवशेन दुधिया । चारित्रशुद्धर्यदकारिलोपनं तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृतं प्रमो ॥ ६॥ ___ भावार्थ-मोक्षमार्गसे विरुद्ध चलकर, क्रोधादि कषाय व पांचों इन्द्रियोंके वशीभूत होकर मुझ दुर्बुद्धिने जो चारित्रमें दोष लगाया हो वह मेरा मिथ्या कार्य मिथ्या हो अर्थात् मैं अपनी भूलको स्वीकार करता हूं। विनिन्दनालोचनगईणरई, मनोवचःकायकषायनिर्मितम् । निहन्मि पापं भवदुःखकारण भिषगविष मंत्रगुणैरिवाखिलं ॥ ७॥ भावार्थ-जैसे वैद्य सर्पके सर्व विषको मंत्रोंको पढ़कर दुर कर देता है वैसे ही मैं मन, वचन, काय तथा क्रोधादि कषायोंके द्वारा किये गए पापोंको अपनी निन्दा, गर्दा, मालोचना आदिसे दुर करता हूं, प्रायश्चित्त लेकर भी उस पापको धोता हूं। (१३) मज्झिमनिकाय चेतोखिलसूत्र। गौतमबुद्ध कहते हैं-भिक्षुओ! जिस किसी भिक्षुके पांच चेतोखिल (चित्तके कील ) नष्ट नहीं हुए, ये पांचों उसके चित्तमें वद्ध हैं, छिन्ना नहीं हैं, वह इस धर्म विषयमें वृद्धिको प्राप्त होगा यह संभव नहीं है। पांच चेतोखिक-(१) शास्ता, (२) धर्म, (३) संघ, (४) शील, इन चारमें संदेह युक्त होता है, इनमें श्रद्धाल नहीं होता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ] दुसरा भाग - इसलिये उसका चित्त तीव्र उद्योगके लिये नहीं झुकता । चार चेतोखिल तो ये हैं (५) सब्रह्मचारियोंके विषयमें कुपित, असंतुष्ट, दुषितचित होता है इसलिये उसका चित्त तीव्र उद्योग के लिये नहीं झुकता; ये पांच चेतोखिल हैं । इसी तरह जिस किसी भिक्षुके पांच चिचबंधन नहीं कटे होते हैं वह धर्म विनयमें वृद्धिको नहीं प्राप्त हो सकता । 1 पांच चितबंधन - (१) कामों ( कामभोगों) में अवीतराग, अबीतप्रेम, अविगत पिपास, अविगत परिदाह, अविगत तृष्णा रखना, (२) कायर्षे तृष्णा रखना, (३) रूपमें तृष्णा रखना ये तीन चितबंधन हैं, (४) यथेच्छ उदरभर भोजन करके शय्या सुख, स्पर्श सुख, आलस्य सुखमें फंसा रहना यह चौथा है, (५) किसी देवनिकाय देवयोनिका प्रणिधान ( दृढ़ कामना) रखके ब्रह्मचर्य आचरण करता है । इस शील, व्रत, तप, या ब्रह्मचर्य से मैं देवता या देवता में से कोई होऊं यह पांचमां चित्त बंधन है । इसके विरुद्ध - जिस किसी भिक्षुके ऊपर लिखित पांच चेतो. खिल प्रहीण हैं, पांच चित्तबन्धन समुच्छिन्न हैं, वह इस धर्ममें वृद्धिको प्राप्त होगा यह संभव है । ऐसा भिक्षु (१) छन्दसमाधि प्रधान संस्कार युक्त ऋद्धिवादकी भावना करता है, (२) वीर्यसमाधि प्रधान संस्कार युक्त ऋद्धिपादकी भावना करता है, (३) चित्तसमाधि प्रधान संस्कार युक्त ऋद्धिपादकी भावना करता है, (४) इंद्रियसमाधि प्रधान संस्कार युक्त ऋद्धिपादकी भावना करता है, (५) विमर्श (उत्साह) समाधि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat - www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१२३ प्रधान संस्कार युक्त ऋद्धिपादकी भावना करता है। ऐसा भिक्षु निर्वेद (वैराग्य ) के योग्य है, संवोधि ( परमज्ञान ) के योग्य है, सर्वोत्तम योगक्षेम (निर्वाण ) की प्राप्तिके लिये योग्य है। __ जैसे माठ, दस या बारह मुर्गीके अँडे हों, ये मुर्गीद्वारा भलेप्रकार सेये, परिस्वेदित, परिभावित हों, चाहे मुर्गीकी इच्छा न भी हो कि मेरे बच्चे स्वस्तिपूर्वक निकल भावें तौमी वे बच्चे स्वस्तिपूर्वक निकल मानेके योग्य हैं। ऐसे ही भिक्षुओ ! उत्सोढिके पंद्रह अंगोंसे युक्त भिक्षु निर्वेदके लिये, सम्बोधिके लिये, अनुत्तर योगखेम प्राप्तिके लिये योग्य है। नोट-इस सूत्र में निर्वाणके मार्गमें चलनेवालेके लिये पंद्रह बातें उपयोगी बताई हैं (१) पांच चित्तके कांटे-नहीं होने चाहिये। भिक्षुकी भश्रद्धा, देव, धर्म गुरु, चारित्र तथा साधर्मी साधनोंमें होना चित्तके कांटे हैं। जब श्रद्धा न होगी तब वह उन्नति नहीं कर सक्ता । इस. लिये भिक्षुकी दृढ़ श्रद्धा भादर्श माप्तमें, धर्ममें. गुरुमें, व चारित्रमें व सहधर्मियों में होनी चाहिये, तब ही वह उत्साहित होकर चारि. त्रको पालेगा, धर्मको बढ़ावेगा, आदर्श साधु होकर भरहंत पदपर पहुंचनेकी चेष्टा करेगा। (२) पांच चित्त बन्धन-साधकका मन पांच बातोंमें उलझा नहीं होना चाहिये । यदि उसका मन कामभोगोंमें, (२) शरीरकी पुष्टिमें, (३) रूपकी सुन्दरता निरखने में, (४) इच्छानुकूल भोजन करके मुखपूर्वक लेटे रहने, निन्द्रा लेने व मालस्य में समय वितानेमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] दूसरा भाग। (५) व आगामी देवगतिके भोगोंके प्राप्त करनेमें उलझा रहेगा वो वह संसारकी कामनामें लगा रहनेसे मुक्तिके साधनको नहीं कर सकेगा। साधकका चित्त इन पांचों बातोंसे वैराग्य युक्त होना चाहिये। (३) पांच उद्योग-साधकका उद्योग होना चाहिये कि वह (१) छन्द समाधियुक्त हो, सम्यक् समाधिके लिये उत्साहित हो, (२) वीर्य समाधियुक्त हो, आत्मवीर्यको लगाकर सम्यक् समाधिक लिये उद्योगशील हो, (३) चित्त समाधिके लिये प्रयत्नशील हो, कि यह चित्तको रोककर समाधिमें लगावे, (४) इन्द्रिय समाधिइन्द्रियोंको रोककर अतीन्द्रिय मावमें पहुंचनेका उद्योग करे, (५) विमर्श समाधि-समाधिके आदर्शपर चढ़नेका उत्साही हो । मात्मध्यानके लिये मन व इन्द्रियों को निरोधकर भीतरी उत्साहसे, भात्म वीर्यको लगाकर स्मरण युक्त होकर मात्मसमाधिका काम करना चाहिये । निर्विकर समाधि या स्वानुभवको जागृत करना चाहिये । इसीसे यथार्थ विवेक या वैराग्य होगा, परम ज्ञानका काम होगा व निर्वाण प्राप्त होसकेगा। जो ठीक ठीक उद्योग करेगा वह फलको न चाहते हुए भी फल पाएगा जैसे-मुर्गी अंडोंका ठीकर सेवन करेगी तब उनमेसे बच्चे कुशलपूर्वक निकलेंगे ही। इस सूत्रमें भी मोक्षकी सिद्धिका अच्छा उपदेश है। जैन सिद्धांतके कुछ वाक्य दिये जाते हैं। व्यवहार सम्यक्तमें देव, आगम या धर्म, गुरुकी श्रद्धाको ही सम्यक्त कहा है । रत्नपालामें कहा है सम्यक्त्वं सर्वजन्तूनां श्रेय: श्रेयः पदार्थिनां । विना तेम व्रतः सर्वोऽध्यकलप्यो मुक्तिहेतवे ॥ ६॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद तत्वज्ञान। [१२५. निर्विकल्पचिदानन्दः परमेष्ठो सनातनः। दोषातोतो जिनो देवस्तदुपझं श्रुतिः पराः ॥७॥ निम्बरो निम्म्मो नित्यानन्दपदाधिनः । धर्मदिक्कम धिक् साधुगुरुरित्युच्यते बुधैः ॥ ८ ॥ ममोषां पुण्यहेतूनां श्रद्धानं ताजगधते । तदेव परमं तत्व तदेव परमं पदम् ॥ ९॥ संवेगादिपरः शान्तस्तत्वनिश्चयवानरः। जन्तुजन्मजरातीत: पदवीमवगाहते ॥ १३ ॥ भावार्थ-कल्याणकारी पदार्थो का श्रद्धान रखना सर्व प्राणीमात्रका कल्याण करनेवाला है। श्रद्धानके विना सर्व ही व्रतचारित्र मोक्षके कारण नहीं होसक्ते । प्रथम पदार्थ सपा शास्ता या देव है जो निर्विकला हो, चिदानंद पूर्ण हो, परमात्म पदधारी हो, स्वरूपकी अपेक्षा सनातन हो, सर्व रागादि दोष रहित हो, कर्म विजई हो वही देव है। उसीका उपदेशित वचन सच्च। शास्त्र है या धर्म है । जो वस्त्रादि परिग्रह रहित हो, खेती आदि मारम्भसे मुक्त हो, नित्य भानन्द पदका अर्थी हो, धर्मकी तरफ दृष्टि रखता हो वही साधु. या गुरु कर्मों को जलानेवाला बुद्धिवानों द्वारा कहा गया है । इस. तरह देव, शास्त्र या धर्म तथा साधुका श्रद्धान करना, जो पुण्यके कारण हैं, सम्यग्दर्शनरूपी परम तत्व कहा गया है, यही श्रद्धा परमपदका कारण है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य पंचास्तिकायमें कहते हैंमरहतसिद्धसाहुसु भत्ती धम्मम्मि जा य खलु चेट्टा । अणुगमणं वि गुरुणं पसत्थरागो त्ति वुच्चति ॥ १३६ ॥ भावार्थ-साधकका शुभ राग या प्रीतिमाव वही कहा जाता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६] दूसरा माग। है जो उसकी मरहंत व सिद्ध परमात्मा व साधुमें भक्ति हो, धर्ममाधनका उद्योग हो तथा गुरुओंकी माज्ञानुसार चारित्रका पालन हो। स्वामी कुंदकुन्दाचार्य प्रबनसारमें कहते हैंण हयदि समणोत्ति मदो संजमतवसुत्तसंपजुत्तोधि । जदि सद्दादि ण अत्थे मादयधाणे जिणक्खादे ।। ८५-३॥ भावार्थ-जो कोई साधु संयमी, तपस्वी व सूत्रके ज्ञाता हो परन्तु जिन कथित आत्मा मादि पदार्थोंमें जिसकी यथार्थ श्रद्धा नहीं है वह वास्तवमें श्रमण या साधु नहीं है। स्वामी कुन्दकुन्द मोक्षपाहुडमें कहते हैंदेव गुरुम्मिय भत्तो साहम्मिय संजदेसु अणुरत्तो। । सम्मत्तमुव्यहंतो झाणरओ होइ जोई सो॥ १२ ॥ भावार्थ-जो योगी सम्यग्दर्शनको धारता हुआ देव तथा गुरुकी भक्ति करता है, साधर्मी संयमी साधुओंमें प्रीतिमान है वही ध्यान में रुचि करनेवाला होता है। शिवकोटि आचार्य भगवती आराधनामें कहते हैंअरहतसिद्धचेइय, सुदे य पम्मे य साधुवागे य । मायरियेसूवज्झा-, एसु पक्ष्यणे दसणे चावि ॥ ४६॥ भत्ती पूया वण्णज-, णणं च णासणमवण्णवादस्स । भासादणपरिहारो, दंसणविणो समासेण ॥ ४७ ॥ भावार्थ-श्री अरहंत शास्ता माप्त, सिद्ध परमात्मा, उनकी मूर्ति, शास्त्र, धर्म, साधु समूह, भाचार्य, उपाध्याय, वाणी और सम्यग्दर्शन इन दस स्थानोंमें भक्ति करना, पूजा करनी, गुणोंका वर्णन, कोई निन्दा करे तो उसको निवारण करना, मविनयको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्पज्ञान | [ १२७ हटाना, यह सब संक्षेपसे सम्यग्दर्शनका विनय है । व्रतीमें माया, मिथ्या, निदान तीन शल्य नहीं होने चाहिये । अर्थात् कपटसे, अश्रद्वासे व भोगाकांक्षासे धर्म न पाले । तत्वार्थसार में कहा है मायानिदान मिथ्यात्व शल्यां भाव विशेषतः । माहिंसादिवतोपेतो व्रतीति व्यपदिश्यते ॥ ७८ ॥ भावार्थ- वी अहिंसा भादि व्रतका पालनेवाला व्रती कहा जाता है जो माया, मिथ्यात्व व निदान इन तीन शल्यों (कीर्लो व कांटों ) से रहित हो । मोक्षमार्गका साधक कैसा होना चाहिये । श्री कुंदकुंदाचार्य प्रवचनसार में कहते हैंइहलोग णिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परिम्मि लोयम्मि | जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो ॥ ४२-३ ।। भावार्थ- जो मुनि इस लोक में इन्द्रियोंके विषयों की अभिकाषासे रहित हो, परलोकमें भी किसी पदकी इच्छा नहीं रखता हो, योग्य परिमित लघु महार व योग्य विहारको करनेवाला हो, क्रोध, मान, माया, लोभ कषायका विजयी हो, वही श्रमण या साधु होता है । स्वामी कुंदकुंद बोधपाहुडम कहते हैं णिण्णेहा गिल्लोहा जिम्मोह | निव्त्रियार णिक्कलुसा । णित्रमय णिरासभावा पव्वज्जा एरिक्षा भणिया ॥ ५० ॥ भावार्थ- जो स्नेह रहित हैं, लोम रहित हैं, मोह रहित हैं, विकार रहित हैं, क्रोधादिकी कलुषता से रहित हैं, भय रहित हैं, आशा तृष्णासे रहित हैं, उन्हींको साधु दीक्षा कही गई है..... • Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ बट्टकरस्वामी मूलाचार समयसारमें कहते हैंभिक्खं चर वस पणे थोवं जेमेहि मा बहू जेप। दुःख सह जिण णिद्दा मेत्तिं मावेहि मुठ्ठ वेग्गं ॥ ४ ॥ बव्यवहारी एको झाणे एयागमणो भव णिरारंभो । चत्तकसायपरिंग्गह पयत्तचेट्टो संगो य ॥ ५॥ भावार्थ-भिक्षासे भोजन कर, वनमें रह थोड़ा भोजन कर, दुःखोंको सह, निद्राको जीत, मैत्री और वैराग्यभावनाओंको भले. प्रकार विचार कर' लोक व्यवहार न कर, एकाकी रह, ध्यानमें लीन हो, भारम्भ मत कर, क्रोधादि कषाय रूपी परिग्रहका त्याग कर, उद्योगी रह, व असंग या मोहरहित रह । जदं चरे जदं चिट्टे जदमासे जदं सये । जदं भुजेज भासेज एवं पावं ण बज्झइ ।। १२२ ।। जदं तु चरमाणस्स दयापेहुस्स भिखुणो। णवं ण बज्झदे कम्म पोराण च विधूयदि ॥ १२३ ॥ भावार्थ - हे साधु ! यत्नपूर्वक देखके चल, यत्नसे व्रत पाल. नका उद्योग कर, यत्नसे भूमि देखकर बैठ, यत्नसे शयन कर, यत्नसे भोजन कर, यत्नसे बोल, इस तरह वर्तनसे पाप बंध न होगा। जो दयावान साधु यत्न र्वक माचरण करता है उनके नए कर्म नहीं बंधते, पुराने दुर होजाते हैं। श्री शिवकोटि भगवती आराधनामें कहते हैंजिदागो, जिददोसो, जिदिदिमो जिदभमो जिदकसाओ । रदि अरदि मोहमहणो, झाणोषगमओ सदा होई ॥ ६८ ॥ भावार्थ-निसने रागको जीता है, द्वेषको जीता है, इन्द्रियोंको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन बौद्ध तत्ववान। [१९ जीता है, भवको जीता है, कषायोंको जीता है, रति भाति के मोहका जिसने नाश किया है वही सदाकाल ध्यानमें उपयुक्त रह सक्ता है। श्री शुभचंद्राचार्य ज्ञानार्णवम कहते हैंविग्म विरम संगान्मुंत्र मुंप्रपंचविसुत्र विसृज मोहं विद्धि विद्धि स्वतत्वम् ।। कल्य कलय वृत्तं पश्य पश्य स्वरूपं । कुरु कुरु पुरुषार्थ निवृतानन्दहेतोः ॥ ४५-१५॥ भावार्य-हे माई ! तु परिग्रहसे विरक्त हो, जगतके प्रपंचको छोड़, मोहको विदा कर, आत्मतत्वको समझ, चारित्रका अभ्यास कर, मात्मस्वरूपको देख, मोक्षके सुख के लिये पुरुषार्थ कर । (१४) मज्झिमनिकाय द्वेधा वितक सूत्र । गौतम बुद्ध कहते हैं-भिक्षुओ! बुद्धत्व प्राप्तिक पूर्व भी बोधिसत्व होते वक्त मेरे मन में ऐसा होता था कि क्यों न दो टुक वितर्क करते करते मैं विहरूं-जो काम वितर्क, व्यापाद (द्वेष) वितर्क, विहिंसा वितर्क इन तीनोंको मैंने एक भागमें किया और बो नैष्काम्य (काम भोग इच्छा रहिन) वितर्क, अल्पापाद वितर्क, अविहिंसा वितर्क इन तीनोंको एक भागमें किया। भिक्षुओ ! सो इस प्रकार प्रमाद रहित, भातापी ( उद्योगी), ग्रहितत्रा (मात्म संयमी) हो विहरते भी मुझे काम वितर्क उत्पन्न होता था। सो मैं : इस प्रकार जानता था । उत्पन्न हुआ यह मुझे काम वितर्क और यह भात्म आवाधाके लिये है, पर भावापाके लिये है, उभय भाषा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३..] दूसरा मामः।घाके लिये है। यह प्रज्ञानिरोधक, विघात पक्षिक (हानिके पक्षका), निर्वाणको नहीं ले जानेवाला है। यह सोचते वह काम वितर्क मस्त हो जाता था। इसतरह वार वार उत्पन्न होनेवाले काम. वितर्कको मैं छोड़ता ही था, हटाता ही था, मलग करता ही था। इसी प्रकार व्यापाद वितर्कको तथा विहिंसा वितर्कको जब उत्पन्न होता था तब मैं अलग करता ही था। भिक्षुओ! भिक्षु जैसे जैसे अधिकतर वितर्क करता है, विचार करता है वैसे वैसे ही चित्तको झुकना होता है। यदि भिक्षुओ ! भिक्षु काम विनर्कको या व्यापादवितर्कको या विहिंसा वितर्कको अधिकतर करता है तो वह निष्काम वितर्कको या भव्यापाद वितकको या अविहिंसा वितर्कको छोड़ता है, और कामादि वितर्कको बढ़ाता है। उपका चित्त कामादि वितर्क की ओर झुक जाता है । जैसे भिक्षुओ ! वर्षा के अंतिम मासमें (शरद कालमें ) जब फसल भरी रहती है तब ग्वाला अपनी गायों की रखवाली करता है। वह उन गांवोंसे वहां ( भरे हुए खेतों) से इंडेसे हांकता है, मारता है, रोकता है, निवारता है । सो किस हेतु ! वह बाला उन खेतोंमें चरने के कारण वध, बन्धन, हानि या निन्दाको देखता है। ऐसे ही भिक्षुओ! मैं अकुशल धर्मों के दुष्परिणाम, अपकार, संकेशको और कुशल धर्मोमें अर्थात् निष्कामता आदिमें सुपरिणाम और परिशुद्धताका संरक्षण देखता था। भिक्षु भो ! सो इस प्रकार प्रम दाहित विहरते यदि निष्कामता वितर्क, अव्यापाद वितर्क या अविहिंसा वितर्क उत्पन्न होता था, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१३१ सो मैं इस प्रकार जानता था कि उत्पन्न हुमा यह मुझे मिष्कामता मादि वितर्क-यह न भात्म आबाधा, न पर आबाधा, न उभय आबांधाके लिये है यह प्रज्ञावर्द्धक है, अविघात पक्षिक है और निर्वागको लेजानेवाला है। रातको भी या दिनको भी यदि मैं ऐसा वितर्क करता, विचार करता तो मैं भय नहीं देखता। किंतु बहुत देर वितर्क व विचार करते मेरी काया क्लान्त (थकी) होजाती, कायाके क्लान्त होनेपर चित्त अपहत ( शिथिल ) होजाता, चित्तके अपहत होनेपर चित्त समाधिसे दूर हट जाता था। सो मैं अपने भीतर (अध्यात्ममें) ही चित्तको स्थापित करता था, बढ़ाता था, एकाग्र करता था। सो किस हेतु ? मेरा चित्त कहीं अपहत न होजावे। भिक्षुओ ! भिक्षु जैसे जैसे अधिकतर निष्कामता वितर्क, अव्यापाद वितर्क या अविहिंसा वितर्कका अधिकतर अनुवितर्क करता है तो वह कामादि वितर्कको छोड़ता है, निष्कामता आदि वितर्कको बढ़ाता है। उस बाधित निष्कामता अव्यापाद, अविहिंसा वितककी ओर झुकता है । जैसे भिक्षुओ ! ग्रीषमके अंतिम भागमें जब सभी फसल जमाकर गांममें चली जाती है ग्वाला गायोंको रखता है। वृक्षके नीचे या चौड़े में रहकर उन्हें केवल याद रखना होता है कि ये गायें हैं। ऐसे ही भिक्षुओ ! याद रखना मात्र होता था कि ये धर्म हैं। भिक्षुओ ! मैंने न दबनेवाला वीर्य (उद्योग) भारंभ कर रखा था, न भूलनेवाली स्मृति मेरे सन्मुख थी, शरीर मेरा अचंचल, शान्त था, चित्त समाहित एकाग्र था सो मैं भिक्षुभों ! प्रथम ध्यानको, द्वितीय ध्यानको, तृतीय ध्यानकों, चतुर्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १३२ ] दूसरा भाग । ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा । पूर्व निवास अनुस्मरण के लिये, प्राणियोंके च्युति उत्पादके ज्ञानके लिये चित्तको झुकाता था । तथा समाहित चित्त, तथा परिशुद्ध, परिमोदात, अनंगण, विगत क्लेश, मृदुभूत, कम्मनीय स्थित, एकाग्र चित्त होकर आस्रवोंके क्षयके किये चिको झुकाता था । इस तरह रात्रिके पिछले पहर तीसरी विद्या प्राप्त हुई, अविद्या दुर होगईं, विद्या उत्पन्न हुई, तम चला मया, आलोक उत्पन्न हुआ। जैसा उद्योगशीक अप्रमादी तत्वज्ञानी या मात्मसंयमीको होता है । जैसे भिक्षुओ ! किसी महावनमें महान गहरा जलाशय हो और उसका माश्रय ले महान् मृगका समूह विहार करता है । कोई पुरुष उस मृग समूहका अनर्थ आकांक्षी, अहित आकांक्षी, प्रयोगक्षेम आकांक्षी उत्पन्न होवे । बह उस मृग समूहके क्षेम, कश्याणकारक, प्रीतिपूर्वक गन्तव्य मार्गको बंद कर दे और रहकचर ( अकेले चलने लायक ) कुमार्गको खोल दे और एक चारिका ( जाल ) रख दे | इस प्रकार वह महान् मृगसमूह दुसरे समय में विपत्ति तथा क्षीणताको प्राप्त होवेगा । और भिक्षुओ ! उस महान मृगसमुहका कोई पुरुष हिताकांक्षी योग क्षेमकांक्षी उत्पन्न होवे, वह उस मृगसमूह के क्षेम कल्याणकारक, प्रीतिपूर्वक गन्तव्य मार्गको खोल दे, एकचर कुमार्गको बन्द कर दे और ( चारिका) जालका नाश कर दे। इस प्रकार वह मृगसमूह दूसरे समयमें वृद्धि, विरूद्ध और विपुलताको प्राप्त होवेगा । भिक्षुओ ! अर्थके समझाने के लिये मैंने यह उपमा कही है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । यहां यह अर्थ है-गहरा महान जलाशय यह कामों (कामनाओं, मोगों) का नाम है। महान मृगसमूह यह प्राणियोंका नाम है। मनर्थाकांक्षी, महिताकांक्षी, अयोगक्षेमकांक्षी पुरुष यह मार (पापी कामदेव ) का नाम है। कुमार्ग यह आठ प्रकारके मिथ्या मार्ग हैं। जैसे-(१) मिथ्याष्टि, (२) मिथ्या संकल्प, (३) मिथ्या वचन, (१) मिथ्या कर्मान्त (कायिक कर्म ) (५) मिथ्या भाजीव (जीविक) (६) मिथ्या व्यायाम, (७) मिथ्या स्मृति, (८) मिथ्या समाधि । एकचर यह नन्दी-रागका नाम है, एक चारिका ( जाल ) अविथाका नाम है। भिक्षुषों ! मर्चाकांक्षी, हिताकांक्षी, योगक्षेमाकांक्षी, मह तथागत महत् सम्यक् संबुद्धका नाम है। क्षेम,स्वस्तिक, प्रीतिगमनीय मार्ग यह मार्य माष्टांगिक मार्गका नाम है। जैसे कि(१) सम्यकदृष्टि, (२) सम्यक् संकल्प, (३) सम्यक् वचन, () सम्यक् कर्मान्त, (५) सम्यक् आजीव, (६) सम्यक् व्यायाम, (७) सम्यक् स्मृति, (८) सम्यक समाधि । इस प्रकार मिक्षुमों। मैंने क्षेम, स्वस्तिक प्रीतिगमनीय मार्गको खोल दिया। दोनों ओरसे एक चारिका (मविद्या) को नाश कर दिया। मिक्षुओ! पावकोंके हितैषी, मनुकम्पक, शास्ताको अनुकम्पा करके जो करना था वह तुम्हारे लिये मैंने कर दिया । मिक्षुओ! यह वृक्ष मूल है, ये सूने घर है। ध्यानरत होमो। भिक्षुओ! प्रमाद मत करो, पीछे अफसोस करनेवाले मत बनना, यह तुम्हारे लिये हमारा अनुशासन है। नोट-यह सूत्र बहुत उपयोगी है, बहुत विचारने योग्य है। दोहक वितर्क का नाम जैन सिद्धांतमें मेदविज्ञान है। कापवितर्क, न्यापादवितर्क, विहिंसावितर्क इन तीनों राग द्वेष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ । दूसरा भाग । व आजाते हैं । काम और राग एक हैं, व्यापाद द्वेषका पूर्व भाव, विहिंसा आगेका भाव है। दोनों द्वेषमें आते हैं । रागद्वेष ही संसा रका मूल है त्यागने योग्य है और वीतरागता तथा वीतद्वेषता ग्रहण करने योग्य है। ऐसा वारवार विचार करनेसे - राग व द्वेष जब उठे तब उनका स्वागत न करनेसे उनको स्वपर बाधाकारी जानने से, वीतरागता व वीतद्वेषताको स्वागत करने से, उनको स्वपरको अभावाकारी जानने से, इस तरह भेदविज्ञानका वारवार अभ्यास करनेसे रागद्वेष मिटता है और वीतरागभाव बढ़ता है। चिचमें रागद्वेषका संस्कार रागद्वेषको बढ़ाता है। जिसमें वीतरागता व वीतद्वेषताका संस्कार वैराग्यको बढ़ाता है व रागद्वेषको घटाता है । रागभाव होने से अपने भीतर आकुळता होती है. चिन्ता होती है, पदार्थ मिलनेकी घबड़ाहट होती है, मिलने पर रक्षा करने की आकुलता होती है, वियोग होनेपर शोककी आकुलता होती है । सच्चा आत्मीक भाव ढक जाता है। कर्मसिद्धांतानुसार कर्म का बंध होता है । रागसे पीड़ित होकर हम स्वार्थसिद्धिके लिये दूसरोंको बाधा देकर व राग पैदा करके अपना विषय पोषण करते हैं । तीव्र राग होता है तो अन्याय, चोरी, व्यभिचार आदि कर लेते हैं | अति रागवश विषयभोग करने से गृहस्थ आप भी रोगी व निर्बल होजाता है व स्वस्त्रीको भी रोगी व निर्बल बना देता है। इसतरह यह राग स्वपर बाधाकारी है । इसीतरह द्वेष या हिंसक भाव भी है, अपनी शांतिका नाश करता है । दूसरोंकी तरफ कटुक वचनप्रहार, वध आदि करने से दूसरेको बाधाकारी होता है । अपनेको कर्मका बन्ध कराता है । इसतरह यह द्वेष भी स्वपर बाधाकारी है, मोक्षमार्ग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जौन बैद्ध तत्त्वज्ञान । [२३५ बाधक है, संसार मार्गवर्द्धक है, ऐसा विवारना चाहिये। इसके विरुद्ध निष्कामभाव या वीतरागभाव तथा वीतद्वेष या अहिंसकमाव अपने भीतर शांति व सुख उत्पन्न करता है । कोई भाकुलता नहीं होती है । दूसरे भी जो संयोगमें भाते हैं व वाणीको सुनते हैं उनको भी सुखशांति होती है। वीतराग तथा अहिंसामई भावसे किसी भी प्राणीको कष्ट नहीं दिया जासक्ता, किसीके प्राण नहीं पीड़े जाते । सर्व प्राणी मात्र अभय भावको पाते हैं। रागद्वेषसे जब कर्मोका बन्ध होता है तब वीतरागभावसे कोका क्षय होकर निर्वाण प्राप्त होता है। - ऐसा वारवार विचारकर भेदविज्ञानके अभ्याससे वीतराग या वीतद्वेष भावकी वृद्धि करनी चाहिये तब ही ध्यानकी सिद्धि होसकेगी। भेद विज्ञान में तो विचार होते हैं । चित्त चंचल रहता है । समाधान व शांति नहीं होती है । इसलिये साधक विचार करते२ अध्यात्मरत होजाता है, अपनेमे एकाग्र होजाता है, ध्यानमग्न होजाता है, तब चित्तको परम शांति प्राप्त होती है। जब ध्यानमें चित्त न लगे तब फिर भेदविज्ञानका मनन करते हुए अपनेको कामभाव व द्वेषभाव या हिंसात्मक भावसे रक्षित करे । सुत्रमें ग्वालेका दृष्टान्त इसीलिये दिया है कि ग्वाला इस बातकी सावधानी रखता है कि गाएं खेतोंको न खाले। जब खेत हेरेभरे होते हैं तब गायोंको वारवार जाते हुए रोकता है । जब खेत फसल रहित होते हैं तब गायोंको स्मरण रखता है, उनसे खेतोंकी हानिका भय नहीं रखता है। इसीतरह जब तक काममाव व द्वेषभाव जागृत होरहे हैं, उद्योग करते भी रागद्वेष होजाते हैं, तबतक साधकको वारवार विचार करके उनसे चिवको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा माग। हटाना चाहिये । जब वे शांत होगए हों तप तो सावधान होकर निश्चिन्त होकर मात्मध्यान करना चाहिये। स्मरण रखना चाहिये कि फिर कहीं किन्हीं कारणोंसे रागद्वेष न होजावें । दूसग दृष्टांत जलाशय तथा मृगोंका दिया है कि जैसे मृग जलाशयके पास चरते हों, कोई शिकारी जाल बिछा दे व जालमें फंसने का मार्ग खोल दें तब वे मृग जालमें फंसकर दुःख उठाते हैं, वैसे ही ये संसारी प्राणी कामभोगोंसे भरे हुए संसारके भारी जलाशयके पास घूम रहे हैं । यदि वे भोगोंकी नन्दी या तृष्णाके वशी. भूत हों तो वे मिथ्या मार्ग पर चलकर भविद्याके जालमें फंस जायेंगे ब दुःख उठायेंगे। मिथ्या मार्ग मिथ्या अदान, मिथ्या ज्ञान व मिथ्या चारित्र है । यही अष्टांगरूप मिथ्यामार्ग है। निर्वाणको हितकारी न जानना, संसार में लिप्त रहनेको ही ठीक श्रद्धान करना मिथ्याहष्टि है। निर्वाणकी तरफ जानेका संकल्प न करके संसारकी तरफ जानेका संकल्प या विचार काना मिथ्या संकल्प या मिथ्या ज्ञान है। शेष छ: बातें मिथ्या चारित्रमें गर्मित हैं। मिथ्या कठोर दुःखदाई विषय पोषक वचन बोकना, मिथ्या वचन है. संसारवर्द्धक कार्य करना मिथ्या कर्माह्न है, अमत्यसे व चोरीसे आजीविका करके अशुद्ध, गगवर्धक, गगकारक भोजन करना, मिथ्या आजीव है। संसारवर्धक धर्मके व तपके लिये उद्योग करना, मिथ्याच्यापाद है। संसारवर्धक क्रोधादि कषायोंकी व विषय भोगोंकी पुष्टि की स्मृति रखना मिथ्या स्मृति है। विषयाकांक्षासे व किसी परलोकके लोमसे ध्यान लगाना मिथ्या समाधि है। यह सब अविद्यामें फंसनेका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन बौद तत्वज्ञान । [१७ मार्ग है। इससे बचने के लिये श्रीगुरुने दयालु होकर उपदेश दिया कि विषयराग छोड़ो, निर्वाणके प्रेमी बनो और अष्टांग मार्ग या सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इस स्नत्रय मार्गको पालो, सथा निर्वाणका श्रद्धान व ज्ञान रक्खो, हितकारी संसारनाशक वचन बोलो, ऐसी ही क्रिया करो, शुद्ध निदोष भोजन करो, शुद्ध भावके लिये उद्योग या व्यायाम करो, निर्वाणतत्वका स्मरण करो व निर्वा•णभावमें या मध्यात्ममें एकाग्र होकर सम्यकसमाधि भजो । यही भविबाके नामका व विधाके प्रकाशका मार्ग है, यही निर्वाणका उपाय है। मात्मध्यानके लिये प्रमाद रहित होकर एकांत सेवनका उपदेश दिया गया है। जैन सिद्धांत में इस कथन संबन्धी नीचे लिखे वाक्य उपयोगी हैसमयसारजीमें श्री कुंदकुंदाचार्य कहते हैं:णादण भासवाणं असुचित्तं च विवरीयमावं च । दुक्खस्स कारणं ति य तदो णियति कुणदि जीवो ॥७॥ मावार्ष-ये रागद्वेषादि भासव भाव अपवित्र हैं, निर्वाणसे विपरीत हैं व संसार-दुःखोंके कारण हैं ऐसा जानकर जानी जीव इनसे अपनेको अलग करता है। जब भीतर क्रोध, मान, माया लोभ या रागद्वेष उठ खड़े होते हैं अध्यात्मीक पवित्रता निगढ़ जाती है, गन्दापना या मशुचिपना होजाता है। मफ्ना स्वभाव तो शांत है, इन रागद्वेषका स्वभाव मशांत है, इससे वे विपरीत हैं। अपना स्वभाव मुखमई है, रागद्वेष वर्तमानमें भी दुःख देते हैं, वे भविष्य मशुभ कर्मबंधका दुःखदाई फल प्रगट करते हैं। ज्ञानीको ऐसा विचारना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१३८] दुसरा भाग। . महमिक्को खल्ल. सुद्धो य जिम्ममो णाणदंसणसमग्गो । तमि ठिदो तचित्तो सब्वे एदे खयं णे मि ॥ ७८ ॥... भावार्थ-मैं निर्वाण स्वरूप आत्मा एक हूं, शुद्ध हूं, परकी ममतासे रहित इं, ज्ञानदर्शनसे पूर्ण हूं । इतसरह मैं अपने शुद्ध स्वभावमें स्थित होता हुमा, उसीमें तन्मय होता हुआ इन सर्व ही रागद्वेषादि भास्रवोंको नाश करता हूं। समयसार कलशम अमृतचंद्राचाय कहते हैं- .. । भावयेद्भेद विज्ञानमिदमच्छिनधारया। . . तावद्यावत्पराच्छूत्वा जान ज्ञाने प्रतिष्ठते ॥ ६-६॥ . भेदज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्धतत्त्वोपळम्भाद्रागप्रामप्रळयकरणारकर्मणां संवरेण । बिभ्रत्तोष परमममलालोकमम्ळानमेकं । ज्ञान ज्ञाने नियतमुदितं शाश्वतोद्योतमेतत् ॥ ८-६॥ भावार्थ-रागद्वेष बाधाकारी है, वीतरागमाव सुखकारी है, मेरा स्वभाव वीतराग है, रागद्वेष पर हैं, कर्मकृत विकार हैं। इस तरहके भेदके ज्ञानकी भावना लगातार तब तक करते रहना चाहिये जब तक ज्ञान परसे छूटकर ज्ञान ज्ञानमें प्रतिष्ठाको न पावे, अर्थात् जब तक वीतराग ज्ञान न हो जावे। भेद ज्ञानके वार वार उछलनेसे शुद्ध भात्मतत्वका लाभ होता है । शुद्ध तत्वके बामसे रागद्वेषका प्राम ऊजड़ हो जाता है, तब नवीन कर्माका भासव रुकार संबर होजाता है, तब ज्ञान परम संतोषको पाता हुमा अपने निर्मल एक स्वरूप, श्रेष्ठ प्रकाशको रखता हुमा व सदा ही उद्योत रहता हुमा अपने ज्ञान स्वभावमें ही झलकता रहता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१३९ श्री पूज्यपादस्वामी इष्टोपदेशमें कहते हैंरागद्वेषयीदीर्धनेत्राकर्षणकर्मणा । अज्ञानात्सुचिरं जीव: संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ ॥ ११॥ , भावार्थ-यह जीव चिरकालसे अज्ञानके कारण रागद्वेषसे कर्माको खींचता हुआ इस संसारसमुद्रमें भ्रमण कर रहा है। उक्त. भाचार्य समाधिशतकम कहते हैं.... रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं यन्मनोजलम् । स पश्यत्यात्नस्तत्त्वं स तत्त्वं नेतरो जनः ॥ ३५ ॥ भावार्थ-निनका चित्त रागद्वेषादिक लहरोंसे शोभित नहीं है वही अपने शुद्ध स्वरूपको देखता है, परन्तु रागीद्वषी जन नहीं देख सक्ता है । सार समुञ्चयमें कहा है- . . रागद्वेषमयो जीव: कामक्रोधवशे यतः। लोभमोहमदाविष्टः संसारे संसरत्यसौ ॥ २४ ।। कषायातपतप्तानां विषयामयमोहिनाम् । संयोगायोगखिन्नानां सम्यक्त्वं परमं हितम् ॥ ३८ ॥ भावार्थ-जो जीव रागद्वषेमई है, काम, क्रोधके वशमें है, लोम, मोह व मदसे गिरा हुआ है, वह संसारमें भ्रमण करता ही है । क्रोधादि कषायोंके आतापसे जो तप्त है व जो इन्द्रिय विषयरूपी रोगसे या विषसे मूर्छित है व जो अनिष्ट संयोग व इष्ट वियोगसे पीड़ित है उसके लिये सम्यग्दर्शन परम हितकारी है । आत्मानुशासनमें कहा हैमुहुः प्रसार्य सज्ज्ञानं पश्यन भावान् यथास्थितान् । । प्रीत्यप्रीती निराकृत्य ध्यायेदध्यात्मविन्मुनिः ॥ १७७ । ..... Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०] दुसरा भाग। मावार्थ-मध्यात्मका ज्ञाता मुनि वारवार सम्यम्झानको फैला. कर जैसे पदार्थोका स्वरूप है वैसा उनको देखता हुमा रागद्वेषको दूर करके आत्माको ध्याता है। तत्वानुशासनम कहा हैन मुह्यति न संशेते न स्वार्थानध्ययस्यति । न रज्यते न च तुष्टि किंतु स्वस्थः प्रतिक्षण ।। २३७ ।। भावार्थ-जानी न तो मोह करते हैं, न संशय करते हैं, न ज्ञानमें प्रमाद लाते हैं, न राग करते हैं, न द्वेष करते हैं, किंतु सदा अपने शुद्ध स्वरूपमें स्थित होकर सम्यक् समाधिको प्राप्त करते हैं। शानागबम कहा हैबोध एव दृढः पाशो हषोक मृगमन्बने । गारुश्च महामंत्र: चित्रभोगिविनिग्रहे ॥ १४-७॥ भावार्थ-इन्द्रियरूपी मृगोंको बांधने के लिये सम्यग्ज्ञान ही हद " फांसी है तथा चिसरूपी सर्पको वश करने के लिये सम्यग्ज्ञान ही गारुडी मंत्र है। (१५) मज्झिमनिकाय वितर्क संस्थान सूत्र । गौतम बुद्ध कहते हैं-मिक्षुको पांच निमितोंको समय समय पर मनमें चिन्तवन करना चाहिये। (१) भिक्षुको उचित है जिस निमित्त को लेकर, जिस निमिको मनमें करके रागद्वेष मोहवाले पापकारक अकुशल वितर्क (भाव) उत्पन होते हैं, उस निमित्तको छोड़ दूसरे कुशल निमितको मनमें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन बौद तत्वज्ञान । [१४१ करे । ऐसा करनेसे छन्द (गग) सम्बन्धी दोष 4 मोह सम्बन्धी अकुशल वितर्क नष्ट होते हैं, मस्त होते हैं, उनके नाशसे अपने भीतर ही चित्त ठहरता है, स्थिर होता है, एकाग्र होता है, समाहित होता है। जैसे रान सूक्ष्म भाणीसे मोटी माणीको निकालकर फेंक देता है। (२) उस भिक्षुको उस निमित्तको छोड़ दूसरे कुशल संबन्धी निमित्तको मनमें करने पर भी यदि रागद्वेष मोह संबन्धी भवुशनवितर्क उत्पन होते ही हैं तो उस भिक्षुको उन वितकों के मादिनव (दुष्परिणाम ) की जांच करनी चाहिये कि ये मेरे वितर्क भकुशल हैं, ये मेरे वितर्क सावध (पापयुक्त) हैं। ये मेरे वितर्क दुःखविपाक (दुःख) हैं। इन वितकों के आदिनवकी परीक्षा करनेपर उसके राग द्वेष मोह बुरे भाव नष्ट होते हैं, अस्त होते हैं, उनके नाशसे चित्त. अपने भीतर ठहरता है, समाहित होता है। जैसे कोई शृंगार पसंद भल्पवयस्क तरुण पुरुष या स्त्री मरे साप, मरे कुत्ता या आदमी के मुर्देके कंठमें लग जाने से घृणा करे वैसे ही मिक्षुको भकुशल निमि-- त्तोंको छोड़ देना चाहिये। (३) यदि उस भिक्षु को उन वितकों के मादिनवको जांचते हुए भी राग, द्वेष, मोह सम्बन्धी अकुशल वितर्क उत्पन्न होते ही हैं तो उस भिक्षुको उन वितकोंको यादमें लाना नहीं चाहिये । मनमें न करना चाहिये ऐसा करनेसे वे वितर्क नाश होते हैं और चित्त अपने भीतर ठहरता है। जैसे दृष्टि के सामने भानेवाले रूपोंके देखनेकी इच्छा न करनेवाला भादमी मांखोंको मूंदले या दुसरेकी ओर देखने लगे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] दूसरा भाग। . (४) यदि उस भिक्षुको उन वितकों के मन में न लानेपर भी रागद्वेष मोह सम्बन्धी बुरे भाव उत्पन्न होते ही हैं तो उस भिक्षुको उन वितकोंके संस्कार का संस्थान (कारण) मनमें करना चाहिये । ऐसा करनेसे वे वितर्क नाश होते हैं जैसे भिक्षुओ ! कोई पुरुष शीघ्र भाजाता है उसको ऐसा हो क्यों मैं शीघ्र जाता हूं क्यों न धीरे२ चलं, वह धीरे२ चले, फिर ऐसा हो क्यों न मैं बैठ जाऊँ, फिर वह बैठ जावे, फिर ऐसा हो क्यों न मैं लेट जाऊँ, फिर वह लेट जाये, वह पुरुष मोटे ईपिथसे हटकर सुक्ष्म ईर्यापथको स्वीकार करे। इसी तरह भिक्षुको उचित है कि वह उन वितकोंके संस्कारके संस्थानको मनमें विचारे । (५) यदि उस भिक्षुको उन वितकों के वितर्क-संस्कार-मंस्थानको मनमें करने से भी रागद्वेष मोह सम्बन्धी अकुशल वितर्क उत्पन्न होते ही हैं तो उसे दांतोंको दांतोंपर रखकर, जिह्वाको तालूसे चिपटाकर, चित्तसे चितका निग्रह करना चाहिये, संतापन व निष्पीडन करना चाहिये । ऐसा करनेसे वे रागद्वेष मोहभाव नाश होते हैं । जैसे बलवान पुरुष दुर्बलको शिरसे, कंधेसे पकडकर निग्रहीत करे, निपीड़ित करे, संतापित करे। इस तरह पांच निमित्तोंके द्वारा भिक्षु वितर्कके नाना मार्गोको वश करनेवाला कहा जाता है । वह जिस वितर्कको चाहेगा उसका वितर्क करेगा। जिस वितर्कको नहीं चाहेगा उस वितर्कको नहीं करेगा। ऐसे भिक्षुने तृष्णारूपी बन्धनको हटा दिया । अच्छी तरह जानकर, साक्षात् कर, दुःखका अंत कर दिया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बोर्ड स्थान | [१४५ नोट - इस सूत्र में रागद्वेष मोहके दूर करनेका विधान है । वास्तवमे निमित्तोंके आधीन भाव होते हैं, भावोंकी सम्हाळके लिये निमित्तोंको बचाना चाहिये। यहां पांच तरहसे निमित्तोंको टाकनेका उपदेश दिया है । (१) जब बुरे निमित्त हों जिनसे रागद्वेष मोह होता है तब उनको छोड़कर वैराग्यके निमित्त मिलावे जैसे स्त्री, नपुंसक, बालक, श्रृंगार, कुटुम्बादिका निमित्त छोड़कर एकान्त सेवन, वन निवास, शास्त्रस्वाध्याय, साधुसंगतिका निमित्त मिलावे तब वे बुरे भाव नाश होजावेंगे 1 (२) बुरे निमित्तोंके छोड़ने पर भी अच्छे निमित्त मिलाने पर भी यदि रागद्वेष मोह पैदा हों तो उनके फल्को विचारे कि इनसे मेरेको यहां भी कष्ट होगा, भविष्य में भी कष्ट होगा, मैं निर्वाण मार्गसे दूर चला जाऊंगा । ये माव अशुद्ध हैं. त्यागने योग्य हैं । ऐसा बार बार विचारने से वे रागादि भाव दूर होजायेंगे । (३) ऐसा करनेपर भी रागद्वेषादि भाव पैदा हों तो उनको स्मरण नहीं करना चाहिये । से ही वे मनमें आवें मनको हटा लेना चाहिये । मनको तत्व विवारादिमें लगा देना चाहिये । ( ४ ) ऐसा करनेपर भी यदि रागद्वेष, मोह पैदा हो तो उनके संस्कार के कारणोंको विचार करे। इसतरह धीरे२ वे रागादि दूर हो जायँगे । (५) ऐसा होते हुए भी यदि रागादि भाव पैदा हो तो बलाकार चित्तको हट कर तत्ववि वाग्में लगानेका अभ्यास करना चाहिये । पुनः पुनः उत्तम मार्वोके संस्कारसे बुरे भावोंके संस्कार मिट जाते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] दूसरा भाग। जैन सिद्धांतानुसार भी यही बात है कि राग, द्वेष, मोहको त्यागे विना वीतरागता सहित ध्यान नहीं होसकेगा। इसलिये इन भावोंको दूर करनेका ऊपर लिखित प्रयत्न करे। दुसरा प्रयत्न मात्मध्यानका भी जरूरी है। जितना२ आत्मध्यान द्वारा भाव शुद्ध होगा उतना२ उन कषायरूपी कर्मों की शक्ति क्षीण होगी, जो भावी कालमें अपने विपाकपर रागादि भावोंके पैदा करते हैं। इस तरह ध्यानके वलसे हम उस मोहकर्मको जितना२ क्षीण करेंगे उतना२ रागद्वेषादि भाव नहीं होगा। वास्तवमें सम्यग्दर्शन ही रागादि दूर करनेका मूल उपाय है। जिसने संसारको असार व निर्वाणको सार समझ लिया वह अवश्य रागद्वेष मोहके निमित्तोंसे शृद्धापूर्वक पचेगा और वैराग्य के निमित्तोंमें वर्तन करेगा। धैर्य के साथ उद्योग करनेसे ही रागादि भावोंपर विजय प्राप्त होगी। नैन सिद्धांतके कुछ उपयोगी वाक्य ये हैंसमाधिशतकमें पूज्यपादस्वामी कहते हैं मविद्याभ्याससंस्कारवश क्षिप्यते मनः । तदेव ज्ञानसंस्का: स्वास्तत्वेऽवतिष्ठते ।। ३७ ॥ भावार्थ-अविद्याके अभ्यासके संस्कारसे मन लाचार होकर रागी, द्वेषी, मोही होजाता है, परन्तु यदि ज्ञानका संस्कार डाला जावे, सत्य ज्ञानके द्वारा विचारा जावे तो यह मन स्वयं ही मात्माके सच्चे स्वरूपमें ठहर जाता है। यदा मोहात्मजायेते रागद्वेषौ तपस्विनः । तदेव भावयेत्स्वस्थमात्मानं शाम्यतः क्षणात् ॥ ३९॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवोद तत्वज्ञान भावार्थ-जब किसी तपस्वीके मनमें मोहके कारण रागद्वेष पैदा होजावे उसी समय उसे उचित है कि वह शान्तभावसे अपने . स्वरूपये ठहरकर निर्वाणस्वरूप भरने मात्माकी भावना रे गगद्वेष लौलिक संसर्गसे होते हैं मतएव उसको छोड़े। जनेभ्यो वाक् तत: स्पन्दो मनश्चित्तविभ्रमाः । भवन्ति तस्मात्संसर्ग जनेयोगो ततस्त्यजेत् ॥ २॥ भावार्थ-जगतके लोगोंसे बातालाप करनेमे मनकी चंचलता होती है, तब चित्त राग, द्वेष, मोह विकार पैदा होजाते हैं । इसलिये योगीको उचित है कि मानवों संसर्गको छोड़े। .! - स्वामी पूज्यपाद इष्टोपदेशमें कहते हैं अभवञ्चित्तविक्षेपे एकांते सत्त्वसंस्थितिः । अभ्यस्येदभियोगेन योगी त निजात्मनः ॥ ३६ ।। मावार्थ-तत्वोंको मले प्रकार जाननेवाला योगी ऐसे एकांतमे जावे जहां चित्तको कोई क्षोमके या गवेष पैदा करनेके निमित्त न हो और वहां मासन लगाकर तत्वम्वरूपमें तिछे मालस्य निद्राको जीते और अपने निर्वाणस्वरूप अमाका अभ्यास करे । संसारमें भकुशल धर्म या पार पांच हैं-हिंसा, असत्य, चोरी, कुशील, परिग्रह इनसे बचने के लिये पांच पांच भावनाए जैन सिद्धांतमें बताई हैं। जो उनपर ध्यान रखता है वह उन पांचों पापोंसे बच सक्ता है। श्री उमास्वामी महाराज तत्वाथमत्रमें कहते हैं (२) हिंसासे बचनेकी पांच भावनाएँवाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेषणसमि-7 लोकिता नभो ननानि पञ्च ।।४-७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] (१) वचनगुप्ति - वचनकी सम्हाक, पर पीड़ाकारी वचन कहा जावे, (२) मनोगुप्ति-मनमे हिंसाकारक भाव न लाऊँ, (३) ईयासमिति चार हाथ जमीन आगे देखकर शुद्ध भूमिमें दिनों चलं, (४) आदाननिक्षेपण समिति-देखकर वस्तुको उठाऊं व रखं. (५) आलोकित पानभोजन देखकर भोजन व पान करूँ । (२) असत्य से बचनेकी पांच भावनाएं ܐ ܢ कोषको मभीरुत्वा स्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषण च पश्च ॥ ५-७ ॥ (१) क्रोध प्रत्याख्यान - क्रोधसे बचूं क्योंकि यह मसत्यका कारण है । (२) लोभ प्रत्याख्यान - लोभसे बच्चूँ क्योंकि यह असत्यका कारण है । (३) भीरुत्व प्रत्याख्यान - मयसे बचूं क्योंकि यह असत्यका कारण है। (४) हास्य प्रत्याख्यान - हंसी से बचूं क्योंकि यह असत्यका कारण है । (५) अनुवीची भाषण - शास्त्र के अनुसार वचन कहूं । (३) चोरी से बचनेकी पांच भावनाएं शून्यागार विमोचतावास परोपरोधा करण मैक्ष्यशुद्धिधम्मविसंवादाः पच ।। ६-७ ॥ (१) शून्यागार - शूने खाली, सामान रहित, वन, पर्वत, मैदा - नादिमें ठहरना । (२) विमोचितावास छोड़े हुए, उजडे हुए मकानमें ठहरना । (३ परोपधाकरण- जहां आप हो कोई आवे तो मना न करे या जहां कोई रोक वहां न ठहरे। (४) मैक्ष्यशुद्धि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५७ भोजन शुद्ध व दोष रहित लेवे । (५) सपर्माविसंवाद-स्वधर्मी जनोंसे झगड़ा न करे, इससे सत्य धर्मका लोप होता है। . () सीकसे पचनेकी पांच माक्नाएंश्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहराजनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टामस्व शरीरसंस्कारत्यागाः पञ्च ॥ ७-७॥ (१) स्त्रीरागकथावण त्याग-स्त्रियों में राग बढ़ानेवाली कथाके सुनने का त्याग, (२) तन्मनोहरांगनिरीक्षण स्पाग-स्त्रियों के मनोहर भोंको राग सहित देखनेका त्याग, (३) पूर्वरतानुस्मरण स्थाग-पहले भोगोंके स्मरणका त्याग, (४) दृष्येष्टरस त्यागकामोद्दीपक इष्ट रस खानेका त्याग, (५) स्वशरीरसंस्कार त्यागअपने शरीर के श्रृंगार करने का त्याग । (५) परिग्रहसे पचनेकी पांच भावनाएं-ममता त्यागकी भावनाएं “ मनोज्ञामनोजविषयरागद्वेषवजनानि पंच । " अच्छे या बुरे पांचों इन्द्रियोंके पदार्थोमें राग व द्वेष नहीं करना । जो कुछ खानपान स्थान व संयोग प्राप्त हो उनमें संतोष रखना । इन्द्रियोंकी तृष्णाको मिटानेका यही उपाय है । सार समुखयम कहा हैममत्वान्जायते लोभो लोभाद्रागश्च जायते । रागाच जायते द्वेषो द्वेषाहुःखपरंपरा ॥ २३३ ॥ निर्ममत्वं परं तत्वं निर्ममत्वं परं सुखं । निर्ममत्वं परं बीजं मोक्षस्य कथित बुवैः ॥ २३४ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1821 भावार्थ:- ममतासे लोम होता है, कोमसे राग होता है, रागसे द्वेष होता है, द्वेषसे दुःखोंकी परिपाटी चलती है। इसलिये ममतारहितपना परम तत्व है, निर्मलता परम सुख है, निर्मकता ही मोक्षका परम बीज है, ऐसा विद्वानोंने कहा है । !! यैः संतोषातं पीतं तृष्णातृट् णासनं । तख निर्माणसौख्यस्य कारणम् समुपार्जितम् ॥ २४७ ॥ भावार्थ- जिन्होंने तृष्णारूपी प्यास बुझानेवाले संतोषरूपी अमृतको पिया है उन्होंने निर्वाणसुख के कारणको प्राप्त कर लिया है। परिग्रहपरिष्वङ्गाद्रागद्वेषश्च जायते । रागद्वेषौ महाबन्धः कर्मणां भवकारणम् ॥ २५४ ॥ भावार्थ - धन धान्यादि परिग्रहोंको स्वीकार करने से राग और द्वेष उत्पन्न होता ही है। रागद्वेष ही कर्मोके महान बंधके कारण हैं उन्होंसे संसार बढ़ता है । कुसंसर्गः सदा त्याज्यो दोषाणां प्रविधायकः । सगुणोऽपि जनस्तेन लघुतां याति तत् क्षणात् ॥ २६९ ॥ भावार्थ- दोषोंको उत्पन्न करनेवाली कुसंगतिको सदा छोड़ना योग्य है । उस कुसंगति से गुणी मानव भी दममर में हलका होजाता है। जो कोई मन, वचन, कायसे रागद्वेषोंके निमित्त बचाएगा व निज अध्यात्म में रत होगा वही समाधिको जागृत करके सुखी होगा, संसारके दुःखोंका अन्त कर देगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन पौद सल्यान । [१४९ (१६) मज्झिमनिकाय ककचूयम (क्रकचोयम) सूत्र। गौतमबुद्ध कहते हैं-एक दफे मैंने भिक्षुओंको बुलाकर कहा-- भिक्षुषों ! मैं एकासन (एक) भोजन सेवन करता है । (एकासनभोजनं मुंजामि) एकासन भोजनका सेवन करने में स्वास्थ्य, निरोग, स्मृर्ति, बल और प्राशु विहार (कुशलपूर्वक रहना) भपने में पाता हूं। भिक्षुमों ! तुम भी एकासन भोजन सेवन कर स्वास्थ्यको प्राप्त करो। उन भिक्षुओंको मुझे अनुशासन करनेकी आवश्यक्ता नहीं थी। केवल बाद दिलाना ही मेरा काम था जैसे-उद्यान (सुभूमि)में चौराहोपर कोड़ा सहित घोड़े जुता भाजाने व (उत्तम घोड़ोंका) स्थ खड़ा हो उसे एक चतुर रथाचार्य, अश्वको दमन करनेवाला सारथी बाएं हाथमें जोतको पकड़कर दाहने हाथमें कोडेको ले जैसे चाहे, जिधर चाहे लेजावे, लौटावे ऐसे ही भिक्षुओं ! उन भिक्षुओंको मुझे भनुशासन करनेकी आवश्यक्ता न थी। केवल याद दिलाना ही मेश काम था। . इसलिये भिक्षुओ! तुम भी अकुशल (बुराई) को छोड़ो। कुशल धौ (मच्छे कामों) में लगो। इस प्रकार तुम भी इस धर्म विनय वृद्धि, विरुड़ि व विपुलताको प्राप्त होंगे। जैसे गांवके पास सघनतासे आच्छादित महान साल (साखू) का बन हो उसका कोई हितकारी पुरुष हो वह उस सालके रसको अपहरण करनेवाली टेढी डालियोंको काटकर बाहर लेनावे, वनके भीतरी भागको अच्छी तरह साफ करदे भौर जो सालकी शाखाएं सीधी सुन्दर तौरसे निकली है, उन्हें अच्छी तरह रक्खे इसप्रकार वह साल वन वृद्धि व विपु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०] दास माग। लताको प्राप्त होगा। ऐसे ही भिक्षुषो! तुम भी बुराईको छोड़ो, कुशल धोये लगो, इस प्रकार धर्म विनयमें उन्नति करोगे। भिक्षुषों ! भूतकाल में इसी श्रावस्ती नगरी वैदेहिका नामकी गृहपत्नी थीं। उसकी कीर्ति फैली हुई थी कि बैदेहिका मुरत है, निष्कलह है और उपशांत है । वैदेहिकाके पास काली नामकी दक्ष, भाकस्परहित, मच्छे प्रकार काम करनेवाली दासी थी। एक दफे काली दासीके मनमें हुआ कि मेरी स्वामिनीकी यह मंगल कीर्ति फैली हुई है कि यह उपशांत है। क्या मेरी आर्या भीतरमें क्रोधके विषमान रहते उसे प्रगट नहीं करती या भविद्यमान रहती ? क्यों न मैं मार्याकी परीक्षा करूं? एक दफे काली दासी दिन चढे उठी तब भार्याने कुपित हो, मसंतुष्ट हो भौहें टेढी करली और कहा-क्योंरे दिन चढ़े उठती है। तब काली दासीको यह हुमा कि मेरी भाकि भीतर क्रोध विद्यमान है। क्यों न और भी परीक्षा करूं। काली और दिन चढ़ाकर उठी तब वैदेहिने कुपित हो कटु वचन कहा, तब कालीको यह हुआ कि मेरी मा के भीतर क्रोष है। क्यों न मैं और भी परीक्षा करूं। तब वह तीसरी दफे और भी दिन चढ़े उठी, तब वैदेहिकाने कुपित हो किवाड़की बिलाई उसके मारदी, शिर फूट गया, तब काली दासीने शिरके लोहू बहाते पड़ोसियोंसे कहाकि देखो, इस उपशांताके कामको । तब वैदेहिकाकी अपकीर्ति फैली कि यह अन् उपशांत है। इसी प्रकार मिक्षुओं! एक मिक्षु तब ही तक मुरत, निष्फलह उपञ्चांत है, जबतक वह भप्रिय शब्दपाय नहीं पड़ता। जब उसपर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । मप्रिय शब्दपथ पड़ता है तब भी तो उसे सुरत, निष्कलह और उपशांत रहना चाहिये। मैं उस भिक्षुको सुवच नहीं कहता जो मिक्षा मादिके कारण सुवच होता है, मृदुभाषी होता है। ऐसा भिक्षु मिक्षादिके न मिलनेपर सुवच नहीं रहता। जो भिक्षु केवल धर्मका सत्कार करते व पूजा करते सुवच होता है, उसे मैं सुवच कहता इं। इसलिये भिक्षुओं! तुम्हें इस प्रकार सीखना चाहिये " केवल धर्मका सत्कार करते पूजा करते मुवच होऊंगा, मृदु भाषी होऊंगा।" भिक्षुओ! ये पांच वचनपथ (बात कहनेके मार्ग) हैं जिनसे कि दूसरे तुमसे बात करते बोलते हैं। (१) कालसे या अकालसे, (२) भूत पर्याय) से या अभूतमे, (३) स्नेहसे या परुषता (क्टुता) से, (४) सार्थकतासे या निरर्थकतासे, (५) मैत्री पूर्ण चित्तस या द्वेषपूर्ण चित्तसे । भिक्षुमओ ! चाहे दुसरे कालसे बात करें या अकालसे, मृतसे अभूतसे, या स्नेहसे या द्वेषसे, सार्थक या निरर्थक, मैत्रीपूर्ण चित्तसे या द्वेषपूर्ण चित्तसे तुम्हें इस प्रकार सीखना चाहिये-- "मैं अपने चित्तको विकारयुक्त न होने दूंगा और न दुवर्चन निका. लंगा, मैत्रीमावसे हितानुकम्पी होकर विहरूंगा न कि द्वेषपूर्ण चित्तसे । उस विरोधी व्यक्तिको भी मैत्रीमाव चितसे मप्लावित कर विहरूंगा। उसको लक्ष्य करके सारे लोकको विपुल, विशाल, प्रमाण मैत्रीपूर्ण चित्तसे मलावित कर मवैरता-अव्यापादिता (द्रोहरहितता) से परिप्लावित (भिगोकर ) विहरूंगा।" इस प्रकार मिक्षुओ! तुम्हें सीखना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२) दूसरा भाग। (१) जैसे कोई पुरुष हाथमें कुदाल लेकर भाए और वह ऐसा कहे कि मैं इस महापृथ्वीको अपृथ्वी करूंगा, वह जहांतहां खोदे, मिट्टी फेंके और माने कि यह अपृथ्वी हुई तो क्या यह महा पृथ्वीको अपृथ्वी कर सकेगा ? नहीं, क्यों नहीं कर सकेगा ? महापृथ्वी गंभीर है, अप्रमेय है। वह अपृथ्वी (पृथ्वीका अभाव) नहीं की जासक्ती । वह पुरुष नाहक में हैरानी और परेशानीका मागी होगा। इसी प्रकार पृथ्वीके समान चित्त करके तुम्हें क्षमावान होना चाहिये। (२) और जैसे भिक्षुओ ! कोई पुरुष लाख, हलदी, नील का मजीठ लेकर भाए और यह कहे कि मैं आकाशमें रूप (चित्र) लिस्वंगा तो क्या वह आकाशमें चित्र लिस्व सकेगा ? नहीं, क्योंकि आकाश मरूपी है, अदर्शन है. वहां रूपका लिखना सुकर नहीं। वह पुरुष नाहकमें हेगनी और परेशानीका मागी होगा। इसी तरह पांच वचनपथ होनेपर भी तुम्हें सर्वलोकको भाकाश समान चित्तसे वैररहित देखकर रहना चाहिये । (३) और जैसे भिक्षुओ! कोई पुरुष जलती तृष्णाकी उल्का को लेकर भाए और यह कहे कि मैं इस तृष्णा उल्कासे गंगानदीको संतप्त करूंगा, परितप्त करूंगा तो क्या यह जलती तृण उल्कासे गंगा नदीको संतप्त कर सकेगा ? नहीं, क्योंकि गंगानदी गंभीर है, अपमेय है। वह जलती तृण उल्कासे नहीं संतप्त की जासकी। वह पुरुष नाह. को हैरानी उठाएगा। इसीप्रकार पांच वचनपथके होते हुए तुम्हें यह सीखना चाहिये कि मैं सारे लोकको गंगा समान चित्तसे मप्रमाण भवैरभावसे परिप्लावित कर विहरूंगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~ . (१) और जैसे एक मर्दित, मृदु, खर्खराहट रहित बिल्ली के चमड़ेकी खाल हो, तब कोई पुरुष काठ या ठीकरा लेकर पाए और बोले कि मैं इस काठसे बिल्लीकी खालको खुर्खरी-बनाऊंगा तो क्या वह कर सकेगा ! नहीं, क्योकि बिल्लीकी खाल मर्दित है. मृदु है, वह काठसे या ठीकरेसे खुखुरी नहीं की जासक्ती। इसी तरह पांचों वचनपथके होनेपर तुम्हें सीखना चाहिये कि मैं सर्वलोकको बिल्लीको लालके समान चित्तसे वैरभावरहित मावसे भरकर विहरूंगा। ... (५) भिक्षुओं! चोर लुटेरे चाहे दोनों ओर मुठिया लगे, मारेसे अंग अंगको चीरे तौमी जो भिक्षु मनको द्वेषयुक्त करे तो वह मेरा शासनकर (उपदेशानुसार चलनेवाला) नहीं है । वहांपर भी मिक्षुओं ! ऐसा सीखना चाहिये कि मैं अपने चित्तको विकारयुक्त न होने दूंगा न दुर्वचन निकालंगा। मैत्रीमावसे हितानुकम्पी होकर बिहकंगा, न द्वेषपूर्ण चित्तसे । उस विरोधीको भी मैत्रीपूर्ण चित्तसे साप्तापित कर बिहरूंगा । उसको लक्ष्य करके सारे लोकको विपुल, विशाल, मामाण, मैत्रीपूर्ण चित्तसे भरकर अवैरता व भन्यापादितासे भरकर विहरूंगा। भिक्षुओं ! इस क्रकचोयम (आरेके दृष्टांतवाले ) उपदेशको निरंतर मनमें करो। यह तुम्हें चिरकालतक हित, मुखके लिये होगा। नोट-इस सूत्रमें नीचे प्रकार सुन्दर शिक्षाएं हैं. (१) भिक्षुको दिन रातम केवल दिनम एकवार भोजन करना चाहिये, यही शिक्षा गौतमबुद्धने दी थी व आप भी एकासन करते थे। योगीको, त्यागीको, ध्यानके अभ्यासीको दिनमें एक ही . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ दफे मात्रा सहित मल्पभोजन करके काल बिताना चाहिये । स्वास्थ्यके लिये व प्रमाद त्यागके लिये व शांतिपूर्ण जीवन के लिये यह बात मावश्यक है। जैन सिद्धांतमें भी साधुको एकासन करनेका उपदेश है। साधुके २८ मूल गुणोंमें यह एकासन या एकभुक्त मूलगुण है-अवश्य कर्तव्य है। (२) भिक्षुओंको गुरुकी आज्ञानुसार बड़े प्रेमसे चलना चाहिये। जैसा इस सूत्रमें कहा है कि मैं भिक्षुओंको केवल उनका कर्तव्य स्मरण करा देता था, वे सहर्ष उनपर चलते थे। इसपर दृष्टांत योग्य घोड़े संजुते रथका दिया है। हांकनेवाले के संकेत मात्रसे जिधर वह चाहे घोडे चलते हैं, हांकनेवालेको प्रसन्नता होती है, घोडों को भी कोई कष्ट नहीं होता है। इसी तरह गुरु व शिष्यका व्यवहार होना चाहिये। . (३) भिक्षुओंको सदा इस बात सावधान रहना चाहिये कि वह अपने भीतरसे बुराइयों को हटावें, रागद्वेष मोहादि भावों को दुर करे तथा निर्वाण साधक हितकारी धर्मोको ग्रहण करें। इसपर दृष्टांत साळके वनका दिया है कि चतुर माली रसको मुखानेवाली डालियोंको दूर करता है और रसदार शाखाओंकी रक्षा करता है तब वह बनरूप फलता है। इसीतरह भिक्षुको प्रमादरहित होकर भपनी उन्नति करनी चाहिये। (४) क्रोधादि कपायोंको भीतरसे दूर करना चाहिये। तवा निर्बल पर क्रोध न करना चाहिये, क्षमाभाव रखना चाहिये। निमित पड़ने पर भी क्रोध नहीं करना चाहिये। यहां वैदेहिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जौन वैद तत्वज्ञान। [१५५ गृहिणी और काली दासीका दृष्टांत दिया है। वह गृहिणी ऊपरसें शांत थी, भीतरसे क्रोधयुक्त थी। जो दासी विनयी व स्वामिनीकी माज्ञानुसार सममाव करनेवाली थी वह यदि कुछ देरसे उठी हो तो स्वामिनीको शांत भावसे कारण पूछना चाहिये। यदि वह कारण पछती क्रोध न करती तो उसकी बातसे उसको संतोष होजाता । वह कह देती कि शरीर अस्वस्थ होनेसे देरसे उठी हूं। इस दृष्टांतको देकर भिक्षुषोंको उपदेश दिया गया है कि स्वार्थसिद्धि के लिये ही शांत भाव न रक्खो किन्तु धर्मलाभके लिये शांतमाव रक्खो। क्रोधभाव वैरी है ऐसा जानकर कभी क्रोध न करो तथा साधुको कष्ट पड़ने पर भी, इच्छित वस्तु न मिलने पर भी मृदुभाषी कोमक परिणामी रहना चाहिये। (५) उत्तम क्षमा या माव अहिंसा या विश्वप्रेम रखनेकी कड़ी शिक्षा साधुओंको दी गई है कि उनको किसी भी कारण मिलने पर. दुर्वचन सुनने पर या शरीरके टुकड़े किये जाने पर भी मनमें विकारमाव न लाना चाहिये, द्वेष नहीं करना चाहिये, उपसर्गकर्तापर भी मैत्रीभाव रखना चाहिये। पांच तरहसे प्रवचन कहा जाता है-(१) समयानुसार कहना, (२) सत्य कहना, (३) प्रेमयुक्त कहना, (४) सार्थक काना, (५) मैत्रीपूर्ण चित्तसे कहना । पांच तरहसे दुर्वचन कहा जाता है-(१) विना अवसर कहना, (२) असत्य कहना, (३) कठोर वचन कहना, (४) निरर्थक कहना, (५)द्वेषपूर्ण चित्तसे कहना । साधुका कर्तव्य है किचाहे कोई मुक्चन कहे या कोई दुर्वचन कहे दोनों दखामोंमें सम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ सरा भाग। भाव रखना चाहिये। उसे मैत्रीभाव अनुकम्पा भाव ही रखना चाहिये। उसकी मज्ञान दशापर दयाभाव लाकर क्रोध नहीं करना चाहिये । मा या मैत्रीभाव रखनेके लिये साधुको नीचे लिखे दृष्टांत दिये हैं (१) साधुको पृथ्वीके समान. क्षमाशील होना चाहिये । कोई पृथ्वीका सर्वथा नाश करना चाहे तौभी वह नहीं कर सक्ता, पृथ्वी का अभाव नहीं किया जासक्ता । वह परम गंभीर है, सहनशील है ! वह सदा बनी रहती है। इसी तरह भले ही कोई शरीरको नाश करे, साधुको भीतरसे क्षमावान व गंभीर रहना चाहिये तब उसका नाश नहीं होगा, वह निर्वाणमार्गी बना रहेगा, (२) साधुको बाकाशके समान निर्लेप निर्मळ व निर्विकार रहना चाहिये । जैसे माकाशमें चित्र नहीं लिखे जासकते वैसे ही निर्मल चित्तको विकारी व क्रोध ‘युक्त नहीं बनाया जासत्ता। (३) साधुको गंगा नदीके समान शांत, गंभीर व निर्मक रहना चाहिये । कोई गंगाको मसालमे जलाना चाहे तो असंभव है, मसाल स्वयं बुझ जायगी। इसीतरह साधुको कोई कितना मी कष्ट देकर क्रोधी या विकारी बनाना चाहे परन्तु साधुको गंगाजळके समान शांत व पवित्र रहना चाहिये। (४) साधुको विल्लीकी चिकनी खालके समान कोमल चित्त रहना चाहिये। कोई उस खालको काष्टके टुकड़ेसे खुरखुरा करना चाहे तो वह नहीं कर सक्ता, इसीतरह कोई कितना कारण मिलावे साधुको नम्रता, मृदुता, सरलता, शुचिता, क्षमाभाव नहीं त्यागना चाहिये । (५) साधुको यदि लुटेरे आरेसे चीर भी डालें तो भी मंत्री. भाव या समाभावको नहीं त्यागना चाहिये। .. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पौरान। [१५७ इस सूत्रमें बहुत ही बढ़िया उत्तम मा हिंसा धर्मका उपदेश है। जैन सिद्धांतमें भी ऐसा ही कथन है। कुछ उपयोगी वाक्य नीचे दिये जाते है.-.. श्री बट्टकेरखामी मूलाचार अनगारभावनामें कहते हैंमक्खोमक्खणमेत्त भुति मुणी पाणवारणणिमित्तं । पाणं धम्मणि मत्तं धम्म पिचरंति मोक्ख ॥ ४९ ॥ भावार्थ-जैसे गाड़ीके पहिये तैल देकर रक्षा की जाती है वैसे मुनिराज प्राणों की रक्षानिमित्त भोजन करते हैं। प्राणोंको धर्मकेनिमित्त रखते हैं। धर्मो मोक्षके लिये भाचरण करते हैं। श्री कुंदकंदस्वामी प्रवचनसारमें कहते हैंसमसत्तुबंधुवग्गो समसुइदुक्खो पसंसणिदसमो। समलोट्टुचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ॥ ६२-३॥ मावार्थ-जो शत्रु व मित्र वर्गपर समभाव रखता है. सुख व दुःख पड़ने पर समभावी रहता है, प्रशंसा व निन्दा होनेपर निर्वि. कारी रहता है, कंकड़ व सुवर्णको समान देखता है, जीने या मरने में हर्ष विषाद नहीं करता है वही श्रमण या साधु है। श्री वट्टकरस्वामी मूलाचार अनगार भावनामें कहते हैं..... वसुधम्मि वि विहरंता पीडं ण करेंति कस्सइ कयाई। जीवेसु दयावण्णा माया जह पुत्तभंडेसु ॥ ३२॥ भावार्थ-साधुजन पृथ्वीमें विहार करते हुए किसीको भी कभी पीड़ा नहीं देते हैं । वे सर्व जीवोंपर ऐसी दया रखते हैं जैसेमाताका प्रेम पुत्र पुत्री मादि पर होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री गुणमद्राचार्य जात्मानुशासनमें कहते हैं:मधीत्य सकलं श्रुतं चिरमुपास्य घोर तपो।। ... यदीच्छसि फलं तयोरिह हि लाभपूनादिकम् ॥ .. छिनत्सि सुतपस्तरोः प्रसवमेव शून्याशयः । कथं समुपलायसे सुरसमस्य पक्कं फलम् ॥ १८९ ॥ भावार्थ - सर्व शास्त्रोंको पढ़कर तथा दीर्घ कालतक घोर तप माधन कर यदि तू शास्त्रज्ञान और तपका फल इस लोकमें लाभ, पूजा, सत्कार आदि चाहता है तो तू विवेकशून्य होकर सुंदर तरूपी वृक्षके फूलको ही तोड़ डालता है। तब तू उस वृक्षके मोक्षरूपी पक्के फलको कैसे पा सकेगा ? तपका फल निर्वाण है, यही मावना करनी योग्य है। श्री शुषचंद्राचार्य ज्ञानार्णवमें कहते हैं-- अभयं यच्छ भूतेषु कुरु मैत्रीमनिन्दिताम् । पश्यात्मसदशं विश्व बीवलोकं चराचरम् ॥ ५२-८॥ भावार्थ-सर्व प्राणियोंको अभयदान दो, सर्वसे प्रशंसनीय मैत्रीभाव करो, जगतके सर्व स्थावर व अस प्राणियोंको अपने • समान देखो। श्री सारसमुच्चयमें कहते हैं मैत्र्यड़ना सदोपास्या हृदयानन्दकारिणी । या विधत्ते कृतोपास्तिश्चित्तं विद्वेषर्जित ॥ २६ ॥ भावार्थ-मनको मानन्द देनेवाली मैत्रीरूपी स्त्रीका सदा सेवन करना चाहिये । उसकी उपासना करनेसे चित्तसे द्वेष निकल जाता है। सर्वसत्वे दया मैत्री य: करोति सुमानसः । जयत्यसावरीन् सर्वान् ब ह्य भ्यन्त र संस्थितान् ॥ २६१ ।। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और बलशान। .[NEX मावार्थ-जो कोई मनुष्य सर्व प्राणीमात्रपर दया तथा मैत्रीभाव करता है वह बाहरी व भीतरी रहनेवाले सर्व शत्रुओंको जीत लेता है। मनस्यालहादिनी सेच्या सर्वकाळसुखपदा । उपसेच्या त्वया मद् ! क्षमा नाम कुळाजना ॥ २६५ ॥ भावार्थ-मनको प्रसन्न रखनेवाली व सर्वकाल सुख देनेवाली ऐसी क्षमा नाम कुलवधूका हे मद्र! सदा ही तुझे सेवन करना चाहिये। आत्मानुशासनमें कहा हैहृदयसरसि यावनिमले प्यत्यगधे ।। 'वसति खलु कषायप्राइचक्रं समन्तात् ॥ अयति गुणगणोऽयं तन तावद्विशङ्ख । समदमयमशेषैस्तान् विजेतुं यतस्व ॥ २१३ ॥ भावार्थ-हे साधु ! तेरे मनरूपी गंभीर निर्मल सरोवरके भीतर जबतक सर्व तरफ क्रोधादि कषायरूपी मगरमच्छ बस रहे हैं तबतक गुणसमूह निशंक होकर तेरे भीतर माश्रय नहीं कर सके। इसलिये तु यत्न करके शांत भाव, इन्द्रियदमन व यम नियम मादिके द्वारा उनको जीत । वैराग्यमणिमालामें श्रीचंद्र कहते हैंभ्रातर्मे वचनं कुरु सारं चेत्त्वं वांछसि संसृतेपारं । मोहं त्यक्त्वा काम क्रोधं यज भज त्वं संयमवरबोधं ॥ ६ ॥ भावार्थ-हे भाई ! यदि तु संसार-समुदके पार जाना चाहता है तौ मेरा यह सार वचन मान कि तु मोहको त्याग, कामभाव व क्रोधको छोड़ और तू संयम सहिन :त्तम ज्ञानका मजन कर । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1407 दूसरा मार्ग । देवसेनाचार्य 'तत्वसारमें कहते हैं ३७ ॥ ageमाणा दिट्ठा जीवा सब्वेवि तिडुणणत्यादि । बो मज्झत्यो जोई ण य तूसह व रूसे ॥ भावार्थ - जो योगी अपने समान तीन लोकके जीवों को देखकर मध्यस्थ या वैराग्यवान रहता है-न वह किसीपर क्रोध करता है में किसीपर हर्ष करता है । " (१७) मज्झिमनिकाय अलगद्दमय सूत्र । गौतमबुद्ध कहते हैं - कोई २ मोष पुरुष गेय, व्याकरण, गाथा, उदान, इतिवृत्तक, जातक, अद्भुत धर्म, वैदल्प, इन नौ प्रकारके धर्मोपदेशको धारण करते है वे उन धर्मोको धारण करते भी उनके ast प्रज्ञासे नहीं परखते हैं । अर्थोको प्रज्ञासे परखे विना धर्मोका भाशय नहीं समझते। वे या तो उपारंग (सहायता) के लाभ के लिये धर्मको धारण करते हैं या बादमें प्रमुख बनने के लाभके लिये धर्मको धारण करते हैं और उसके अर्थको नहीं अनुभव करते हैं । उनके लिये यह विपरीत तरहसे धारण किये धर्म अहित और दुःखके लिये होते हैं । जैसे भिक्षुओ ! कोई अलगद (सांप) चाहनेवाला पुरुष अलगद्दकी खोज में घूमता हुआ एक महान् अलगद्दको पाए और उसे देहसे या पूंछ से पकड़े, उसको वह अलगद्द उलटकर हाथमें, बांहमें या अन्य किसी अंग में डंस ले । वह उसके कारण मरणको या मरणसमय दुःखको प्राप्त होवे, ऐसे ही वह भिक्षु ठीक न समझनेवाला दुःख पावेगा । I Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वान। . [१६१ परन्तु जो कोई कुलपुत्र धर्मो देशको धारण करते हैं, उन धोको धारणकर उनके अर्थको प्रज्ञासे पाखते हैं, प्रज्ञासे परखकर धर्मो के अर्थको समझते हैं वे उपारंभ लाम व वादमें प्रमुख बननेके लिये धोको धारण नहीं करते हैं, वे उनके अर्थको अनुभव करते हैं । उनके लिये यह सुग्रहीत धर्म चिरकाल तक हित और मुखके लिये होते हैं। जैसे भिक्षुभो ! कोई अलगद्द गवेषी पुरुष एक महान अलगद्दको देखे, उसको सांप पकड़ने के अनपद दंडसे अच्छी तरह पकड़े। गर्दनसे ठीक तौरपर पकड़े, फिर चाहे वह भलगढ़ उस पुरुषके हाथ, पांव, या किसी और अंगको अपने देहसे परिवेष्ठित करे, किंतु वह उसके कारण मरणको व मरण समान दुःखको नहीं प्राप्त होगा। मैं बेड़ीकी भांति निस्तरण (पार जाने) के लिये तुम्हें धर्मको उपदेशता हूं, पकड़ रखनेके लिये नहीं। उसे सुनो, अच्छी तरह मनमें करो, कहता हूं जैसे भिक्षुमओ ! कोई पुरुष कुम र्ग जाते एक ऐमे महान् समुद्रको प्राप्त हो जिसका इधरका तीर भयमे पूर्ण हो और उघरका तीर क्षेमयुक्त और भयरहित हो। वहां न पार लेजाने वाली नाव हो न इधरसे उधर जानेके लिये पुल हो। तब उसके मनमें हो-क्यों न मैं तृण काष्ठ-पत्र जम कर बेड़ा बधूं और उस बेड़े के सहारे स्वस्तिपूर्वक पार उतर जाऊं । तब वह बेड़ा बांधकर उस बेड़ेके सहारे पार उतर जाए। उत्तीर्ण हो नेपा उमके मनमें ऐसा हो - यह बेड़ा मेरा बड़ा उपकारी हुआ है क्यों न मैं इसे शिरपर या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] दुसरा भाग। कंधेपर रखकर जहां इच्छा हो वहां जाऊं तो क्या ऐसा करनेवाला उस बेड़े कर्तव्य पालनेवाला होगा ? नहीं। किंतु वह उस बेड़ेसे दुःख उठानेवाला होगा। परन्तु यदि पारंगत पुरुषको ऐसा होक्यों न मैं इस बेड़े को स्थलपर रखकर या पानीमें डालकर जहां इच्छा हो वहां जाऊं तो भिक्षुओ ! ऐसा करनेवाला पुरुष उस बेड़े के सम्बन्धमें कर्तव्य पालनेवाला होगा। ऐसे ही भिक्षुओ ! मैंने बेडेकी भांति विस्तरणके लिये तुम्हें धर्मोको उपदेशा है, पकड रखनेके लिये नहीं । धर्मको बेड़े के समान ( कुरलूमम ) उपदेश जानकर तुम धमको भी छोड दो. अधर्मकी तो बात ही क्या ? भिक्षुओ ! ये छः दृष्टि-स्थान हैं । आर्यधर्मसे अज्ञानी पुरुष रूप (Matter) को 'यह मेग है' 'यह मैं हूँ' 'यह मेरा आत्मा है। इस प्रकार समझता है इसी नम्ह (२) वेदनाको, (३) संज्ञाको. (४) संस्कारको, (५) विज्ञानको, (६) जो कुछ भी यह देखा, सुना, यादमें आया, ज्ञात, प्राप्त, पर्योषित (खोना), और मन द्वारा मनुविचारित (पद र्थ) है उसे भी · यह मेरा है ' ' यह मैं हूं' * यह मेरा आत्मा है' इस प्रकार समझता है । जो यह (छः) दृष्टि स्थान हैं सो लोक है. सोई आत्मा है, मैं मरकर सोई नित्य, ध्रुव, शाश्वत, निर्विकार (मविपरिणाम धर्मा, आत्मा होऊँगा और अनन्त वर्षोंतक वैसा ही स्थित रहूंगा । इमे भी यह मेरा है। यह मैं हूं' 'यह मेरा आत्मा' है इस प्रकार समझता है। परन्तु भिक्षुओ ! आर्य धर्मसे परिचित ज्ञानी भार्य श्रावक (१) रूपको 'यह मेरा नहीं' 'यह मैं नहीं हूं' 'यह मेरा आत्मा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१६३ नहीं है'-इस प्रकार समझता है इसी तरह, (२) वेदनाको (३) सज्ञाको (४) संस्कारको, (५) विज्ञानको, (६) उसे कुछ भी देखा मुना या मनद्वारा अनुविचारित है उसको जो यह (छः) इष्टि स्थान है सो लोक है सो आत्मा है इत्यादि । यह मेरा भात्मा नहीं है। इस प्रकार समझता है । वह इस प्रकार समझते हुए अवनित्रास (मल) को नहीं प्राप्त होता। क्या है बाहर अशनिपरित्रास-किसीको ऐसा होता है अहो पहले यह मेरा था, अहो अब यह मेरा नहीं है, अहो मेरा होवे, अहो उसे मैं नहीं पाता हूं। वह इस प्रकार शोक करता है, दुःखित होता है, छाती पीटकर क्रन्दन करता है । इस प्रकार बाहर मशनिपरित्रास होता है। क्या है बाहरी अशनि-अपरित्रास जिस किसी भिक्षुको ऐसा नहीं होता यह मेरा था, महो इसे मैं नहीं पाता हूं वह इस प्रकार शोक नहीं करता है, मुर्छित नहीं होता है । यह है बाहरी अशनि-अपरित्रास । क्या है भीतर अशनिपरित्रास-किसी भिक्षुको यह दृष्टि होती है । सो लोक है, सो ही आत्मा है, मैं मरकर सोई नित्य, ध्रुव, शाश्वत निर्विकार होऊंगा और मनन्त वर्षातक वैसे ही रहूंगा। वह तथागत (बुद्ध) को सारे ही दृष्टिस्थानों के अधिष्ठान, पर्युस्थान (उठने), मभिनिवेश (भाग्रह ) और अनुशयों (मकों) के विनाशके लिये, सारे संस्कारोंको शमनके लिये, सारी ठाधियोंके परित्यागके लिये भौर तृष्णाके क्षयके लिये, विराग, निरोष ( रागादिके नाश ) और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ J दूसरा भाग । निर्वाण के लिये धर्मोपदेश करते सुनता है । उसको ऐसा होता है'मैं उच्छिन्न होऊंगा, और में नष्ट होऊंगा। हाय ! मैं नहीं रहूंगा ! वह शोक करता है, दुःखित होता है, मूर्छित होता है। इस प्रकार अशनि परित्रास होता है। क्या है अशनि अपरित्रास, जिस किसी भिक्षुको ऊपरकी ऐसी दृष्टि नहीं होती है वह मूर्छित नहीं होता है। भिक्षुभो ! उस परिग्रहको परिग्रहण करना चाहिये जो परिग्रह कि नित्य, ध्रुव, शाश्वत् निर्विकार अनन्तवीर्य वैसा ही रहे । भिक्षुओ ! क्या ऐसे परिग्रहको देखते हो ! नहीं । मैं भी ऐसे परिग्रहको नहीं देखता जो अनन्त वर्षोंतक वैसा ही रहे। मैं उस आत्मवादको स्वीकार नहीं करता जिसके स्वीकार करनेसे शोक, दुःख व डोर्मनस्य उत्पन्न हो । न मैं उस दृष्टि निश्चय (धारणा के विषय) का आश्रय लेता हूं जिससे शोक व दुःख उत्पन्न हो । भिक्षुओ ! आत्मा और आत्मीयके ही सत्यतः उपलब्व होनेपर जो यह दृष्टि स्थान सोई लोक है सोई आत्मा है इत्यादि । क्या यह केवल पूरा बालधर्म नहीं है । वास्तवमें यह केवल पूरा बालधर्म है तो क्या मानते हो भिक्षुओ ! रूप नित्य है या अनित्य - अनित्य है । जो आपत्ति है वह दुःखरूप है या सुखरूप है - दुःखरूप है । जो अमिय, दुःख स्वरूप और परिवर्तनशील, विकारी है क्या उसके किये यह देखना - यह मेरा है, यह मैं हूं, यह मरा आत्मा है, योग्य है ? नहीं। उसी तरह वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञानको 1 6 यह मेरा आत्मा नहीं' ऐसा देखना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat #4 www.umaragyanbhandar.com Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जौन बैद तत्वज्ञान । इसलिये भिक्षुमो ! भीतर (शरीग्में ) या बाहर, स्थूल या सूक्ष्म, उत्तम या निकृष्ट, दुर या निकट, जो कुछ भी भूत, भविष्य वर्तमान रूप है, वेदना है, संज्ञा है, सस्कार है, विज्ञान है वह सब मेरा नहीं है । 'यह मैं नहीं हूं' 'यह मेरा मात्मा नहीं है' ऐसा मले प्रकार समझकर देखना चाहिये । ऐसा देखनेपर बहुश्रुत आर्यश्रावक रूपमें भी निर्वेद ( उदासीनता ) को प्राप्त होता है, वेदनामें भी, संज्ञामें भी, संस्कारमें भी, विज्ञानमें भी निर्वेदको प्राप्त होता है। निर्वेदसे विरागको प्राक्ष होता है । विगग प्राप्त होनेपर विमुक्त होजाता है। रागादिसे विमुक्त होनेपर 'मैं विमुक्त होगया' यह ज्ञान होता है फिर जानता है-जन्म क्षय होगया, ब्रह्मचर्यवाप्त पूरा होगया, करणीय कर लिया, यहां और कुछ भी करनेको नहीं है। इस भिक्षुने अविद्याको नाच कर दिया है, उच्छिन्नमूल, अमावको प्राप्त, भविष्यमें न उत्पन्न होने लायक कर दिया है। इसलिये यह उक्षिप्त परिघ (जूएसे मुक्त) है। इस भिक्षुने पौर्वमविक (पुनर्जन्म सम्बन्धी) जाति संस्कार (जन्म दिलानेवाले पूर्वकृत कमौके चित प्रवाह पर पड़े संस्कार) को नाश कर दिया है, इसलिये यह संकीर्ण परिख (वाई पार) है। इस भिक्षुने तृष्णाको नाश कर दिया है इसलिये यह अत्यूद हरीसिक (जो हलकी हरीस जैसे दुनियांके भारको नहीं उठाए है) है। इस भिक्षुने पांच अवरभागीय संयोजनों ( संसारमें फंसानेवाले पांच दोष(१) सत्कायदृष्टि-शरीरादिमें आत्मदृष्टि, (२) विचिकित्सा-संशय, ३) शीलव्रत परामर्श-व्रत भाचरणका अनुचित अभिमान, (७) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसरा भाग। काम छन्द-भोगोंसे राग (५) व्यापाद (द्वेषभाव) नाश कर दिया है इसलिये यह निरर्गल (लगामरूपी संसारसे मुक्त) है। इस भिक्षुका अभिमान (ईका अभिमान) नष्ट होता है । भविष्यमें न उत्पन्न होनेलायक होता है, इसलिये वह पन्त ध्वज ( जिसकी रागादिकी ध्वजा गिर गई है , पन्त भार (जिसका भार गिर गया है, विसंयुक्त ( रागादिसे विमुक्त ) होता है । इसप्रकार मुक्त भिक्षुको इन्द्रादि देवता नहीं जान सक्ते कि इस तथागत ( भिक्षु) का विज्ञान इसमें निश्चित है, क्योंकि इस शरीरमें ही तथागत अन् अनुवेध ( अज्ञेय ) है। भिक्षुओ ! कोई कोई श्रमण ब्राह्मण ऐसे ( ऊपर लिखित) मादको माननेवाले, ऐसा कहनेवाले मुझे मसत्य, तुच्छ, मृषा, अभूत. झूठ लगाते हैं कि श्रमण गौतम वैनेयिक (नहींके चादको माननेवाला) है। वह विद्यमान सत्व (जीव या आत्मा) के उच्छेदका उपदेश करता है । भिक्षुओ ! जो कि मैं नहीं कहता। भिक्षुओ: पहले भी और अब भी मैं उपदेश करता हूं, दुःखको और दुःख निरोधको। यदि भिक्षुओ : तथागतको दुसरे निन्दते उससे तथागतको चोट, असंतोष और चित्त विकार नहीं होता । यदि दुसरे तथागतका सत्कार या पूजन करते हैं उससे तथागतको आनन्द. सोमनस्क. चित्तका प्रसन्नताऽतिरेक नहीं होता। जब दुसरे तथागतका सत्कार करते हैं तब तथागतको ऐसा होता है जो पहले ही त्याग दिया है। उसीके विषय में इस प्रकारके कार्य किये जाते हैं । इसलिये भिक्षुओ ! यदि दूसरे तुम्हें भी निन्दे तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [ १६७ उसके लिये तुम्हें चित्त विकार न आने देना चाहिये । यदि दूसरे तुम्हारा सत्कार करें तो उनके लिये तुम्हें भी ऐसा होना चाहिये । जो पहले त्याग दिया है उसीके विषय में ऐसे कार्य किये जा रहे हैं । इसलिये भिक्षुओ ! जो तुम्हारा नहीं है, उसे छोड़ो, उसका छोडना चिरकाल तक तुम्हारे हित सुखके लिये होगा । भिक्षुओ ! क्या तुम्हारा नहीं है ? रूप तुम्हारा नहीं है इसे छोड़ो । इसी तरह वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान तुम्हारा नहीं है इन्हें छोड़ो। जैसे इस जेतवन में जो तृण, काष्ट, शाखा, पत्र हैं उसे कोई अपहरण करे, जळाये या जो चाहे सो करे, तो क्या तुम्हें ऐसा होना चाहिये | 'हमारी चीजको यह अपहरण कर रहा है ?' नहीं, सो किस हेतु ! - यह हमारा आत्मा या आत्मीय नहीं है । ऐसे ही भिक्षुओ ! जो तुम्हारा नहीं है उसे छोड़ो। रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान तुम्हारा नहीं है इसे छोड़ो । 7 भिक्षुओ ! इसप्रकार मैंने धर्मका उत्तान वित्रत, प्रकाशित, आवरण रहित करके अच्छी तरह व्याख्यान किया है ( स्वाख्यात है ) । ऐसे स्वाख्यात धर्ममें उन भिक्षुओंके लिये कुछ उपदेश करनेकी जरूरत नहीं है जो कि (१) अर्हत् क्षीणास्रव ( रागादि मलसे रहित) होगए हैं, ब्रह्मचर्यवास पूरा कर चुके कृत करणीय, भार मुक्त, सच्चे अर्थको प्राप्त परिक्षीण भव संयोजन (जिनके भवसागर में डाळनेवाले बंधन नष्ट होगए हैं) सम्याज्ञानियुक्त ( यथार्थ ज्ञानसे जिनकी मुक्ति होगई है ) है ( २ ) ऐसे स्वाख्यात धर्ममें जिन भिक्षुयोंके पांच (ऊपर कथित) अवरभागीय संयोजन नष्ट होगए हैं, वे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] सभी औपपातिक (देव) हो। वहां जो परिनिर्वाणको प्राप्त होनेवाले हैं, उस कोकसे लौटकर नहीं आनेवाले (अनावृत्तिधर्मा, अनागामी) हैं । (३) ऐसे स्वास्यात धर्ममें जिन भिक्षुओंके राग द्वेष मोइ तीन संयोजन नष्ट होगए हैं, निर्बल होगए हैं वे सारे सकृदागामी (सकदएकवार ही इस लोकमें आकर दुःखका अंत करेंगे) होंगे। (४) ऐसे स्वाख्यात धर्ममें जिन भिक्षुओंके तीन संयोजन (राग द्वेष मोह) नष्ट होगए वे सारे नवर्तित होनेवाले संबोधि (बुद्धके ज्ञान) परायण स्रोतापन्न ( निर्वाणकी ओर ले जानेवाले प्रवाहमें स्थिर रीतिसे भारूड ) हैं। भिक्षुओ ! ऐसे स्वाख्यान धर्ममें जो भिक्षु श्रद्धानुसारी हैं, "धर्मानुसारी हैं वे सभी संबोधि परायण हैं । इसप्रकार मैंने धर्मका अच्छी तरह व्याख्यान किया है । ऐसे वख्यात धर्ममें जिनकी मेरे विषयमें श्रद्धा मात्र, प्रेम मात्र भी है वे सभी स्वर्गपरायण (स्वर्गगामी) हैं। नोट-उस सूत्र में स्वानुमत्रगम्य निर्वाणका या शुद्धामाका बहुत ही बढिया उपदेश दिया है जो परम कल्याणकारी है। इसको बारबार मनन कर समझना चाहिये । इसका भावार्थ यह है (१) पहले यह बताया है कि शास्त्रको या उपदेशको टीक ठीक समझकर केवल धर्म लाभके लिये पालना चाहिये, किसी लाभ व सत्कार के लिये नहीं। इस पर दृष्टांत सर्पका दिया है। जो सर्पको ठीक नहीं पड़ेगा उमे सर्प काट खाएगा, वह मर जायगा। परन्तु बो सर्पको ठीक२ पकडेगा वह सर्पको वश कर लेगा । इसी तरह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद तत्वान। [१९ जो धर्मके मसली तत्वको उल्टा समझ लेगा उसका भहित होगा। परन्तु जो ठीक ठीक भाव समझेगा उसका परम हित होगा । यही बात जैन सिद्धांतमें कहीं है कि ख्याति लाम पूजादिकी चाहके लिये धर्मको न पाले, केवल निर्वाणके लिये ठीक२ समझकर पाले, विपरीत समझेगा तो बाहरी ऊंचासे ऊंचा चारित्र पालनेपर भी मुक्ति नहीं होगी। जैसे यहां प्रज्ञासे समझनेका उपदेश है वैसे ही जैन सिद्धांतमें कहा है कि प्रज्ञासे या भेद विज्ञानसे पदार्थको समझना चाहिये कि मैं निर्वाण स्वरूप आत्मा भिन्न ई व सर्व रागादि विकप भिन्न हैं। (२) दुसरी बात इस सूत्र में बताई है कि एक तरफ निर्वाण परम सुखमई है, दूसरी तरफ महा भयंकर संसार है । बीचमें भकसमुद्र है। न कोई दूसरी नाव है न पुल है । जो माप ही मन. समुद्र तरनेकी नौका बनाता है व माप ही इसके सहारे चलता है बह निर्वाण पर पहुंच जाता है। जैसे किनारे पर पहुंचने पर चतुर पुरुष जिस नावके द्वारा चल कर माया या उसको फिर पकड़ कर धरता नहीं-उसे छोड़ देता है, उसी तरह ज्ञानी निर्वाण पहुंच कर निर्माण मार्गको छोड़ देता है। साधन उसी समय तक आवश्यक है जबतक साध्य सिद्ध न हो, फिर साधनकी कोई जरूरत नहीं। सुत्रमें कहा है कि धर्म भी छोडने लायक है सब अधर्मकी क्या बात । यही बात जैन सिद्धांतमें बताई है कि मोक्षमार्ग निश्चय धर्म और व्यवहार धर्मसे दो प्रकारका है । इनमें निश्चय मर्म ही यथार्थ मार्ग है, व्यवहार धर्म केवल निमित्त कारण है। निश्चय धर्म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ] .दूसरा भान। .. सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमय शुद्धात्मानुभव है या सम्यक्समाधि है, व्यवहार धर्म पूर्ण रूपसे साधुका चारित्र है, अपूर्णरूपसे गृहस्थका चारित्र है । गृही भी आत्मानुभवके लिये पूजापाठ जप तपादि करता है। जब स्वात्मानुभव निश्चयधर्मपर पहुंचता है तब व्यवहार स्वयं छूट जाता है । जब स्वानुभव नहीं होसक्ता फिर व्यवहारका माल म्बन लेता है । स्वानुभव उपादान कारण है। जब ऊंचा स्वानुभव होता है तब उससे नीचा छूट जाता है । साधु भी व्यवहार चारित्रद्वारा भात्मानुभव करते हैं, मात्मानुभवके समय व्यवहारचारित्र स्वयं छूट जाता है । जब मात्मानुभवसे हटते हैं फिर व्यवहारचारित्रका सहारा लेते हैं । इस अभ्याससे जब ऊंचा आत्मानुभव होता है तब नीचा छूट जाता है। इसी तरह जब निर्वाण रूप माप होजाता है. अनंतकाल के लिये परम शांत व स्वानुभवरूप होनाता है तब उसका साधनरूप स्वानुभव छूट जाता है । जैन सिद्धांतमें उन्नति करनेकी चौदह श्रेणियां बताई हैं, इनको पार करके मोक्ष लाभ होता है। मोक्ष हुमा, श्रेणियां दूर रह जाती हैं। वे गुणस्थानके नामसे कहे जाते हैं-उनके नाम हैं (१; मिथ्यादर्शन, (२) सासादन, (३) मिश्र, (४) भविरति सम्यग्दर्शन. (५) देशविरत, (६) प्रमत्त विरत, (७) अप्रमत्त विरत, (८) अपूर्वकरण, (९) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्मलोम, (११) उपशांत मोह, (१२) क्षीण मोह, (१३) सयोगकेवली जिन, (१४) अयोगकेवली जिन । इनमें से पहले पांच गृहस्थ श्रावकोंके होते हैं. छठेसे बारहवें तक साधुओंके व तेरह तथा चौदहवें गुणस्थान मर्हन्त सशरीर पर. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१७१ मात्माके होते हैं। सात व सातसे आगे सर्व गुणस्थान ध्यान व समाधिरूप है। जैसे निर्वाण का मार्ग स्वानुभवरूप निर्विकल्प है वैसे निर्वाण भी स्वानुभवरूप निर्विकल्प है । कार्य होनेपर नीचेका स्वानुभव स्वयं छूट जाता है । फिर इस सत्र में बताया है कि रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञानको व जो कुछ देखा सुन!, अनुभवा व मनसे विचार किया है उसे छोड़दो। उसमें मेरापना न करो ।यह सब न मेरा है न यह मैं हूं, न मेरा मात्मा है ऐसा अनुभव करो। यह वास्तवमें भेद विज्ञानका प्रकार है।. जैन सिद्धांतके अनुसार मतिज्ञान व श्रुतज्ञान पांच इन्द्रिय व मनसे होनेवाला पराधीन ज्ञान है. वह आप निर्वाणस्वरूप नहीं है । निर्वाण निर्विकल्प है, स्वानुभवगम्य है, वही मैं हूं या भात्मा है इस भावसे विरुद्ध सर्व ही इन्द्रिय व मनद्वारा होनेवाले विकल्प त्यागने योग्य हैं। यही यहां भाव है। इन्द्रियों के द्वारा रूपका ग्रहण करता है। पांचों इन्द्रियों के सर्व विषय रूप हैं, फिर उनके द्वारा सुख दुःख वेदना होती है, फिर उन्हींकी संज्ञारूप वृद्धि रहती है, उसीका वारवार चित्तपर असर पड़ना संस्कार है, फिर वही एक धारणारूप ज्ञान होजाता है, इसीको विज्ञान कहते हैं। वास्तवमें ये पांचों है। त्यागनेयोग्य हैं। इसी तरह मनवेद्वार होनेवाला सर्व विकल्प त्यागनेयोग्य हैं। जैन सिद्धान्तमें बताया है कि यह माप आत्मा अतीन्द्रिय है, मन व इन्द्रियोंसे अगोचर है। आपसे आप ही अनुभवगम्य है । श्रुतज्ञानका फल जो भावरूप स्वसंवेदनरूप मात्मज्ञान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ muv १७२ दूसरा भाग। है उसके सिवाय सर्व विचारूप ज्ञान पराधीन व त्यागनेयोग्य है, स्वानुभवमें कार्यकारी नहीं है । फिर सूत्रमें यह बताया है कि छ: दृष्टियोंका समुदायरूप जो लोक है वही मात्मा है, मैं मरकर नित्य, अपरिणामी ऐसा आत्मा होजाऊंगा। इसका भाव यही समझमें माता है कि जो कोई वादी मात्माको व जगतको सबको एक ब्रह्मरूप मानते है व यह व्यक्ति ब्रह्मरूप नित्य होजायगा इस सिद्धांतका निषेध किया है । इस कथनसे मनात, अमृत, शाश्वत, शांत, पहित वेद. नीय, तर्क अगोचर निर्वाण स्वरूप शुद्धात्माक निषेध नहीं किया है। उस स्वरूप मैं हूं ऐसा अनुभव करना योग्य है । उस सिवाय मैं कोई और नहीं हूँ न कुछ मेरा है, ऐसा यहां भाव है। (४) फिर यह बताया है कि जो इस ऊपर लिखित मिथ्या. दृष्टिको रखता है उसे ही भय होता है। मोडी व अज्ञानीको अपने नाशका भय होता है । निर्वाणका उपदेश सुनकर भी वह नहीं समझता है। रागद्वेष मोहके नाशको निर्वाण कहते हैं। इससे वह अपना नाश समझ लेता है । जो निर्वाणके यथार्थ स्वभाव पर दृष्टि रखता है, जिसे कोई भय नहीं रहता है, वह संसारके नाशको हितकारी जानता है। (५) फिर यह बताया है कि निर्वाणके सिवाय सर्व परिग्रह नाशवंत हैं। उसको जो अपनाता है वह दुःखित होता है । जो नहीं अपनाता है वह मुखी होता है । ज्ञानी भीतर बाहर. स्थूल • सूक्ष्म, दूर या निकट, भूत, भविष्य, वर्तमानके सर्व रूपों को, परमाणु या स्कंधोंको अपना नहीं मानता है। इसी तरह उनके निमित्तसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन बौद्ध तत्वज्ञान। [१७. होने वाले त्रिकाल सम्बन्धी वेदना, संज्ञा, संस्कार व विज्ञानको अपना नहीं मानता है । जो मैं परसे भिन्न हूं ऐसा अनुभव करता है वही ज्ञानी है, वही संसार रहित मुक्त होजाता है । (६) फिर इस सूत्रमें बताया है कि जो बुद्धको नास्तिकवादका या सर्वथा सत्यके नाशका उपदेशदाता मानते हैं सो मिथ्या है। बुद्ध कहते हैं कि मैं ऐसा नहीं कहता। मैं तो संसारक दुःखों के नाशका उपदेश देता हूं। (७) फिर यह बताया है कि जैसा मैं निन्दा व प्रशंसा सममाव रखता हूं व शोकित व नंदित नहीं होता हूं वैसा भिक्षु. ओंको भी निंदा व प्रशंसामे समभाव रखना चाहिये । (८) फिर यह बताया है कि जो तुम्हारा नहीं है उसे छोड़ो। रूपादि विज्ञान तक तुम्हारा नहीं है इसे छोडो। यही स्वाख्यात (भलेप्रकार कहा हुभा) धर्म है। (९) फिर यह बताया है कि जो स्वारूपात धर्मपर चलते हैं वे नीचे प्रकार अवस्थाओं को यथासंभव पाते हैं (१) क्षीणास्रब हो मुक्त हो जाते हैं, (२) देव गतिमें जाकर अनागामी होजाते हैं वहींसे मुक्ति पालेते हैं, (३) देवगतिसे एकवार ही यहां आकर मुक्त होंगे, उनको सकृदागागी कहते हैं, (४) स्रोतापन होजाते हैं, संसार सम्बन्धी रागद्वव मोह नाश करके संबोधिपरायण ज्ञानी होजाते हैं, ऐसे भी श्रद्धा मात्रसे स्वर्गगामी हैं। __ जैन सिद्धांतमें भी बताया है जो मात्र अविरत सम्यग्दृष्टी हैं, चारित्र रहित सत्य स्वाख्यात धर्मके श्रद्धावान हैं सच्चे प्रेमी हैं, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ]. दूसरा भाग। वे मरकर प्रायः स्वर्गमे जाते हैं। कोई देव गतिमें जाकर कई जन्मोंमें, कोई एक जन्म मनुष्यका लेकर, कोई उसी शरीरसे निर्वाण पालेते हैं। जैसे यहां राग द्वेष मोह को तीन संयोजन या मल बताया है वैसे ही जैन सिद्धांतमें बताया है। इनका त्यागना ही मोक्षमार्ग है व यही मोक्ष है। जैनसिद्धांतके कुछ वाक्यश्री अमितिगत आचार्य तत्वभावनामें कहते हैंयावच्चेतसि बाह्य वस्तुविषय: स्नेहः स्थिरो वर्तते । तावनश्यति दुःखदानकुशलः कर्मप्रपंचः कथम् ।। माईत्वे वसुधातळस्य सजटा: शुष्यति किं पादपाः। भृजत्तापनिपातरोधनपरा: शवोपशाखिन्विताः ॥ ९६ ॥ भावार्थ- जबतक तेरे मनमें बाहरी पदार्थोसे राग भाव स्थिर होरहा है तबतक किस तरह दुःखकारी कर्मोका तेग प्रपंच नाश होसक्ता है । जब पृथ्वी पानीसे भीजी हुई है तब उसके ऊपर सूर्य तापको रोकने वाले अनेक शाखाओंमे मंडित जटाधारी वृक्ष कैसे सूख सक्ते हैं ! शूरोऽहं शुभधीरहं पटुहं सर्वाधिकश्रीरहे । मान्योहं गुणवानहं विभुरहं पुंसामहं चाप्रणीः॥ इत्यात्मन्नपहाय दुष्कृतकरी त्वं सर्वथा कल्पनाम् । शश्वद्ध्याय तदात्मतत्वममलं नश्रेयसी श्रीर्यतः ॥ ६२ ॥ भावार्थ-मैं शूर हूं, मैं बुद्धिशाली हूं, मैं चतुर हूं, मैं धनमें श्रेष्ठ हूं, मैं मान्य हू, मैं गुणवान हूं, मैं बलवान हूं, मैं महान पुरुष हूं। इन पापकारी कल्पनाओंको हे आत्मन् ! छोड़ और निरंतर अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन बौद्ध तत्वज्ञान । १७५ शुद्ध आत्मतत्वका ध्यान कर, जिससे भपूर्व निर्वाण लक्ष्मीका लाम हो। नाहं कस्यचिदस्मि कश्चन न मे भावः परो विद्यते । मुक्त्वात्मानमपास्तकर्मसमिति ज्ञानेक्षणालंकृतिम् ॥ ... . यस्यैषा मतिरस्ति चेतसि सदा ज्ञातात्मतत्वस्थितेः। . बंधस्तस्य न यंत्रितं त्रिभुवनं सांसारिकैबन्धनैः ॥ ११ ॥ भावार्थ- मेरे सिवाय मैं किसीका नहीं हूं न कोई परमाव मेरा है । मैं तो सर्व कर्मजालसे रहित, ज्ञानदर्शनसे विभूषित एक मात्मा हूं, इसको छोडकर कुछ मेरा नहीं है। जिसके मन में यह बुद्धि रहती है उस तत्वज्ञानी महात्माके तीन लोकमें कहीं भी संसारके बंधनोंसे बन्ध नहीं होता है। मोहांधानां स्फुरति हृदये बाह्यमात्मीयबुध्या । निर्मोहानां व्यपगतमल: शश्वदात्मैव नित्यः ॥ यत्तभेदं यदि विविदिषा ते स्नकीय स्वकीयमोह चित्त ! क्षपयसि तदा किं न दुष्ट क्षणेन ॥ ८८ ॥ भावार्थ-मोहसे मन्ध जीवोंके भीतर अपनेसे बाहरी वस्तुमें मात्मबुद्धि रहती है, मोह रहितों : भीतर केवल निर्वाण स्वरूप शुद्ध नित्य भात्मा ही अकेला बसता है। जब तु इस भेदको जानता है तब तू अपना दुष्ट मोह उन सबसे क्षणमात्रमें क्यों नहीं छोड़ देता है। तत्वज्ञानतरंगिणीमें ज्ञानभूपण भट्टारक कहते हैंकीर्ति वा पररंजन स्व विषयं के चिन्निनं जीवितं । संतानं च परिप्रहं भयमपि ज्ञान तथा दर्शनं ॥ अन्यस्याखिलवस्तुनो रूगयुर्ति र द्वयुमुद्दिश्य च । कुयुः कर्म विमोहिनो हि सुधियश्चिद्रूपलब्ध्यै परं ॥९-९॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ -इस संपारमें मोही पुरुष कीर्ति के लिये, कोई पररंगनके लिये, कोई इन्द्रिय विषय के लिये, कोई जीवनकी रक्षाके लिये, कोई संतान, कोई परिग्रह प्राप्तिके लिये, कोई भय मिटाने के लिये, कोई ज्ञानदर्शन बढ़ाने के लिये, कोई राग मिटाने के लिये धर्मकर्म करते हैं, परन्तु जो बुद्धिमान हैं वे शुद्ध चिपकी प्राप्तिके लिये ही यत्न करते हैं। समयसार कलशमें श्री अमृतचंद्राचार्य कहते हैंरागद्वेषविभावमुक्तमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः पूर्वागामितमस्तकमविकला मिन्नास्तदात्योदयात् । दूगरूढचरित्रवैभवपलाञ्चञ्चच्चिदर्चिष्मयों विन्दन्ति स्वरसाभषिक्तभुवन बानस्य संचेतना ॥ ३०-१०॥ भावार्थ-ज्ञानी जीव रागद्वेष विभावोंको छोड़कर सदा अपने स्वभावको स्पर्श करते हुए, पूर्व व आगामी व वर्तमानके तीन काल सम्बन्धी सर्व कर्मोसे अपनेको रहित जानते हुए स्वात्म रमणरूप चारित्रमें भारुढ़ होते हुए भात्मीक मानन्द-रससे पूर्ण प्रकाशमयी ज्ञानकी चेतनाका स्वाद लेते हैं। कृतकारितानुमनने स्त्रकार विषयं मनोवचनकायैः । परिहत्य कर्म सर्व प म ने यमबलम्बे ॥ ३२-१० ॥ भावार्थ- भून भविष्य वर्तमान सम्बन्धी मन वचन काय द्वारा कृत, कारित, अनुमोदनासे नौ प्रकार के सर्व कोको त्यागकर मैं परम निष्कर्म भावको धारण करता हूं। ये ज्ञानमात्रनिजभ वमयीमकम्पां । भूमि श्रयन्ति कथमप्यपनीतमोहाः ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । ते साधकत्वमधिगम्य भवन्ति सिद्धाः । मूढास्त्यमनुप भावार्थ- जो ज्ञानी सर्व प्रकार मोहको दूर करके ज्ञानमयी अपनी निश्चल भूमिका आश्रय लेते हैं वे मोक्षमार्गको प्राप्त होकर सिद्ध परमात्मा होजाते हैं, परन्तु अज्ञानी इस शुद्धात्मीक भावको न पाकर संसार में भ्रमण करते हैं । तत्वार्थसार में कहते हैं [ 700 परिभ्रमन्त ॥ २०-११ ॥ अकामनिर्जरा बाळतपो मन्दकषायता । सुधर्मश्रवणं दानं तथापतन सेवनम् ॥ ४२-४ ॥ सरागसंयमश्चैव सम्रक्त देशसंयमः । इति देवायुषो ह्येते भवन्त्यासत: ॥ ४३-४ ॥ भावार्थ- देव आयु बांधकर देवगति पानेके कारण ये हैं(१) अक्काम निर्जरा - शांति कष्ट भोग लेना, (२) बालतप-अत्मानुभव रहित इच्छाको रोकना, ३) मद वपाय- क्रोधादिकी बहुत कमी, (४) धर्मानुराग रहित भिक्षुका चारित्र पालना, (५) गृहस्थ श्रावक का संयम पालना, (६) दर्शन मात्र होना । सार समुच्चय में कहा है मात्मानं स्नापयेन्नित्यं ज्ञ नीरेण चारुगा । रोग निर्मतां याति जीवोन्मत पि ॥ ३१४ ॥ भावार्थ - अपने को सदा पवित्र ज्ञानपी जल से स्नान कराना चाहिये | इसी खान से यह जीव जन्म जन्म के मैल से छूटकर पवित्र होजाता है । १२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] दूसग भाम् । (१८) मज्झिमनिकाय वम्मिक (वल्मीक) सूत्र। एक देवने अायुष्यमान् कुमार काश्यपसे कहाभिक्षु ! यह वल्मीक रातको धुंधवाता है, दिनको बलता है। ब्राह्मणने कहा- सुमेध ! शस्त्रसे अभीक्षण ( काट ) सुमेधने शस्त्रसे काटते लंगोको देखा, स्वामी लंगी है । ___ बा० - लंगीको फेंक, शस्त्रसे काट । सुमेधने धुंधवाना देखकर कहा धुंधवाता है । ब्रा०-धुंधवानेको फेंक, शम्रमे काट । सुमेधने कहा-दो रास्ते हैं । ब्रा०-दो रास्ते फेंक । सुमेध - चंगवार ( टोकर ) है। बाल-चंगवार फेंक दे । सुमेध-कूर्म है। ब्रा०- कूर्म फेंक दे। सुमेघ-असिसूना ( पशु मारनेका पीढ़ा ) है । ब्रा०-अमिमूना फेंक दे । सुमेघ-मांसपेशी है। ब्रा०-मांसपेशी फेंक दे। सुमेध - नाग है। ब्रा०-हने दे नागको, मत उसे धक्का दे. नागको नमस्कार कर । देवने कहा- इसका भाव बुद्ध भगवानसे पृछन । तब कुमार काश्यपने बुद्धसे पूछा। गौतमबुद्ध कहते हैं-(१) वल्मीक यह माता पितासे उत्पन्न, भातदालमे वर्धित, इसी चातुर्नीतिक ( पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुरूपी ) कायाका नाम है जो कि अनित्य है तथा उत्पादन (हटाने) भर्दन, भेदन, विश्वसन स्वभाववाला है, (२) जो दिनके कामों के लिये रातको सोचता है, विचाता है, यही गलका धुंधवाना है, (३) जो रातको सोच विचार कर दिनको वीया और बचनसे कायोंमें योग देता है । यह दिनका धकना है, (४) ब्रह्मग-अईत् सम्यक् Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। . [१७५ सम्बुद्धका नाम है, (५) सुमेध यह शैक्ष्य भिक्षु ( जिसकी शिक्षाकी अभी आवश्यक्ता है ऐसा निर्वाण मार्गारूढ़ व्यक्ति) का नाम है, (६) शस्त्र यह आर्य प्रज्ञा ( उत्तम ज्ञान ) का नाम है, (७) अभीक्षण ( काटना ) यह वीर्यारंभ ( उद्योग) का नाम है, (८) लंगी भविद्याका नाम है । लंगीको फेंक सुमेध-अविद्याको छोड़, शस्त्रसे काट, प्रजासे काट यह अर्थ है, (१०) धुंधुमाना यह क्रोधकी परेशानीका नाम है, धुधुमानाके कदे-क्रोध मलको छोड़ दे, प्रज्ञा शस्त्रसे काट यह अर्थ है, (१०) दो रास्ते यह विचिकित्सा (संशय) का नाम है, दो रास्ते फेंक दे, संशय छोड़ दे, प्रज्ञासे काट दे, (११) चंगवार यह पांच नीवरणों ( भावरणों ) का नाम है जैसे-(१) कामछन्द ( भोगोंमें राग). (२) व्यापाद (परपीड़ा करण), (३) स्त्यानगृद्धि (कायिक मानसिक आलस्य, (४) औद्धत्य-कौकृत्य ( उच्छंखता और पश्चाताप ) (५) विचिकित्सा (संशय), चावार फेंक दे । इन पांच नीवरणोंको छोड़ दे, प्रज्ञासे काट दे, (१२) कूर्म यह पांच उपादान स्कंधोंका नाम है । जैसे कि __ (१) रूप उपादान स्कंध, (२) वेदना उ०, (३) संज्ञा उ०, (४) संस्कार उ०, (५) विज्ञान उ०, इस कर्मको फेंकदे । प्रज्ञा अस्त्रसे इन पांचोंको काट दे। (१३) असिसूना-यह पांच कामगुणों (भोगों) का नाम है। जैसे (१) चक्षु द्वारा प्रिय विज्ञेय रूप, (२) श्रोत्र विजय प्रिय शब्द, (३) घ्राण विज्ञेय सुगन्ध, (४) जिहा विज्ञेय इष्ट रस, (५) काय विज्ञेय इष्ट स्पृष्टव्य । इस असिसनाको फेंक दे, प्रज्ञासे इन पांच कामगुणोंको काट दे। (१४) मांसपेशी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ] दूसरा भाग । यह नन्दी (राग) का नाम है। इस मांशपेशीको फेंक दे। नन्दी रागको प्रज्ञासे काट दे । (१५) भिक्षु ! नाग यह क्षीणास्रव ( भईत) भिक्षुका नाम है । रहनेदे नागको मत उसे धक्का दे, नागको नमस्कार कर, यह इसका अर्थ है । नोट - इस सूत्र में मोक्षमार्गका गूढ़ तत्वज्ञान बताया है। जैसे सापकी वल्मीक में सर्प रहता हो वैसे इस कायरूपी वल्मीक में निर्माण स्वरूप मत् क्षीणास्रव शुद्धात्मा रहता है। इस वल्मीकरूपी काय में क्रोधादि कषायका धूआं निकला करता है। इन कषायको प्रज्ञासे दूर करना चाहिये । इस कायमें अविद्यारूपी लंगी है। इसको भी प्रज्ञासे दूर करे । इस कायमें संशय या द्विकोटि ज्ञान रूपी दुविघा दो रास्ते हैं उसको भी प्रज्ञासे छेद डाल । इस कायमें पांच नीवरणोंका टोकरा है। इस टोकरे को भी प्रज्ञा से तोड़ डाळ । अर्थात राग, द्वेष, मोह, आलस्य उद्धता और संशयको मिटा डाल | इस कायमें रहते हु पांच उपादान स्कंधरूपी कृमि या कछुआ है इसको प्रज्ञा द्वारा फेंक दे । अर्थात् रूप व रूपसे उत्पन्न वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञानको जो अपने नागरूपी अरइत्का स्वभाव नहीं है उनको भी छोड़ दे। इस कायमें पांच काय गुणरूपी असिसना ( पशु मारने का पीढ़ा ) है इसे भी फेंक दे । पांच इन्द्रियोंके मनोज्ञ विषयोंकी चादको भी प्रज्ञासे मिटा डाल । इस कायमें तृष्णा नदीरूपी मांसकी डली है इसको भी प्रज्ञाके द्वारा दूर करदे । तब इस कायरूपी वल्मीक से निकल कर यह अर्हत् क्षीणास्रव निर्वाण स्वरूप आत्मारूपी निर्वाणरूप रहेगा । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१८१ इस तत्वज्ञानसे साफ प्रगट है कि गौतम बुद्ध निर्वाण स्वरूप मात्माको नागकी उपमा देकर पूजनेकी आज्ञा देते हैं, उसे नहीं फेंकते, उसको स्थिर रखते हैं और जो कुछ भी उसकी प्रतिष्ठाका विरोधी था उस सबको भेद विज्ञान रूपी प्रज्ञासे अलग कर देते हैं। यदि शुद्धात्माका अनुभव या ज्ञान गौतम बुद्धको न होता व निर्माणको अभावरूर मानते होते तो ऐसा कथन नहीं करते कि सर्व सांसारिक वासनाओंको त्याग कर दो। सर्व इन्द्रिय व मन सम्बन्धी क्रमवर्ती ज्ञानको अपना स्वरूप न मानो। सर्व चाहनाओंको हटावो । सर्व क्रोधादिको व गगद्वेष मोहको जीत लो । बस, अपना शुद्ध स्वरूर रह जायगा । यही शिक्षा जैन सिद्धांतकी है, निर्वाण स्वरूप मात्मा ही सिद्ध भगवान् है। उसके पर्व द्रव्यकर्म, ज्ञानावरणादि कर्म बंध संस्कार, भावकर्म रागद्वेषादि औपाधिक भाव नोकर्म-शरीरादि बाहरी मर्व पदार्थ नहीं है, न उमके क्रमवर्ती क्षयोपशम अशुद्ध ज्ञान है, न कोई इन्द्रिय है, न मन है। वही ध्यानके योग्य, पूजनके योग्य, नमस्कारके योग्य है। उसके ध्यानमे उसी स्वरूप द्वोजाना है। यही तत्त्वज्ञान इस सूत्रका भाव है व यही भैन सिद्धांतका मर्म है। गौतमबुद्धरूपी ब्राह्मण नवीन निर्वाणेच्छु शिष्यको ऐसी शिक्षा देते हैं। जबतक शरीरका संयोग है तबतक ये सर ऊपर लिखित उपाघियां रहती हैं, जब वह निर्वाण स्वरूप प्रभु शायसे रहित होकर फिर कायमें नहीं फंसता, वहीं निर्वाण होजाता है, प्रज्ञा निर्वाण और निर्वाण विरोधी सर्वके भिन्नर उत्तम ज्ञानको कहते हैं। जैन सिदा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। ' न्तमें प्रज्ञाकी बड़ी भारी प्रशंसा की है। जैन सिद्धांतके कुछ वाक्य श्री कुंदकुंदाचार्य समयसारमें कहते हैंजीवो बंधोय तहा हिजति सटक्खणेहिं णियएहिं । पण्णाछेदणएणदु छिण्णा णाणत्तमावण्णा ॥ ३१६ ॥ भावार्थ-अपने २ मिन्न २ लक्षणको रखनेवाले जीव और उसके बंधरूप कर्मादि, रागादि व शरीरादि हैं। प्रज्ञारूपी छेनीसे दोनोंको छेदनेसे दोनों मलग रह जाते है । अर्थात् बुद्धि में निर्वाण स्वरूप जीव भिन्न अनुभवमें माता है । पण्णाए वित्तव्यो जो चेदा सो अहं तु णिच्छयदो। अवसेमा जे भाषा ते मज्झपरित्त णादव्वा ॥३१९॥ भावार्थ-प्रज्ञा रूपी छेनीसे जो कुछ ग्रहण योग्य है वह चेत. नेवाला मैं ही निश्चयसे हूं । मेरे सिवाय बाकी सर्व भाव मुझसे पर हैं, जुदे हैं ऐसा जानना चाहिये । समयसारकलशमें कहा हैज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यों जानाति इस इव वा:पयसोविशेष । चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढो जानीत एव हि करोति न किश्चनापि ॥ १४-३ ।। भावार्थ-ज्ञानके द्वारा जो अपने मात्माको और परको मलग अलग इसतरह जानता है जैसे हंस दृध भौर पानीको अलग २ जानता है । जानकर वह ज्ञानी अपने निश्चल चैतन्य स्वभाव भारूढ़ रहता हुआ मात्र जानता ही है, कुछ करता नहीं है। श्री योगेन्द्रदेव योगसारमें कहते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जौन वैद्ध तत्वज्ञान । [१८३ अप्पा अप्पउ जइ मुणहि त उ णियाणु लहेहि। पर अप्पा जउ मुणिहि तुहुं तहु संसार भमेहि ॥ १२ ॥ भावार्थ-यदि तू अपनेसे आपको ही अनुभव करेगा तो निर्वाण पावेगा और जो परको आप मानेगा तोतृसंसारमें ही भ्रमेगा। जो परमप्पा सो जि हउ जो हउ सो परपप्पु । इउ जाणे विणु जेइआ अण्ण म कर हु वियप्पु ॥ २२ ॥ भावार्थ-जो परमात्मा है वही मैं हूं, जो मैं हूं. सो ही परमात्मा है ऐसा समझकर हे योगी ! और कुछ विचार न कर । सुद्ध सचेयण बुद्ध जिणु केवळणाणसहाउ । सो बप्पा अणुदिण मुणहु जइ चाउ सिवलाहु ॥ २६॥ भावार्थ-नो तु निर्वाणका लाभ चाहता है तो तू रात दिन उसी भात्माका अनुभव कर जो शुद्ध है, चैतन्यरूप है, ज्ञानी व वृद्ध है, रागादि विनयी निन है तथा केवलज्ञान स्वभाव धारी हैं। अप्पसरूवह जो रमइ छंटवि सहुववहारु । सो सम्माइटो हवइ लहु पाघइ भवपारु ॥ ८८ ॥ भावार्थ-जो कोई सर्व लोक व्यवहारसे ममता छोडकर अपने मात्माके स्वरूपमें रमण करता है वही सम्यग्दृष्टी है, वह शीघ्र संसारसे पार होजाता है। सारसमुच्चयम कहा हैशत्रुभावस्थितान् यस्तु करोति वशवर्तिनः । प्रज्ञाप्रयोगसामर्थ्यात् स शुरः स च पंडितः ॥ २९ ॥ भावार्थ-जो कोई राग द्वेष मोहादि भावोंको जो भात्माके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा माग। शत्रु हैं प्रज्ञाके प्रयोगके बलसे अपने वश कर लेता है वही वीर है व वही पंडित है। तत्वानुशासनमें कहा हैदिधासुः स्वं परं ज्ञात्वा श्रद्धाय च यथास्थिति । विहायान्यदायित्वात् स्वमेवावेतु पश्यतु ॥ १४३ ॥ नान्योऽस्मि नाहमस्त्यन्यो नान्यस्याहं न मे परः । अन्यस्त्वन्योऽइमे साइमन्योन्यस्याहमेव मे ॥ १४८ ॥ भावार्थ-ध्यानकी इच्छा करनेवाला आपको आप परको पर ठीक ठीक श्रद्धान करके अन्यको अकार्यकारी जानकर छोड़दे, केवल अपनेको दी जाने व देखे । मैं अन्य नहीं हूं न अन्य मुझ रूप है, न अन्यका मैं हूं, न अन्य मेरा है। अन्य अन्य है, मैं मैं हूं, भन्यका अन्य है. मैं मेरा ही हं, यही प्रज्ञा या भेदविज्ञान है । (१९) मज्झिमनिकाय रथविनीत सूत्र । एक दफे गौतम बुद्ध नगृहमें थे तब बहुतसे भिक्षु जातिभूमिक (कपिल वस्तु के निवासी ) गौतम बुद्धके पास गए । तब बुद्धने पूछा-भिक्षुओ ! जातिभूमिके भिक्षुओंमें कौन ऐसा संभावित (प्रतिष्ठित) भिक्षु है, जो स्वयं अपेच्छ (निर्लोभ) हो और अपे. च्छकी कथा कहनेवाला हो, स्वयं संतुष्ट हो और संतोषको कथा कहनेवाला हो, स्त्रयं प्रविविक्त (एकान्त चिन्तनशील) हो और अविवेककी कथा कहनेवाला हो। स्वयं असंतुष्ट (अनासक्त) हो व असं. सर्ग कथा कहनेवाला हो, स्वयं प्रारब्ब वीर्य (उद्योगी) हो, और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध ज्ञान | [ २८५ वीर्यारम्भकी कथा कहनेवाला हो, स्वयं शीकसम्पन्न ( सदाचारी ) हो, और शील सम्पदाकी कथा कहनेवाला हो, स्वयं समाधि संपन्न - दो और समाधि सम्पदाकी कथा कहनेवाला हो, स्वयं प्रज्ञा सम्पन्न हो और प्रज्ञा सम्पदाकी कथा कहनेवाला हो, स्वयं विभुक्ति सम्पन्न हो और विमुक्ति संपदा कथा कहनेवाला हो, स्वयं विमुक्ति ज्ञानदर्शन सम्पन्न ( मुक्तिके ज्ञानका साक्षात्कार जिसने कर लिया ) हो और विमुक्ति ज्ञान दशन सम्पदाकी कथा कहता हो, जो सब्रह्मचारियों ( सह धर्मियों ) के लिये अपवादक ( उपदेशक ), विज्ञापक, संदर्शक, समादयक, समुत्तेजक, सम्प्रहर्षक ( उत्साह देनेवाला) हो । तब उन भिक्षुओंने कहा कि जाति भूमिमें ऐसा पूर्ण मैत्रायणी पुत्र है तब पास बैठे हुए भिक्षु सारिपुत्रको ऐसा हुआक्या कभी पूर्ण मैत्रायणी पुत्रके साथ समामम होगा ? जब गौतमबुद्ध राजग्रहीसे चलकर श्रावस्ती में पहुंचे तब पूर्ण मैत्रायणी पुत्र भी श्रावस्ती आए और परसर धार्मिक कथा हुई । जब पूर्ण मैत्रायणी पुत्र वहीं बचपन में एक वृक्षके नीचे दिनमें विहार ( ध्यान स्वाध्याय) के लिये बैठे थे तत्र सारि पुत्र भी उसी वनमें एक वृक्ष के नीचे बैठे | सायंकालको सारिपुत्र ( प्रतिसंलपन) ( ध्यान ) से उठ पूर्ण मैत्रायणी पुत्रके पास गए और प्रश्न किया । आप बुद्ध भगवानू के पास ब्रह्मचर्यवास किस लिये करते हैं ! क्या शील विशुद्धिके लिये ? नहीं! क्या चित विशुद्धिके लिये ? नहीं ! क्या दृष्टि विशुद्धि ( सिद्धांत ठीक करने ) के लिये ? नहीं ! क्या संदेह दूर करनेके लिये ? नहीं ! क्या मार्ग थमार्गके ज्ञानके दर्शनकी विशुद्धिके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] दूसरा भाग। लिये ? नहीं । क्या प्रतिपद (मार्ग) ज्ञानदर्शनकी विशुद्धिके लिये ? नहीं ! क्या ज्ञानदर्शनकी विशुद्धि के लिये ? नहीं ! तब भाप किस लिये भगवान्के पास ब्रह्मचर्यवास करते हैं ? उपादान रहित (परिग्रह रहित) परिनिर्वाणके लिये मैं भगवान के पास ब्रह्मचर्यवास करता हूं। सारिपुत्र कहते हैं-तो क्या इन ऊपर लिखित पत्रोंसे अलग उवादान रहित परिनिर्वाण है ? नहीं। यदि इन धर्मोसे अलग उपादान रहित निर्वाण का मधिकारी भी निर्वाणको प्राप्त होगा, तुम्हें एक उपमा देता । उपमासे भी कोई२ विज्ञ पुरुष कहे का अर्थ समझते हैं। जैसे राजा प्रसेनजित कोसलको श्रावस्ती वसते हुए कोई भति आवश्यक काम साकेत (अयोध्या)में उत्पन्न होजावे। वहां जाने के लिये श्रावस्ती और साकेतके बीचमें सात स्थ विनीत (डाक) स्थापित करे। तब राजाप्रसेनमित श्रावस्तीसे निकलकर अंतःपुरके द्वारपर पहले स्थ विनीत (स्थकी डाक) पर चढ़े, फिर दूसरेपर चढे पहलेको छोडदे, फिर तीसरेपर चढ़े दुसरेको छोड़दे। इसतरह चलते चलते सातवें स्थविनीतसे साकेतके अंतपुरके द्वारपर पहुंच जावे तब वहां मित्र व भमात्यादि राजासे पंछे-क्या आप इसी स्थविनीत द्वारा श्रावस्तीसे साकेत भाए हैं ? तब राजा यही उत्तर देगा मैंने बीचमें सात रथ विनीत स्थापित किये थे । श्रावस्तीसे निकलकर चलते २ क्रमशः एकको छोड़ दूसरेपर चढ़ इस सातवें स्थविनीतसे साकेतके अंत:पुरके द्वारपर पहुंच गया हूं। इसी तरह शीलविशुद्धि तभीतक है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१८७ जबाइ, चित्त विशुद्धि न पत्त विशुद्ध तभीत ममत दृष्टि विशुद्धि न हो । हाट निशुद्ध बनातक है जबतक । ( संदेह वितरण विशुद्धि न : यह विशुद्धि नभीतक : जबतक मार्ग ज्ञान का विशुद्धि नही यह विशुद्धि तभात है जनक प्रतिज्ञानदर्शन विशुद्धि न हो। यह विशुद्धि तभी तक है अक ज्ञान दर्शन विशुद्धि न हो : ज्ञान दर्शन विशुद्धि तर्भ - सो ! अबतक उपादान रहित पसिनर्वाण को प्राप्त नहीं होता । मैं इसी अनुपादान परिनिर्वाण लिये भगवान के पास ब्रह्मचर्य प्रात करता हूं। सारिपुत्र प्रसन्न होजाता है । इस प्रकार दोनों महान गों ( महावीरों ने एक दूसरे को मुमाविकका अनुमोदन किया ! नोट -इस सूत्रस सच्चे मिना लक्षण प्रकट होता है जे सबसे पहले कहा है कि अल्पेच्छ हो इत्यादि। कि यह दिखलाया है कि निर्माण सर्व उपादान या पारन से रहित शुद्ध है। उसकी गुप्ति के लिये लात मार्ग यो श्रेणियों हैं। से मात जगह स्थ बदलकर मार्गक तब काले हुए कोई श्रावस्तीस साकत आ : चलनवालेका ध्येय बाकेत है । उसी ध्येयको सामने रखते हुए वह सात रथयोंकि द्वारा पहुंच जाये । इसी तरह साधकका ध्येय निरुपादान निर्माणपर पहुंचना है। इसीके लिये क्रमशः सात शक्तियोंमें पूर्णता प्राप्त करता हुआ निर्माण की तरफ बढ़ता है। (१) शीक विशुद्धि यो सदाचार पासनेसे चित्तविशुद्धि होगी। कामवासनासि रहित मन होगा । (२) फिर चित्त विशुद्धिसे दृष्टि विशुद्धि होगी अर्थात् श्रद्धा निर्मल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17। १८८] होगी, (३) फिर दृष्टि विशुद्धिसे कांक्षा वितरण विशुद्धि या संदेहरहित विशुद्धि होगी, (४) फिर इस निःसंदेह भावसे मार्ग अमार्ग ज्ञानदर्शन विशुद्धि होगी अर्थात् सुमार्ग व कुमार्गका यथार्थ भेदज्ञानपूर्ण ज्ञानदर्शन होगा, (५) फिर इसके अभ्याससे प्रतिपद् ज्ञानदर्शन विशुद्ध या सुमार्गके ज्ञानदर्शनकी निर्मलता होगी, (६) फिर इसके द्वारा ज्ञानदर्शन विशुद्धि होगी, अर्थात् ज्ञानदर्शन गुण निर्मल होगा, अर्थात् जैन सिद्धांतानुसार अनंत ज्ञान व अनंत दर्शन प्राप्त होगा, (७) फिर उपादान रहित परिनिर्वाण या मोक्ष प्राप्त हो जायगा जहां वेवल अनुभवगम्य एक भाप निर्वाण स्वरूप-सर्व सांसारिक वासनामोंसे रहित, क्रमवर्ती ज्ञानसे रहित, सिद्ध स्वरूप शुद्धामा रह जायगा। जैन सिद्धांतका भी यही सार है कि जब कोई साधक शुद्धात्मानुभवरूप समाधिको प्राप्त होगा जहां संदेहरहित मोक्षमार्गका ज्ञानदर्शन स्वरूप अनुभव है तब ही मलसे रहित हो, मईत केवली होगा। अनंत ज्ञान व अनंत दर्शनका धनी होगा। फिर आयुके अंतमें शरीर रहित, कर्म रहित, सर्व उपाधि रहित शुद्ध परमात्मा सिद्ध या निर्वाण स्वरूप होजायगा । भावार्थ यही है कि व्यवहारशील व चारित्रके द्वारा निश्चय स्वात्मानुभव रूप सम्यक्समाधि ही निर्वाणका मार्ग है। जैन सिद्धांतके कुछ वाक्यःमारसमुच्चयमें मोक्षमार्ग पथिकका स्वरूप बताया हैसंसारध्वंसिनी चर्थ ये कुर्वति सदा नराः । रागद्वेषहतिं कृत्वा ते यान्ति परमं पदम् ॥ २१६ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | १८९ भावार्थ - जो कोई मानव सदा राग द्वेषको नाश करके संसारको मिटानेवाले चारित्रको पालते हैं वे ही परमपद निर्वाणको पाते हैं। ज्ञानभावनया शक्ता निमृतेनान्तरात्मनः । अमत्तं गुणं प्राप्य लभन्ते हितामात्मनः ॥ २९८ ॥ भावार्थ- सम्यग्दृष्टी महात्मा साधु आत्मज्ञानकी भावना से हुए व दृढ़ता रखते हुए प्रमाद रहित ध्यानकी श्रेणियों में चढ़कर अपने आत्माका हित पाते हैं । सचि संसारवासभरूणां त्यक्तान्तर्बाह्यसंगिनाम् । विषयेभ्यो निवृत्तानां श्लाव्यं तेषां हि जीवितम् ॥ २१९ ॥ भावार्थ - जो महात्मा संसार के भ्रमण से भयभीत हैं, तथा रागादि अंतरङ्ग परिग्रह व धनधान्यादि बाहरी परिग्रहके त्यागी हैं तथा पांचों इन्द्रियों के विषयोंसे विरक्त हैं उन साधुओं का ही जीवन प्रशंसनीय है ! श्री समन्तभद्राचार्य रत्नकरण्ड श्रावकाचार कहते हैंशिवममरमरुञमक्ष वसन्याबाधं विशोकमपशङ्कम् । काष्टातसुख विद्याविभवं विमलं भजन दर्शन शरणः ॥४०॥ भावार्थ- सम्यग्दृष्टी जीव ऐसे निर्वाणका लाभका ही ध्येय रख धर्मका सेवन करते हैं जो निर्वाण नानन्दरूप है, जरा रहित है, रोग रहित है, बावा रहित है, शोक रहित है, भय रहित है, शंका रहित है, जहां परम सुख व परम ज्ञानकी सम्पदा है तथा जो सर्व मक रहित निर्मल शुद्ध है । श्री कुन्दकुन्दाचार्य प्रवचनसारमें कहते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। जो णिहदमोहंगठी रागपदोसे खवीय सामण्णे। . होज समसुहदुक्खो सो सोक्ख अक्खयं लहदि ॥१०७-२॥ जो खबिदमोहकलुसो विसयवित्तो मणो णरु भित्ता । समबढिदो सहावे सो अपाण हदि धादा ।। १०८-२ ।। इहलोग णिवेक्खो 'डबद्धो पाम लोयम् । जुत्ताहार विहारो रहिदकसाओ हुवे समणो ॥ ४२-३ ॥ भावार्थ-जो मोहकी गांठको क्षय करके साधुपदमें स्थित होकर -रागद्वेषको दूर करता है और सुख दुःखमें समभावका धारी होता है वही अविनाशी निर्वाण सुखको पाता है । जो महात्मा नोहरूप मैलको क्षय करता हुआ. पांचों इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त होता हुआ व मनको रोकता हुआ अपने शुद्ध स्वभावमें एकतासे ठहर जाता है, वही आत्माका ध्यान करनेवाल! है । जो मुनि इस लोकमें विषयोंकी आशासे रहित है, परलोकमें भी किसी पदकी इच्छा नहीं रखता है, योग्य आहार विहारका करनेवाला है तथा क्रोधादि कषाय रहित है वही साधु है। श्री कुंदकुंदाचार्य भावपाहुड़में कहते हैंजो जीवो भावतो जीवसहावं सुभावसजुत्तो । सो जरमरण विणासंकुणइ फुडं लहइ णिव्याण ॥ ६१ ॥ भावार्थ-जो जीव आत्माके स्वभावको जानता हुआ आत्माके स्वभावकी भावना करता है वह जरा मरणका नाश करता है और प्रगटपने निर्वाणको पाता है। श्री शुभद्राचार्य ज्ञानार्णवम कहते हैं- । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१११ अतुलसुखनिधानं ज्ञानविज्ञानबीजे विलयगतकलंक शांतविश्वपचारम् । गलितसकळशंकं विश्वरूपं विशालं ___ भन विगतविकारं स्वात्मनात्मानमेव ॥४३-१५॥ भावार्थ-हे आनन्द ! तू अपने ही आत्माके द्वारा अनंत सुख समुद्र, केवल ज्ञानका बीज, कलंक रहित, सर्व संकल्पविकल्प गहित, सर्वशंका रहित, ज्ञानापेक्षा सर्वव्यापी, महान, तथा निर्विकार मात्माको ही भज, उसीका ही ध्यान कर । ज्ञानभूषण भट्टारक तत्वज्ञानतरंगिणीमें कहते हैंसंगत्यागो निर्जनस्थानकं च तत्त्वज्ञानं सर्वचिंताविमुक्तिः । निधित्वं योगरोधो मुनीनां मुक्तये ध्याने हेतवोऽमी निरुक्ताः ॥८-१६॥ भावार्थ-परिग्रहका त्याग, निर्जनस्थान, तत्वज्ञान, सर्व चिंताओंका निरोध, बाधारहितपना. मन वचन काय योगोंकी गुप्ति, वे ही मोक्षके हेतु ध्यानके साधन कहे गए हैं। । श्री देवसेनाचार्य तत्वसारमें कहते हैंपरदव्वं देहाई कुणइ ममत्तिं च जाम तस्सुवरि । परसमयग्दो ताव बज्झदि कम्मे हि विविहे हि ॥ ३४ ॥ भावार्थ:-पर द्रव्य शरीरादि है। जब तक उनके ऊपर ममता करता है तबतक पर पदार्थमें रत है व तबतक नाना प्रकार कर्माको बांधता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) मज्झिमनिकाय-विवाय सूत्र। गौतमबुद्ध कहते हैं-नैवायिक (बड़ेलिया शिकारी) यह सोच कर निवाय (मृगोंके शिकार के लिये जंगलमे बोए खेत) नहीं बोता कि इस मेरे बोए निवायको खाकर मृग दीर्घायु हो चिरकाल तक गुजारा करें । वह इसलिये बोता है कि मृग इस मेरे बोए निवायको मूर्छित हो भोजन करेंगे, मदको प्राप्त होंगे, प्रमादी होंगे, स्वेच्छाचारी होंगे (और मैं इनको पकड़ लूंगा) । भिक्षुओ ! पहले मृगों (के दल) ने इस निवायको मर्छित हो भोजन किया । प्रमादी हुए (पकडे गए) नैवायिकके चमत्कारसे मुक्त नहीं हुए। दूसरे मृगों (के दल) ने पहले मृगोंकी दशाको विचार इस निवाय भोजनसे विस्त हो. भयभीत हो अरण्य स्थानों में विहार किया। ग्रीष्मके अंतिम मासमें घास पानीके क्षय होनेसे उनका शरीर भत्यंत दुर्बल होगया, बल वीर्य नष्ट होगया तब नैवायिकके बोए निवायको खाने के लिये लौटे, मूर्छित हो भोजन किया (पकडे गए)। तीसरे मृगों ( के दल ) ने दोनों मृगोंके दलोंकी दशाको देख यह सोचा कि 2.५ इस निकायको अमूर्छित हो भोजन करें। उन्होंने अमूर्छित हो भोजन किया। प्रमादी नहीं हुये। तब नैवायिकने उन भूगोंक गमन आगमनके मार्गको चारों तरफसे डंडोंसे घेर दिया । ये भी पकड़ लिये गये । चौथे मृगों ( के दल) ने तीनों मृगोंकी दशाको विचार यह सोचा कि हम वहां आश्रय लें जहां नैदायिककी गति नहीं है, वहां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | | १९३ अमूर्छित होकर निवायको भोजन करें। उन्होंने ऐसा ही किया । स्वेच्छाचारी नहीं हुए । तब नैशयिकको यह विचार हुआ कि वे मृग चतुर हैं । हमारे छोड़े निवायको खाते हैं परन्तु उसने उनके आश्रयको नहीं देख पाया जहांकि वे पकड़े जाते । तब नैवायिकको यह विचार हुआ कि इनके पीछे पड़ेंगे तब सारे मृग इस बोए निवासको छोड़ देंगे, वर्षो न हम इन चौथे मृगकी उपेक्षा करें. ऐसा मोच उपने उपेक्षित किया। इस प्रकार चौथे मृग नैवायिक के फंदसे छूटे - पकडे नहीं गए। भिक्षुभो ! अर्थ को समझने के लिये यह उपमा कहीं है। निवाय पांच कामगुणों ( पांच इन्द्रिय भोगों) का नाम है। नैवाधिक पापी मारा नाम है । गृण सह भ्रमण-ब्रह्मणोंका नाम है। पहले प्रकार के मृगों के समान भ्रमण ब्राह्मण इन्द्रिय विषयोंको मूर्ति हो भोग-नदी हुए. स्वेच्छाचारी हुए, मारके फंदे गए । दूसरे प्रकार के पहले श्रमण-ब्राह्मणों की दशा को विवार कर, विषयभोग सावित हो, स्थानका अवगान कर बिरने लगे। वहां शाहारी हुए, जमीनपर पडे फलोंको स्वानेवाले हुए। ग्रीष्मक अंत समघाम पानी के क्षय होने पर भोजन पाचवीर्यष्टतिष्टि हो गई। लौटकर वियोगको मूर्च्छित हो! करने को। मा फन्दे गए। तीसरे प्रकारणाने दोनों के श्रममन्त्र हामी दशः विवार यह सोचा बटन हम मूति हो विषयोग करें? ऐसा सोच कमूर्छित हो दियो या स्वेच्छाचारी नहीं हुए १३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४] दूसरा माग। किन्तु उनकी ये दृष्टियां हुई ( इन दृष्टियोंके या नयो पिचारमें फंस गए) (१) लोक शाश्वत है, (२) (अथवा) यह लोक नशाश्वत है, (३) लोक सान्त है, (१) (अथवा) लोक अनंत है, (५) सोई जीव है, सोई शरीर है, (६) (अथवा) जीव अन्य है, शरीर अन्य है, (७) तथागत (बुद्ध, मुक्त) मरनेके बाद होते हैं, (८) (अथवा) तथागत मरनेके बाद नहीं होते, (९) तथागत मरने के बाद होते भी हैं, नहीं भी होते, (१०) तथागत मरने के बाद न होते हैं न नहीं होते हैं । इस प्रकार इन (विकल्प जालोंमें फंसकर) तीसरे श्रमण-ब्राह्मण भी मारके फंदेसे नहीं छूटे। - चौथे प्रकारके श्रमण-ब्रह्मणोंने पहले तीन प्रकारके श्रमणब्राह्मणोंकी दशाको विचार यह सोचा कि क्यों न हम वहां माश्रय ग्रहण करें जहां मारकी और मार परिषद् की गति नहीं है। वहां हम अमूछित हो भोजन करेंगे. मदको प्राप्त न होंगे, स्वेच्छाचारी न होंगे, ऐसा सोच उन्होंने ऐसा ही किया। वे चौथे श्रमण ब्राह्मण मारके फंदेसे छूटे रहे। कैसे (आश्रय करनेसे) मार और मार परिषदकी गति नहीं होती। (१) भिक्षु कामों (इच्छाओं) से रहित हो, बुरी बातोंसे रहित हो, सवितर्क सविचार विवेकज प्रीतिसुख रूा प्रथम ध्यानको प्राप्त हो, विहरता है। इस क्षुिने माको अंबा कर दिया। मारकी चक्षुसे अगम्य बनकर वह भिक्षु पपी मारसे अदर्शन होगया । (२) फि. वह भिक्षु अवितर्क अविवार समाधिजन्य द्वितीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है। इसने भी मारको अंबा कर दिया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ , (३) फिर वह भिक्षु उपेक्षा सहित स्मृतिसहित, सुखविहारी तृतीय ध्यानको प्राप्त हो विहरता है। इसने भी मारको अंधा कर दिया । (४) फिर वह भिक्षु मदुःख व असुखरूप, उपेक्षा व स्मृतिसे परिशुद्ध चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । इसने भी मारको अन्धा कर दिया । (५) फिर वह भिक्षु रूप संज्ञाओंको, प्रतिषा ( प्रतिहिंसा ). संज्ञाओंको, नानापनकी संज्ञाओंको मनमें न करके " अनन्त आकाश है." इस आकाश आनन्त्य आयतनको प्राप्त हो विहरता है । इसने भी मारको अन्धा कर दिया । (६) फिर वह भिक्षु आकाश पतनको सर्वथा, अतिक्रमण कर "अनन्त विज्ञान है" इस विज्ञान- आनन्त्य- आयतनको प्राप्त हो विहरता है । इसने भी मारको अन्धा कर दिया । (७) फिर वह भिक्षु सर्वथा विज्ञान आयतनको अतिक्रमण कर " कुछ नहीं " इस आकिंचन्यायतनको प्राप्त हो विहरता है । इसने भी मारको अन्धा कर दिया । (८) फिर वह भिक्षु सर्वथा आकिंचन्यायतनको अतिक्रमण कर नैव संज्ञा न असंज्ञा आयनतको प्राप्त हो विहरता है । इसने भी मारको अन्धा कर दिया । ( ९ ) फिर वह भिक्षु सर्वथा नैव संज्ञा न मसंज्ञायतनको उल्लंघन कर संज्ञावेदथित निरोधको प्राप्त हो विहरता है । प्रज्ञासे देखते हुए इसके आस्रव परिक्षीण होजाते हैं । इस भिक्षुने मरको अन्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। कर दिया । यह मिक्षु मारकी चक्षुसे अगम्य वनकर पापीसे मदर्शन होगया । लोकसे विसत्तिक ( मनासक्त) हो उत्तीर्ण होगया है। नोट-इस सूत्रमें सम्यक्समाधिरूप निर्वाण मार्गका बहुत ही बढ़िया कथन किया है। तीन प्रकार के व्यक्ति मोक्षमार्गी नहीं हैं। (१) वे जो विषयोंमें लम्पटी हैं, (२) वे जो विषयभोग छोड़कर भाते परन्तु वासना नहीं छोड़ते, वे फिर लौटकर विषयोंमें फंस जाते। (३) वे जो विषयभोगोंमें तो मूर्छित नहीं होते, मात्रारूप अप्रमादी हो भोजन करते परन्तु नाना प्रकार विकल्प जालोंमें संदेहोंमें फंसे रहते हैं, वे भी समाधिको नहीं पाते । चौथे प्रकारके भिक्षु ही सर्व तरह संसारसे बचकर मुक्तिको पाते हैं, जो काम भोगोंसे विरक्त होकर रागद्वेष व विकला छोड़कर निश्चिन्त हो, ध्यानका अभ्यास करते हैं। ध्यानके अभ्यासको बढ़ाते बढ़ाते बिलकुल समावि भावको प्राप्त होनाते हैं तब उनके मास्रव क्षय होजाते हैं. वे संसारसे उत्तीर्ण होजाते हैं । वास्तवमें पांच इन्द्रियरूपी खेतोंको भनासक्त हो भोगना और तृष्णासे बचे रहना ही निर्वाण प्राप्तिका उपाय है । गृहीपदमें भी ज्ञान वैराग्ययुक्त भावश्यक अर्थ व काम पुरुषार्थ साधते हुए ध्यानका अभ्यास करना चाहिये । साधु होकर पूर्ण इन्द्रिय विजयी हो, संयम साधनके हेतु सरस नीरस भोजन पाकर ध्यानका अभ्यास बढाना चाहिये । ध्यान समाधिसे विभूषित वीतरागी साधु ही संसारसे पार होता है। ____ मब जैन सिद्धांतके कुछ वाक्य काम भोगोंके सम्बन्धमें कहते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | प्रवचनसार में कहा है:-- पुग उदिण्णता दुहिदा तहाहि विलय सोक्खाणि । इच्छंति अणुवंतिय बामरणं दुक्खसंतत्ता ॥ ७९-१ ॥ भावार्थ- संसारी प्राणी तृष्णाके वशीभूत होकर तृष्णाकी दाहसे दुःखी होते हुए इन्द्रिय भोगोंके सुखोंको बारबार चाहते हैं और भोगते हैं । मरण पर्यन्त ऐसा करते हैं तथापि संतापित रहते हैं। [ १९७ शिवकोट आचार्य भगवती आराधनामें कहते हैं । जीवस्स णत्थि तित्ती, चिरपि मोएहि मुंत्रमाणेहिं । तित्तीये विणा चित्तं सब्बूरं उब्वुर्द होइ ॥ १२६४ ॥ भावार्थ - चिरकाल तक भोगोंको भोगते हुए भी इस जीवको तृप्ति नहीं होती है। तृप्ति विना चिच घबड़ाया हुआ उड़ा लड़ा फिरता है । आत्मानुशासनमें कहा है दृष्ट्वा जनं व्रजसि किं विषयाभिलाषं स्वल्पोप्यसौ तब महज्जनयत्यनर्थम् । स्नेहाद्युपक्रमजुषो हि यथातुरस्य दोषो निषिद्धाचरणं न तथेतरस्य ॥ १९९ ॥ भावार्थ- हे मूढ़ ! तू ! तू लोगोंकी देखादेखी क्यों विषयभोगों की इच्छा करता है। ये विषयभोग थोड़े से भी सेवन किये जावें तौमी महान अनर्थको पैदा करते हैं । रोगी मनुष्य थोड़ा भी घी मादिका सेवन करे तो उसको वे दोष उत्पन्न करते हैं, वैसा दूपरेको नहीं उत्पन्न करते हैं । इसलिये विवेकी पुरुषोंको विषयाभिलाष करना उचित नहीं । श्री अमितगति तत्वभावनाम कहते हैं- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] दूसरा भाग। ध्यावृत्त्येन्द्रियगोचरोरुहने लोलं चरिष्णु चिरं । दुरि हृदयोदरे स्थिरतरं कृत्वा मनोमटम् ॥ ध्यानं ध्यायति मुक्तये भवततेर्निर्मुक्तभोगस्पृहो । नोपायेन विना कृता हि विधयः सिद्धिं लभन्ते ध्रुवम् ॥१४॥ भावार्थ-जो कोई कठिनतासे वश करनेयोग्य इस मनरूपी बंदरको, जो इन्द्रियोंके भयानक वामें लोभी होकर चिरकालसे चर रहा था, हृदयमें स्थिर करके बांध देते हैं और भोगोंकी वांछा छोड़कर परिश्रम के साथ निर्वाणके लिये ध्यान करते हैं, वे ही निर्वाणको पासक्ते हैं । विना उपायके निश्चयसे सिद्धि नहीं होती। श्री शुभचंद्र ज्ञानार्णवमें कहते हैंअपि संकल्पिताः कामाः संभवन्ति यथा यथा । तथा तथा मनुष्याणां तृष्णा विश्व विसति ॥३०-२०॥ भावार्थ-मानवोंको जैसे जैसे इच्छानुसार भोगोंकी प्राप्ति होती जाती है वैसे २ उनकी तृष्णा बढ़ती हुई सर्व लोक पर्यंत फैल जाती है। यथा यथा सृषी काणि खवशं यान्ति देहिनाम् ।। तथा तथा स्फुरत्युह दि विज्ञानभास्करः ।। ११-६० ॥ भावार्थ-जैसे जैसे प्राणियोंके वशमें इन्द्रियां माती जाती हैं वैसे वैसे आत्मज्ञानरूपी सूर्य हृदयमें ऊँचा ऊँचा प्रकाश करता जाता है। श्री ज्ञानभूषणनी तत्वज्ञानतरंगिणीमें कहते हैं--- खसुख न सुख नृगां किंत्यभिलाषाग्निवेदनाप्रतीकारः । सुखमेव स्थितिरात्मनि निराकुलत्वाद्विशुद्धपरिणामात् ॥४-१७॥ महून धारान् मया मुक्त सविकल्पं सुखं ततः । तन्नापूर्व निर्विकल्पे सुखेऽस्तीहा ततो मम ॥ १०-१७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [१९९ भावार्थ -इन्द्रिय जन्यसुख सुख नहीं है किंतु जो तृष्णारूपी भाग पैदा होती है उसकी वेदनाका क्षणिक इलाज है। सुख तो मात्मामें स्थित होनेसे होता है, जन परिणाम विशुद्ध हों व निराकुलता हो। __मैंने इन्द्रियजन्य सुखको बार बार भोगा है, वह कोई अपूर्व नहीं है। वह तो आकुलताका कारण है । मैंने निर्विकल्प आत्मीक सुख कभी नहीं पाया, उसीके लिये मेरी भावना है। (२१) मज्झिमनिकाय-महासारोपम सूत्र । गौतमबुद्ध कहते हैं-(१) भिक्षुओ ! कोई कुल पुत्र श्रद्धापूर्वक घरसे वेधर हो प्रव्रजित ( सन्यासी ) होता है । “ मैं जन्म, जरा, मन्ण, शोकादि दुःखों में पड़ा है। दुःखसे लिप्त मेरे लिये क्या कोई दुःस्वस्कंधके अन्त करनेका उराय है ? " वह इस प्रकार प्रव्रजित हो लाभ सरकार व प्रशंसाका भागी होता है । इसीसे संतुष्ट हो अपनेको परिपूर्ण संकल्प समझता है कि मैं प्रशंसित हूं, दुसरे भिक्षु अप्रसिद्ध शक्तिहीन हैं। वह इस लाभ सत्कार प्रशंसासे मतवाला होता है, प्रमादी बनता है, प्रमत्त हो दुःख में पड़ता है। .जैसे सार चाहनेवाला पुरुष सार (हीर या असली स गूदा ) की खोजमे घूमता हुआ एक सारदाले महान वृक्ष के रहते हुए उसके तारको छोड़, फल्गु (सार और छिलकेके बीचका काठ) को छोड़, पपड़ीको छोड़, शाखा पत्तेको काटकर और उसे ही सार समझ लेकर चला जावे, उसको भांखवाला पुरुष देखकर ऐसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० दूसरा भाग। कहे कि हे पुरुष ! मापने सारको नहीं समझा । सारसे जो काम करना है वह इस शाखा पत्तेसे न होना । ऐसे ही भिक्षुओ! यह वह है निस भिक्षुने ब्रह्मचर्य (बाहरी शील) के शाखा पचेको ग्रहण किया और उतनेहीसे अपने कृत्य को समाप्त कर दिया। १२) कोई कुल पुत्र श्रद्धासे प्रवजित हो लाम, सत्कार, श्योकका भागी होता है। वह इससे संतुष्ट नहीं होता व उस लाभादिसे न घमण्ड करता है न दुमरोको नीव देखता है, वह मतवाला व प्रमादी नहीं होता, प्रमाद रहित हो, शील (सदाचार ) का माराधन करता है, उसीसे सन्तुष्ट हो, अपने को पूर्ण संकरप समझता है। वह उस शील सम्पदासे अभिमान करता है, दूसरोंको नीच समझता है। यह भी प्रमादी हो दुःखित होता है । जैसे भिक्षुओ! कोई सारका खोत्री पुरुष छाल और पपड़ीको काटकर व उमे सार समझार लेका चला जावे, उसको आंखवाला देखकर कहे कि आप सारको नहीं समझे। सारसे जो काम करना है वह इस छाल और पपड़ीसे न होगा। तब वह दुःखित होता है। ऐसे ही यह शोक संपदाका अभिमानी मिशु दुःखित होता है। क्योंकि इसमें यहीं अपने कृत्यकी समाप्ति करती। (३) कोई कुल पुत्र श्रद्धानसे प्रत्रजित हो लाभादिसे सन्तुष्ट न हो, शीक सम्पदासे मतवाला न हो समाधि संपदाको पाकर उससे संतुष्ट होता है, अग्नेको परिपूर्ण संकरा समझता है। वह उस समाधि संपदासे अभिमान करता है, दूसरोंको नीच समझता है, वह इस तरह मतवाला होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [२०१ प्रमादी हो दुःखित होता है । असे कोई सार चाहनेवाला मारको छोड़ फल्गु नो छालको काटकर, सार समझकर लेकर चम नावे उसको मांखवाला पुरुष देखकर कहे माप सारको नहीं समझे काम न निकलेगा, तब वह दुःखित होता है। इसी तरह वह कुलपुत्र दुःखित होता है। (४) कोई कुलपुत्र श्रद्धासे प्रव्रजित हो लाभादिसे, शीलसम्पदासे व समाधि सम्पदासे मतवाला नहीं होता है। प्रमादरहित हो ज्ञानदर्शन ( तत्व साक्षात्कार ) का भाराधन करता है । वह उस ज्ञानदर्शन में संतुष्ट होता है। परिपूर्ण संकल्प अपनेको समझता है। बह इस ज्ञानदर्शनसे अभिमान करता है, दूसरोंको नीच समझता है, वह मतवाला होता है, दुःखी होता है। से भिक्षुओ! सार खोजी पुरुष सारको छोड़कर फल्गुको काटकर सार समझ लेकर चला जावे। उसको भांखवाला पुरुष देख. कर कहे कि यह सार नहीं है तब वह दुःखित होता है। इसी सरह यह भिक्षु भी दुःखित होता है। (५) कोई कुलपुत्र कामादिसे, शील सम्पदासे, समाधि संपदासे मतवाला न होकर ज्ञान दर्शनसे संतुष्ट होता है। परन्तु पूर्ण संकल्प नहीं होता है। वह प्रमाद रहित हो शीघ्र मोक्षको मारावित करता है । तब यह संभव नहीं कि वह भिक्षु उस सबः पाप्त (कालिक ) मोक्षसे च्युत होवे । जैसे सारखोजी पुरुष सारको ही काटकर यही सार है, ऐसा समझ ले जावे, उसे कोई भांखवाग पुरुष देख कर कहे कि अहो! मापने सारको समझा है, आपका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२/ दूसरा भाग । सारसे जो काम लेना है वह मतलब पूर्ण होगा । ऐसे ही वह कुछ पुत्र अकालिक मोक्षसे च्युत न होगा । ir. इस प्रकार भिक्षुओ ! यह ब्रह्मचर्य ( भिक्षुपद ) लाभ, सत्कार श्लोक पानेके लिये नहीं हैं, शील संपत्ति लाभके लिये नहीं हैं, न समाधि संपत्ति के लाभके लिये हैं, न ज्ञानदर्शन ( तत्वको ज्ञान और साक्षात्कार ) के लाभ के लिये हैं । जो यह न च्युत होनेवाली चित्रकी मुक्ति है इसके लिये यह ब्रह्मचर्य है, यही सार है, यही अन्तिम निष्कर्ष है । नोट - इस सूत्र में बताया है कि साधकको मात्र एक निर्वाण लाभका ही उद्देश्य रखना चाहिये। जबतक निर्वाणका लाभ न हो तबतक नीचेकी श्रेणियों में संतोष नहीं मानना चाहिये, न किसी प्रकारका अभिमान करना चाहिये। जैसे सारको चाहनेवाला वृक्षकी शास्त्रा आदि ग्रहण करेगा तो सार नहीं मिलेगा । जब सारको ही पासकेगा तब ही उसका इच्छित फल सिद्ध होगा । उसी तरह साधुको लाभ सत्कार इलोक में संतोष न मानना चाहिये, न अभिमान करना चाहिये । शीळ या व्यवहार चारित्रकी योग्यता प्राप्तकर भी संतोष मानकर बैठ न रहना चाहिये, आगे समाधि प्राप्तिका उद्यम करना चाहिये । समाधिकी योग्यता होजाने पर फिर समाधिके बल से ज्ञानदर्शनका आराधन करना चाहिये ! अर्थात् शुद्ध ज्ञानदर्शनमय होकर रहना चाहिये | फिर उससे मोक्षभावका अनुभव करना चाहिये । इस तरह वह शाश्वत् मोक्षको पा लेता है । जैन सिद्धांतानुसार भी यही भाव है कि साधुको ख्याति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ २०३ काम पूजाका रागी न होकर व्यवहार चारित्र अर्थात् शीलको भले प्रकार पालकर ध्यान समाधिको बढ़ाकर धर्मध्यानकी पूर्णता करके फिर शुक्लध्यानमें आकर शुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावका अनुभव करना चाहिये । इसीके अभ्यास से शीघ्र ही भाव मोक्षरूप अत् पदको प्राप्त होकर मुक्त होजायगा | फिर मुक्तिसे कभी च्युत नहीं होगा । यहां बौद्ध सूत्रमें जो ज्ञानदर्शनका साक्षात्कार करना कहा है इसीसे सिद्ध है कि वह कोई शुद्ध ज्ञानदर्शन गुण है जिसका गुणी निर्वाण: स्वरूप आत्मा है । यह ज्ञान रूप वेदना संज्ञा संस्कार जनित विज्ञानसे भिन्न है। पांच स्कंधोंसे पर हैं। सर्वथा क्षणिकवादमें अच्युत मुक्ति सिद्ध नहीं होती है । पाली बौद्ध साहित्य में अनुभवगम्ब शुद्धात्माका अस्तित्व निर्वाणको भजात व अमर मानने से प्रगटरूपसे - सिद्ध होता है, सूक्ष्म विचार करने की जरूरत है। जैन सिद्धांत के कुछ वाक्य - श्री नागसेनजी तत्वानुशासनमें कहते हैंरत्नत्रयमुपादाय त्यक्त्वा बंधनिबंधनं । ध्यानमभ्यस्यतां नित्यं यदि योगिन्मुमुक्षसे ॥ २२३ ॥ ध्यानाभ्यासवर्षेण तुद्यन्मोहस्य योगिनः । " चरमांगस्य मुक्तिः स्यात्तदा अन्यस्य च क्रमात् ॥ २२४ ॥ भावाथ - हे योगी ! यदि तू निर्माणको चाहता है तो तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र इस रत्नत्रय धर्मको धारण कर तथा राग द्वेष मोहादि सर्व बंधके कारण भावोंको त्याग कर और भलेप्रकार सदा ध्यान समाधिका अभ्यास कर | जब ध्यानका उत्कृष्ट साधन होजायगा तब उसी शरीरसे निर्माण पानेवाले योगीका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ] दुसरा माग । सर्व मोह क्षय होजायगा तथा जिसको ध्यानका उसम पद न प्राप्त होगा व क्रमसे निर्वाणको प्रावेगा । i समयसार में कहा है वदणियमाणिवांता सोळाणि तथा तवं च कुष्वंता । परमट्टबाहिरा जेण तेण ते होति बण्णाणी ॥ १६० ॥ भावार्थ- व्रत व नियमोंको पालते हुए तथा शील और तपको हुए भी जो परमाथ जो तत्वसाक्षात्कार है उससे रहित है वह • आत्मज्ञान रहित अज्ञानी ही है। पंचास्तिकाय में कहा है बस्स हिदणुपत्तं वा परदन्यमिह विज्जदे रागो । सोण विजानदि समयं सगस्स सम्प्रागमवरोवि ॥ १६७ ॥ तझा णिच्कुदिकामो निस्संगो जिम्ममो व हविय पुणो । सिद्धसु कुणदि मति णिव्वाण तेण पप्पादि ॥ १६९ ॥ L करते भावार्थ - जिसके मन में परमाणु मात्र भी राग निर्वाण स्वरूप -मात्माको छोड़कर परद्रव्यमें है वह सर्व आगमको जानता हुआ भी अपने शुद्ध स्वरूपको नहीं जानता है । इसलिये सर्व प्रकारकी इच्छाओंसे विरक्त होकर, ममता रक्षित होकर तथा परिग्रह रहित " होकर किसी परकोन ग्रहण करके जो सिद्ध स्वभाव स्वरूपमें भक्ति करता है, मैं निर्वाण स्वरूप हूं ऐसा ध्याता है, वही निर्वाणको पाता है । मोक्षपाहुड़में कहा है सवे कसाय मुत्तं गारत्र मयरायदो सव. मोहं । लोयवहार विग्दो अप्पा झाए झणत्यो || २७ ॥ भावाथ - मोक्षका भर्थी सर्व क्रोधादि कषायोंको छोड़कर, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | [ २०५ महंकार, मद, राग, द्वेष, मोह, व लौकिक व्यवहारसे विरक्त होकर ध्यानमें लीन होकर अपने ही आत्माको ध्याता है । शिवकोटि भगवती आराधनायें कहते हैं वह जह णिवेदुवसम, वेग्गदयादमा पवति । तह तह बन्भासयरं, णित्रयाणं होई पुरिसस्स ॥ १८६२ ॥ बयरं ग्दणेसु जहा गोसील चंदण व गंधेसु । बेरुलयं व मणीण, तह झाणं होइ स्ववयस्स ॥ १८९४ ॥ भावार्थ - जैसे जैसे साधुर्वे धर्मानुराग, शांति, वैराग्य, दया, व संयम बढ़ते जाते हैं वैसे निर्वाण अति निकट आता जाता है । जैसे रत्नोंमें हीरा प्रधान है, सुगन्ध द्रव्योंमें गोसीर चंदन प्रधान है, मणियों में बेडूर्यमणि प्रवान है तैसे साधुके सर्व व्रत व तपोंमें ध्यान समाधि प्रधान है । आत्मानुशासन में कहा है यमनियमनितान्त: शान्तमाह्यान्तरात्मा परिणमितसमाधिः सर्व सानुकम्पी | विहितहितमिताशी क्लशजाळे समूळे दहति निहतनिद्रो निश्चि ॥ध्यात्मसार: ॥ २२५ ॥ भावार्थ- जो साधु यम नियममें तत्पर हैं, जिनका अंतर बहिरंग शांत है, जो समाधि भावको प्राप्त हुए हैं, जो सर्व प्राणीमात्र पर दयावान हैं, शास्त्रोक्त हितकारी मात्रासे आहारके करनेवाले हैं, निद्राको जीतनेवाले हैं, आत्माके स्वभावका सार जिन्होंने पाया है, वे ही ध्यानके बलसे सर्व दुःखों के जाल संसारकोजला देते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समधिगतसमस्ताः सर्वसावधदूग: खहितनिहितचित्ताः शान्तसर्वप्रचाराः । खपरसफळजरूपाः सर्वसंकल्पमुक्ता: कथमिह न विमुक्तेर्माननं ते विमुक्त': ॥ २२६ ॥ भावाथ-जिन्होंने सर्व शास्त्रोंका रहस्य जाना है, जो सर्व 'पापोंसे दूर है, जिन्होंने भात्म कश्याणमें अपना मन लगाया है, जिन्होंने सर्व इन्द्रियोंकी इच्छाओंको शमन कर दिया है, जिनकी वाणी स्वपर कल्याणकारिणी है, जो सर्ब संकल्पोंसे रहित हैं, ऐसे विरक्त साधु निर्वाणके पात्र क्यों न होंगे ? अवश्य होंगे। - ज्ञानार्णवम कहा है पाशा: सद्यो विपद्यन्ते यान्त्य विद्याः क्षयं क्षणात् । . (म्रपते चित्तभोगीन्द्रो यस्य सा साम्यभावना ॥ ११-२४ ॥ भावार्थ-जिसके समभावकी शुद्ध भावना है, उसकी भाशाएं शीघ्र नाश होजाती हैं, अविद्या क्षणभरमें चली जाती है, मनरूपी नाग भी मर जाता है। (२२) मज्झिमनिकाय महागोसिंग सूत्र । एकसमय गौतम बुद्ध गोसिंग सालवनमें बहुतसे प्रसिद्ध २ शिष्यों के साथ विहार करते थे। जैसे सारिपुत्र, महामौद्गलायन महाकाश्यप, अनुरुद्ध, रेवत, आनन्द आदि । महामौद्गलायनकी प्रेरणासे सायंकालको ध्यानसे उठकर प्रसिद्ध भिक्षु सारिपुत्रके पास धर्मचर्चा के लिये आए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मौन बैद तत्वज्ञान । २०७ तब सारिपुत्रने कहा-मावुस भानन्द रमणीय है । गोसिंग सालवन चांदनी रात है। सारी पातियों में साल फूले हुए हैं। मानो दिव्य गंध बह रही है। भावुस आनन्द ! किस प्रकारके भिक्षुसे यह गोसिंग सालवन शोभित होगा ! - (१) आनन्द कहते हैं-जो मिक्षु बहुश्रुत, श्रुतघर, श्रुतसंयमी हो, जो धर्म धादि मध्य अन्तमें कल्याण करनेवाले, सार्थक, सव्यंजन, केवल, परिपूर्ण, परिशुद्ध, ब्रह्मचर्यको बखाननेवाले हैं। वैसे धर्माको उसने बहुत सुना हो, धारण किया हो, वचनसे परिचय किया हो, मनसे परखा हो, दृष्टि (साक्षात्कार ) में धंसा लिया हो, ऐसा भिक्षु चार प्रकारकी परिषदको सर्वोगपूर्ण, पद व्यंजन युक्त स्वतंत्रता पूर्वक धर्मको अनुशयों (चित्रमलों ) के नाशके लिये उपदेशे। इस प्रकारके भिक्षु द्वारा गोसिंग सालवन शोभित होगा । - तब सारिपुत्रने रेवतसे पूछा-यह वन कैसे शोभित होगा ? (२) रेवत कहते हैं-भिक्षु यदि ध्यानरत, ध्यानप्रेमी होवे, अपने भीतर चित्तकी एकाग्रतामें तत्पर और ध्यानसे न हटने वाला, विवश्यना (साक्षात्कारके लिये ज्ञान) से युक्त, शून्य ग्रहोंको बढ़ानेचाला हो वे इस प्रकारके भिक्षु डा। गोसिंग सालवन शोभित होगा। तब सारिपुत्रने अनुरुद्धसे यही प्रश्न किया। (३) अनुरुद्ध कहते हैं-जो भिक्षु अमानव (मनुष्यसे भगोचर) दिव्यचक्षुसे सहस्रों लोकोंको अवले कन करे। जैसे आंखवाला पुरुष महलके ऊार खड़ा सहस्रों चक्कों समुदायको देखे, ऐसे भिक्षुसे यह वन शोभित होगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८] इसस भाग। तब सारिपुत्रने महाकाश्यपसे यही प्रश्न पूछा। (४) महाकाश्यप कहते हैं-भिक्षु स्वयं मारण्यक (वनमें रहने. वाला) हो, और मारण्यताका प्रशंसक हो, स्वयं पिंडपातिक (मधुकरी वृत्तिवाल!) हो और पिंडपातिकताका प्रशंसक हो, स्वयं पांसुकूलिक (फेंके चिथड़ोंको पहननेवाला ) हो, स्वयं त्रैचीवरिक (सिर्फ तीन वस्त्रोंको पासमें रखनेवाला) हो, स्वयं मल्पेच्छ हो, स्वयं संतुष्ट हो, प्रविविक्त (एकान्त चिंतनरत) हो, संसर्ग रहित हो, उद्योगी हो, सदाचारी हो, समाधियुक्त हो, प्रज्ञायुक्त हो, वियुक्ति युक्त हो, वियुक्तिके ज्ञान दर्शनसे युक्त हो व ऐसा ही उपदेश देने.. वाला हो, ऐसे भिक्षुमे यह वन शोभित होगा। तब सारिपुत्रने महामौद्गलायनसे यही प्रश्न किया । (५) महामौद्गलायन कहते हैं-दो भिक्षु धर्म सम्बन्धी कथा हें । बह एक दुसरेसे प्रश्न पूछे, एक दुसरेको प्रश्नका उत्तर दें, जिद न करें, उनकी कथा धर्म सम्बंधी चले । इस प्रकार के भिक्षुसे यह वन शोभित होगा। . तब महामौद्गालपाने सारिपुत्रसे यही प्रश्न किया। (६) सारिपुत्र कहते हैं-एक भिक्षु चित्तको वशमें करता है, स्वयं चित्त के वशमें नहीं होता। वह जिप विहार (ध्यान प्रकार) को प्राप्त कर पूर्वाह्न समय विहरना चाहता है। उसी विहारसे पूर्वाह्न समय विहाता है । जिस विहारको प्राप्तकर मध्य ह समय विहाना चाहता है उसी विहारसे विहरता है, जैसे किसी रानाके पास नाना रजके दुशालोंके करण्ड (पिटारे) भरे हों, वह जिस दुशालेको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२०९ पूर्वाह समय, जिसे मध्य ह समय, जिसे संध्या समय धारण करना चाहे उसे धारण करें। इस प्रहार भिक्षुपे यह वन शोभता है। तब सारिपुत्र ने कहा-हम सब भगवान के पास जाकर ये बातें कई । जैसे वे हमें बतलाएं वैमे दम धारण करें। तब वे भगवान बुद्ध पार गए और सब का कथन सुनाया। तब सारिपुत्रने भगवानसे कहा- किसका कथन सुभ पिर है। (७, गौतम बुद्ध कहते हैं-तुम सभी का भापित एक एक करके सुभाषित है और मेरी भी सुनो। जो भिक्षु भोजन के बाद भिक्षासे निवटकर, आसन कर शरीको सीधा रख, स्मृति को सामने उपस्थित कर संकल्प करता है। मैं तबक इस मापन को नहीं छोडूंगा जबतक कि मेरे वित्तमल दित्त को न छोड़ देंगे। ऐसे भिक्षुये गोसिंग वन शोभित होगा। नोट - यह सूत्र साधुरो शिक्षाम् बहुत उपयोगी है। साधुको एकांतमें ही ध्यानका अभ्यास करना चाहिये । परम सन्तोषी होना चाहिये । संसर्ग रहित व इच्छा रहित होना चाहिये, ये सब बातें जैन सिद्धान्तानुसार एक साधु के लिये माननीय हैं। जो निग्रन्थ सर्व परिग्रह त्यागी साधु जैनोंमें होने हैं वे वस्त्र भी नहीं रखते हैं. एक मुक्त होते हैं। जैसे यह निर्गन स्थानमें तीन काल ध्यान करना कहा है वैसे ही जैन साधु ३) भी वह मध्य ह व सन्ध्याको ध्यानका अभ्यास काना चाहिये । ध्यान के भने गद हैं। जिस ध्यानसे जब चित्त एकाग्र हो इस प्रकार ३. ध्यानका तप ध्याचे । अपने मामाके ज्ञानदर्शन स्वभाव का साक्षात्कार करे : साधुको बहुत १४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। शास्त्रोंका मरमी होना चाहिये, यही यथार्थ उपदेश होसकता है। उपदेशका हेतु यही हो कि राग, द्वेष, मोह दूर हों व मात्माको ध्यानकी सिद्धि हो । परम्पर साधुनों को शांति बढ़ाने के लिये धर्म चर्चा भी करनी चाहिये। जैन सिद्धांत के कुछ वाक्यप्रवचनसारमें कहा हैजो णिहदमोहदिट्ठी आगमकुसलो विरामचरियहि । बम्भु यो महा धम्मोत्ति विसेसिदो समणो ॥ ९२-१॥ भावार्थ-जो मिथ्या दृष्टिको नाश कर चुका है, भागममें कुशल है, वीतराग चारित्रमें सावधान है, वही महात्मा साधु धर्मरूप कहा गया है। वोधप हुडमें कहा हैउपसमखमदमजुत्ता सरीरसंकास्वजिया रुक्खा । मयायदोमरहिया पयजा एरिता मणिशा ॥ १२ ॥ पसुमहिलसंढसंग कुसीटसा ण कुणइ विकहामो । सज्झायशा जुत्ता पयजा एरिता भणिया ।। ५७ ॥ भावार्थ-जो शांत भाव, क्षमा, इन्द्रिय निग्रह से युक्त हैं, शरीरके शृगार से रहित हैं, उदासीन हैं, मद, राग व द्वेष से रहित हैं उन्हींके साधुकी दीक्षा कही गई है। जो महात्मा पशु, स्त्री, नपुंसककी संगति नहीं रखते हैं, व्यभिचारी व असदाचारी पुरुषोंकी संगति नहीं करते हैं, खोटी गद्वेषवर्द्धक कथाएं नहीं करते हैं, स्वाध्याय तथा ध्य मे विहरते हैं उहीके सधुकी दीक्षा कही गई है। समाधिार कमें कहा है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान ! मुक्तिकान्तिकी तस्य चित्ते यस्पाचला धृतिः । तस्य नैकान्तिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यवळा धृतिः ॥ ७१ ॥ भावार्थ- जिसके मन में निष्कम्प आत्मामें थिरता है उसको अवश्य निर्माणका लाभ होता है, जिसके चित्तमें ऐसा निश्चल धैर्य नहीं है उसको निर्वाण प्राप्त नहीं होमकता है । ज्ञानार्णवमें कहा है:-- निःशेकश निमुक्तममुत्तै परमाक्षरम् | निष्यपचं व्यतीताक्षं पश्य त्वं स्वात्मनि स्थितं ॥ ३४ ॥ [ २११ भावार्थ- हे आत्मन् ! तू अपने ही आत्मामें स्थित, सर्व केशोंसे रहित, अमूर्तीक, परम अविनाशी, निर्विकल और अतींद्रिय अपने ही स्वरूपका अनुभव कर । रागादिपङ्कविश्लेषात्प्रसन्ने चित्तवारिणि । परिस्फुरति निःशेषं मुनेर्वस्तु कदम्बकम् ।। १७-२३ ॥ भावार्थ - रागादि कर्दम के अभावले जब चित्तरूपी जल शुद्ध होजाता है तब मुनिके सर्व वस्तुओं का स्वरूप स्पष्ट भासता है ! तत्वज्ञान तरंगिणीमें कहा है व्रतानि शास्त्राणि तपांसि निर्जने निवासमेतवं हि : संगमोचनं । मौनं क्षमातापनयोगधारणं चिचितयामा कलयन् शिवं श्रयेत् ॥ ११-१४॥ भावार्थ जो कोई शुद्ध चैतन्य स्वरूप के मननके साथ साथ व्रतोंको पालता है, शास्त्रोंको पढ़ता है। तर करता है, निर्जनस्थान में रहता है, बाहरी भीतरी परिग्रहका त्याग करता है, मौन धारता है, क्षमा पालता है व आतापन योग धारता है वही मोक्षको पाता है । - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -२१२ ] दूसरा भाग । ( २३ ) मज्झिमनिकाय महागोपालक सूत्र | गौतमबुद्ध कहते हैं - भिक्षुओ ! ग्याग्छ बातों (अंगों) से युक्त योशलन गोयूथकी रक्षा करने के अयोग्य हैं - (१) रूप (वर्ण) का जाननेवाला नहीं होता, (२) लक्षण में भी चतुर नहीं होना, (३) काली भक्तियों को हटानेवाला नहीं होता, (४) घावका ढाकने वाला नहीं होता, ५) धुआं नहीं करता, (६) तीर्थ (जलका उतार ) नहीं जानता, (७) पान को नहीं जानता, (८) वीथी ( डगर ) को नहीं जानता ( ९ ) चरागाइका जानकार नहीं होता, (१०) बिना छोड़े (सारे) को दुह लेता है, (११) गार्योको पितरा, गार्यो के स्वामी वृषभ (सांढ ) हैं, उनकी अधिक पूजा (भोजनदि प्रदान ) नहीं करता । ऐसे ही ग्यारह बातों से युक्त भिक्षु इस धर्म विनयमें वृद्धि वरूढ़ि विपुलता पाने के अयोग्य है। भिक्षु - (१ ) रूपको जाननेचाळा नहीं होता। जो कोई रूप है यह सब चार महाभूत (पृथ्वी, जल, वायु, तेज ) और चार भूर्तीको लेकर बना है उसे यथार्थ से नहीं जानता । (२) लक्षण में चतुर नहीं होता - भिक्षु यह यथार्थसे नहीं जानता कि कर्मके कारण (लक्षण) से बाल ( अज्ञ ) होता है और कर्मके लक्षणसे पण्डित होता है। (३) भिक्षु आसाटिक ( काळी मक्खियों) का हटानेवाला नहीं होता है - भिक्षु उत्पन्न काम ( भोग वासना ) के वितर्कका स्वागत करता है, छोड़ता नहीं, हटाता नहीं, अलग नहीं करता, अभावको प्राप्त नहीं करता, इसी तरह उत्पन्न व्यापाद ( परपीड़ा ) के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [२१३ विनका. उत्पन्न हिंसाके वितर्कका, तथा अन्य उत्पन्न होते अकुशल धर्मोका स्वागत करता है, छोड़ता नहीं । (४) भिक्षु व्रण (घात) का ढाकनेवाला नहीं होता हैभिक्षु अांखसे रूपको देखकर उसके निमित्त ( अनुकूल प्रतिकूल होने ) का ग्राण करनेवाला होता है । मनुव्यंजन ( पहचान ) का ऋण करनेवाला होता है । जिस विषयमें इस चक्षु इन्द्रियको संपत न रखनेपर लोम और दौर्मनस्य मादि बुगइयां भकुशल धर्म मा चिपटते हैं उसमें संयम करने के लिये तत्पर नहीं होता। चाइन्द्रियही रखा नहीं करता, चाहन्द्रियके संवरमें लम नहीं होता। इसी तरह श्रोत्रसे शब्द सुनकर, प्राणसे गंव संवकर, जिहासे रस चलकर, कायासे स्पृश्यको स्पर्शकर, मनसे धर्मको जानकर निमित्तका ग्रहण करनेवाला होता है । इनके संयममें लम नहीं होता। (५) भिक्षु धुआं नहीं करता-भिक्षु सुने अनुसार, जाने मनुसार, धर्मको दूसरों के लिये विस्तारसे उपदेश करनेवाला नहीं होता। (६) भिक्षु तीर्थको नहीं जानता-जो वह भिक्षु बहुश्रुत, बागम प्राप्त, धर्मधर, विनयघर, मात्रिका घर है उन भिक्षुओं के पास समय समयपर जाकर नहीं पूछता, नहीं प्रश्न करता कि यह कैसे है, इसका क्या अर्थ है, इसलिये वह भिक्षु पवित्राको विव्रत नहीं करता, खोलकर नहीं बतलाता, मसष्टको सष्ट नहीं करता, अनेक प्रकार के शंका-स्थानवाले धर्मों में उठी शंकाका निवारण नहीं करता। (७) भिक्षु पानको नहीं जानता-भिक्षु तथागतके बालावे धर्म विनयके उपदेश दिये जाते समय उसके अर्थवेद (अर्थ ज्ञान) को नहीं पाता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। (८) भिक्षु वीथीको नहीं जानता- भिक्षु आर्य अष्टांगिक मार्ग ( सम्यग्दर्शन, सम कूसम वि) को ठीक ठीक नहीं जानता। (९) भिक्षु गोचर कुशल नहीं होता-भिक्षु चार स्मृति प्रस्थानोंको ठीक टोक नहीं जानता ( देखो अध्याय- ८ कायस्मृति, वेदनास्मृति, चित्तस्मृति धर्मस्मृति)। (१०) भिक्षु विना छोड़े अशेषका दुहनेवाला होता हैभिक्षुओंको श्रद्धालु गृहपति मिक्षान्न, निवास, आसन, पथ्य औषघिकी सामग्रियोंसे मच्छी तरह सन्तुष्ट करते हैं, वहां भिक्षु मात्रासे (मर्यादारूप) ग्रहण करना नहीं जानता। (११) भिक्षु चिरकालसे प्रबजित संघके नायक जो स्थविर भिक्षु हैं उन्हें अतिरिक्त पूनासे पूजित नहीं करतीभिक्षु स्थपिर क्षुिओंके लिये गुप्त और प्रगट मंत्री युक्त का यक कर्म, वाचिक कर्म मौर मानस कर्म नहीं करता। इस तरह इन ग्यारह धर्मोसे युक्त क्षुि इस धर्म विनयमें वृद्धिविकदिको प्राप्त करनेमें अयोग्य है। क्षुिओ, ऊपर लिखित ग्यारह बातोसे विरोधरूप ग्यारह धोसे युक्त गोपालक गोयुथकी रक्षा करनेके योग्य होता है। इसी प्रकार उपर कथित ग्यारह घमासे विरुद्ध ग्यारह धर्मोसे युक्त क्षुि वृद्धिविकदि, दिपुरता प्राप्त करनेके योग्य है । अर्थात् क्षुि-(१) रूपका यथार्थ जाननेवाला होता है, (२) बाल और पण्डितके कर्म रक्षणोंको जानता है, (३) काम, व्यापाद, हिंसा, लोभ, दौमनस्य भादि अनुकल धर्मोका स्वागत नहीं करता है, (४) पांचों इन्द्रिय व Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । ।२१५ हे मनसे जानकर निमित्याही नहीं होता म्यवान ३ है, (१) जाने हुए धारको के लिये निता गदेश करता है, (६) बहुत श्रुन पास समय समय पर प्रश्न पृष्ठता है, :७) तथागत मा अमेय हे अविना. ज्ञानको पाला है, (:) .. अष्टांगिक मानको की २ जानता है, (१) चारों मृति पीक है. (१०) मोज. नादि ग्रहण करने में मार को जार है, (११) स्थविर मिरों के लिये गुप्त और प्रकट मंत्री शायिक. वाचक, म स कर्म करता है। नोट-इभ सूत्रमें मूर्ख और चतुर लेका दृष्टान्त देकर अज्ञाकी साधु और जन माको शक्ति का उपयोगी वर्णन किया है। वास्तवमें जो माधु इन मुमोमे यक वाता है । निर्वाणमोगको लरफ ददता हुआ उन्नति कर सत्ता है, उसे (१) सर्व पोलिक रचनाका ज्ञाता हो मोह त्यागना चाहिये । (२) पंडितके लक्षणों को जानकर स्वयं पंडित रहना चाहिये । (३) बोधादि कवायों का त्यागी होना च डिय । (४) पांच इन्द्रिय व मनका संकभी होना चाहिये । (५) परोपकादि धर्म का उपदेश होना चाहिये। (६) विनय सहि बहुझातार शंका निवारण करते रहना चाहिये । (5) धो दशके सारको समाना चाहिये । (८) मोक्षमार्गक माला डोना वाहिये । १२) धर्मक्षक भावनाओं को मारना चाहिय। (१०) संतोषपूर्वक भस्पाहारी होना चाहिये । (११) बड़ोंकी मे मैत्रीयुक्त भावसे मन वचन कायसे करनी चाहिये । जैन सिद्धान्तानुसार भी ये सब गुण साधुमें होने चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भाग। जैन सिद्धांतके कुछ वाक्यसारसमुच्चयमें कहा है-- जानध्यानोपवासश्च परीषहजयेप्तथा। शोळसंयमयोगश्च स्वात्मानं भावयेत् सदा ॥ ८॥ भावार्थ-साधुको योग्य है कि शास्त्रज्ञान, आत्मध्यान, तथा उपवासादि तप करते हुए, तथा क्षुश तृा. दुर्वचन, मादि परी'पहोंको जीतते हुए, शील संयम तथा योगाभ्यासके साथ अपने शुद्धात्माकी या निर्वाणकी भावना करे । गुरुशुश्रूषया जन्म चित्तं सद्धय नचिन्तया। श्रुतं यस्य समे याति विनियोग स पुण्यमाक् ॥ १९॥ भावार्थ-निसका जन्म गुरुकी सेवा करनेमें, मन यथार्थ ध्यानके साधन, शास्त्रज्ञान समताभावके धारणमें काम आता है वही पुण्यात्मा है। काषायान् शत्रुवत् पश्ये द्विषयान् विषपत्तथा । .. मोहं च परमं व्याधिमे मृचुविचक्षणः ॥ ३५॥ ___ भावार्थ-कामक्रोधादि कषायोंको शत्रुके समान देखे, इन्द्रि. योंके विषयोंको विषके बराबर जाने, मोहको बड़ा भारी रोग जाने, ऐसा ज्ञानी आच योने उपदेश दिए है। धर्मामृतं सदा पे दुःख तकविनाशनम् । यस्मिन् पीते परं सौख्यं जीवानां जायते सदा ॥ ६३ ।। भावार्थ-दुःखरूपी रोगोंको नाश करनेवाले घ मृतका सदा पान करना चाहिये। अर्थात धर्मके स्वरूपको भक्तिसे जानना, सुनना ब मनन करना चाहिये, जिप्त धर्मामृतके पीने से जीवोंको परम सुख सदा ही रहता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२१७ निःसंगिनेऽपि वृत्त ढ्या निस्नेहा: सुश्रुतिप्रियाः । अभूषऽपे तपोभूषास्ते पात्रं योगिनः सदा ॥ २०१।। भावार्थ -जो परिग्रह रहित होने पर भी चारित्रके धारी हैं, जगतके पदार्थोसे स्नेहरहित होने पर भी सत्य भागमके प्रेमी हैं, भूषण रहित होने पर भी तप ध्यानादि भाभूषणों के धारी हैं ऐसे ही योगी सदा धर्मके पात्र हैं। मोक्षपाहुडमें कहा हैउद्धज्मलोये केई मज्ज अहय मेगागी । इयभावणाए जोई पार्वति हु सासयं साणं ॥ ८१ ॥ भावार्थ-इस ऊर्थ, अधो, मध्य लोकमें कोई पदार्थ मेरा नहीं है, मैं एकाकी हूं, इस भावनासे मुक्त योगी ही शाश्वत् पद निर्वामको पाता है। भगवती आराधनामें कहा हैसम्वगंधविमुक्को सीदीभूदो पसण्णचित्तो य । जं पावद पंइसुई ण चक्क वितं लहदि ॥ ११८२ ॥ भावार्थ-जो स धु सर्व परिग्रह रहित है, शांत चित्त है व बसन्नचित्त है उपको जो प्रीति और सुख होता है उसको चक्रवर्ती भी नहीं पासक्ता है। आत्मानुशासनम कहा हैविषयविरतिः संगत्यागः कषयविनिप्रहः । शमयमदमास्तापासस्तपश्चणे द्याः ॥ नियमितमनोवृत्तिभक्तानेषु दयालुता । भवति कतिनः संसाराब्धेस्तटे निपटे सति ॥ २२ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] दुसरा भाग । मावार्थ - जिनके संसार सागरके पार होनेका तट निकट मागया है उनको इतनी बातोंकी प्राप्ति होती है, (१) इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त भाव, (२) परियःका त्याग, (३) कोषादि कषार्यो पर विजय, ( ४ ) शांत भाव (५) इन्द्रियों का निशेष, (६) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व परिग्रह त्याग महाव्रत, (७) तत्वोंका अभ्यास, (८) तपका उद्यम, (९) मनकी वृत्तिका निशेध, (१०) श्री जिनेन्द्र अरहंतों भक्ति, (११) प्राणियों पर दया । ज्ञानार्णवमें कहा है शीतांशु मिसंपर्काद्वेसर्पति यथाम्बुधिः । तथा सद्वृत्तसंसर्गा नृगां प्रज्ञापयोनिधिः ॥ १७-१९ ॥ भावार्थ - जैसे चंद्रमा की किरणोंकी संगति से समुद्र बढ़ता है, वैसे सम्यक् चारित्र के धारी साधुओं की संगति से प्रज्ञा ( भेद विज्ञान) रूपी समुद्र बढ़ता है । निखर भुवन. त्वं सनैकप्रदीप निरुपधिमधिरूढं निर्भरानन्दकः ष्ठाम् । परममुनिमनीष द्वेदपर्यन्तभूतं परिकलय विशुद्धं स्व. रमनात्मानमेव ॥ १०३-३२॥ भावार्थ - तू अपने ही आत्मा के द्वारा सर्व जगतके तत्वोंकों दिखाने के लिये अनुरम दीपक के समान, उपाधिरहित, महान, परमानन्द पूर्ण, परम मुनियोंके भीतर भेद विज्ञान द्वारा प्रगट ऐसे मात्माका अनुभव कर । स कोऽपि परमानन्दो वीतरागस्य जायते । येन लोकत्रयैश्वर्यमप्यचिन्त्यं वृणायते ॥ १८-२३ ॥ U Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जौन बैद्ध तत्वज्ञान | २१९ भावार्थ- वीतरागी साधुक मीटर ऐसा कोई अपूर्व परमानंद मन्त्यि ऐश्वर्य भी पैदा होता है, जिसके सामने तृणके समान है । -- (२४) मज्झिमनिकाय चूलगोपालक सूत्र | गौतम बुद्ध कहते हैं - भिक्षुओ ! पूर्वकाल में मगच निवासी एक मूर्ख गोलकने व अंतिम मास में कामें गंगानदीके इस पारको विना सोचे, उस पारको बिना सोचे वे घाट ही विनेहकी ओर दुपरे ती' को गायें हांक दीं, वे गाएं गंगानदीके स्रोतके - में पड़ कर वहीं विनाशको प्राप्त हो गई । सो इसी लिये कि वह गोपालक मुर्ख था । इसी प्रकार जो कोई श्रमण या ब्राह्मण इस लोक व परलोक अनभिज्ञ हैं, मारके लक्ष्य चलक्ष्यसे मरमिल हैं, मृत्यु के लक्ष्य अलक्ष्यसे अनभिज्ञ हैं, उनके उपदेशों को जो सुनने योग्य, श्रद्धा करनेयोग्य समझेंगे उनके लिये यह चिरकाल कर अहितकर- दुःखकर होगा | भिक्षुओ ! पूर्वकालमें एक मगधवासी बुद्धिमान ग्वालेने वर्षाकेअंतिम माह में शरदकालमें गंगानदीके इस पार व उस पारको सोचकर व टसे उत्तर तीरपर विदेहकी ओर गाएं हांकीं । उसने जो वे गायोंके पितर, गायक नायक कृष थे, उन्हें पहले हांका | वे गंगाकी घारको तिरछे काटकर स्वस्त्रिपूर्वक दूसरे पार चले गए। तब उसने दूसरी शिक्षित बलवान गार्योको छांचा, फिर बछड़े और वछियों को हांका, फिर दुर्बल बछड़ोंको हांका, वे सब स्वस्ति पूर्वक दूसरे पार चले गए। उस समय तरुण कुछ ही दिनोंका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] दूसरा भाग । पैदा एक बछड़ा भी माताकी गर्दनके सहारे तैरते गंगाकी धारको तिरछे काटकर स्वस्त्रिपूर्वक पार चला गया। सो क्यों ? इसी लिये कि बुद्धिमान ग्व लेने हांकी । ऐसे ही भिक्षुओं ! जो कोई श्रमण या ब्राह्मण इस लोक परलोक के जानकार, मारके लक्ष्य अलक्ष्पके जानकार व मृत्युके लक्ष्य अलक्ष्य के जानकार हैं उनके उपदेशको जो सुनने योग्य श्रद्धा करने योग्य समझेंगे उनके लिये यह चिरकालतक हितकर-सुखकर होगा । (१) जैसे गाय के नायक वृषभ स्वस्तिपूर्वक पार चले गए. ऐसे ही जो ये अर्हत् क्षीण सत्र, ब्रह्मचर्यवास समात, कृतकृत्य, मारमुक, सप्त पदार्थको प्रप्स, भव बंधन रहित, सम्यग्ज्ञ नद्वारा युक्त हैं वे मारकी धाराको तिरछे काटकर स्वस्तिपूर्वक पार जांयेंगे । (२) जैसे शिक्षित बळवान गाएं पार होगईं, ऐसे ही जो भिक्षु पांच व्यवरभागीय संयोजनों (सल्कीय दृष्टि ) ( भात्मवादकी मिथ्या दृष्टि ), विचिकित्सा ( संशय ), शीतत्रत परामर्श (व्रताचरणका अनुचित अभिमान), कामच्छेन्द्र (भोगों में राग), व्यामोह ( पीड़ाकारी वृत्त) के क्षयमे औरपातिक (अयोनिज देव) हो उस देवसे लौटकर न था वहीं निर्माणको प्रप्त करनेवाले हैं वे भी चार होजांयेंगे । (३) जैसे बछडे बछडियां पार होगई वैसे जो भिक्षु तीन संयोजनोंके नाशसे- राग द्वष, मोहके निर्बल होने से सकृदाग भी हैं, एक बार ही इस लोक में आकर दुःखका अंत करेंगे वे भी निर्वानको प्राप्त करनेवाले हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन बौद्ध तत्वज्ञान। [२२१ (४। जैसे एक निर्वक बछडा पार चला गया वैसे ही जो भिक्षु तीन संयोजनोंके क्षयसे स्रोतापन हैं, नियमपूर्वक संबोघि (परम ज्ञान, परायण (निर्वाणगामी पथसे ) न भृष्ट होनेवाले है, वे भी. पार होंगे। इस मेरे उपदेशको जो सुनने योग्य श्रद्धाके योग्य मागे उनके - लिये वह चिरकाल तक हितकर सुखका होगा। तथा कहा: जानकारने इस लोक परलोकको प्रकाशित किया। जो मारकी पहुंचमें हैं और जो मृत्युकी पहुंच में नहीं हैं। जानकार संबुद्धने सब लोकको जानकर । निर्वाणकी प्राप्तिके लिये क्षेम (युक्त) अमृत द्वार खोल दिया। पापी (मार) के स्रोतको छिन्न, विध्वस्त, वि, वलित कर दिया। भिक्षुओं ! प्रमोदयुक्त होवो-क्षेमकी चाह करो। नोट-इस ऊपरके कथनसे यह दिखलाया है कि उपदेशदाता बहुत कुशल मोक्षमार्गका ज्ञाता व संसारमार्गका ज्ञाता होना चाहिये तब इसके उपदेशसे श्रोतागण सच्चा मोक्षमार्ग पाएंगे । जो स्वयं मज्ञानी है वह आप भी डूबेगा व दुसरेको भी डूबाएगा। निर्वाणको. संसारके पार एक क्षेत्रयुक्त स्थान कहा है इसलिये निर्वाण अभाकरूप नहीं होसक्ती क्योंकि कहा है-जो क्षीणास्रव होजाते हैं वे सप्त पदार्थको प्राप्त करते हैं । यह सप्त पदार्थ निर्वाणरूप कोई वस्तु है जो शुद्धात्माके सिवाय और कुछ नहीं होसक्ती । तथा ऐसेको सम्यग्ज्ञानसे मुक्त कहा है । यह सम्यग्ज्ञान सच्चा ज्ञान है जो उस विज्ञानसे भिन्न है जो रूपके द्वारा वेदना, संज्ञा, संस्कारसे 'दा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ होता है । इसीको जैन सिद्धांतमें केवलज्ञान कहा है। क्षीणासव साधु सयोगवे वली जिन होजाता है वह सर्वज्ञ वीतगग कृतकृत्य भईत होजाता है वही शरीरके मंतमें सिद्ध परमात्मा निर्वाणरूप होजाता है। कहा है कि निर्वाणकी प्राप्तिके लिये अमृत द्वार खोल दिया जिसका मतलब यही है कि अमृतमई आनन्दको देनेवाला स्वानुभव रूप मार्ग खोल दिया यही निर्वाणका साधन है वहां निर्वाणमें भी परमानंद है। वह अमृत अमर रहता हैं। यह सब कथन जैनसिद्धांतमें मिलता है । जैनसिद्धांतके कुछ वाक्य पुरुषार्थसिद्धयुपायमें कहा है:मुख्योपचार विधानिस्तदुस्ता विनेयदुर्योधाः । व्यवहार निक्षयज्ञाः प्रार्तयन्ते जगति तीर्थम् ॥ ४ ॥ भावार्थ-जो उपदेश दाता व्यवहार और निश्चय मार्गको जाननेवाले हैं वे कभी निश्चयको, कभी व्यवहारको मुख्य कह र शिष्योंका कठिन से कटिन अज्ञानको मेट देते हैं वे ही जगतमें धर्मतीर्थका प्रचार करते हैं । स्वानुभव निश्चय मोक्षमार्ग है, उसकी प्राप्ति के लिये बाहरी व्रताचरण आदि व्यवहार मोक्षमार्ग है। व्यवहारके सहारे स्वानुभवका लाभ होता है। जो एक पक्ष पकड़ लेते हैं, उनको गुरु समझा कर ठीक मार्गपर लाते हैं । आत्मानुशासनमें कहा है:प्राज्ञः प्राप्त समस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः प्रास्ताशः प्रतिमापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राय: प्रश्नसहः प्रमुः परमनाहारी परानिन्दया शादर्म कथां गणी गुगनिधिः प्रस्पृष्टमिष्टाक्षरः ॥५॥ भावार्थ-जो बुद्धिमान् हो, सर्व शास्त्रों का रहस्य जानता हो, प्रश्नों का उत्तर पहलेहीसे समझता हो, किसी प्रकारकी माशा तृष्णासे रहित हो, प्रभावशाली हो, शांत हो, लोकके व्यवहारको समझना हो, अनेक प्रश्नों को सुन सक्ता हो, महान हो, परके मनको हरनेवाला हो, गुणोंका सागर हो, साफ साफ मीठे अक्षरों का कहनेवाला हो ऐसा भाचार्य संघनायक परकी निन्दा न करता हुमा धर्मका उपदेश करे। सारसमुचयमें कहा हैसंसारावासनिवृत्ता: शिवसौल्यसमुत्सुकाः । सद्भिते गदिताः प्राज्ञाः शेषाः शास्त्रस्य वंचकाः ॥२१२।। . भावाथ-जो साधु संसारके वाससे उदास है । तथा कल्याणमम मोक्षके सुखके लिये सदा उत्साही है वे ही बुद्धिवान् पंडित साधुओंके द्वारा कहे गए हैं। इनको छोड़कर शेष सब अपने पुरु. पाके ठगनेवाले हैं। तत्वानुशासनमें कहा हैतत्रासन्नीभवेन्मुक्तिः किंचिद्रासाद्य कारणं । विरक्तः कामभोगेभ्यस्त्यकसर्वपरिपाः ॥४१॥ मम्पेत्य सम्यगाचार्य दीना जैनेश्वरीं नि:। तपःसयमसम्पनः प्रमादरहिताशयः ॥ ४२ ॥ सम्यग्निर्गीतजीवादिध्ये वस्तुव्यस्थितिः । मातरौद्रपरित्यागालबचित्तप्रसत्तिकः ॥ ४३ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ ] दूसरा भाग । मुक्तलोक यापेक्षः बोट शेष: । अनुष्ठित पायगो ध्वन्यगे कृतयः ॥ ४४ ॥ महारुतः परितक्ताशुभभावनः । इतं दृग्क्षणो धाता धर्मध्यानस्य सम्मतः ॥ ४५ ॥ भावार्थ - धर्मभ्यः नका ध्याता साधु ऐसे लक्षणों का रखनेवाला होता है (१) निर्वाण जिसका निकट हो, (२) कुछ कारण पाके काम भोगोंसे विरक्त हो, किसी योग्य आचार्यके पास जाकर सर्व परिग्रहको त्यागकर निर्बंथ जिन दीक्षाको धारण की हो, (३) तप व संयम सहित हो, (४) प्रमाद भाव रहित हो, (५) मले प्रकार ' ध्यान करनेयोग्य जीवादि तत्वोंको निर्णय कर चुका हो, (६) आर्तरौद्र खोटे ध्यानके त्यागसे जिसका चित्त प्रसन्न हो, (७) इस लोक परलोककी वांछा रहित हो, (८) सर्व क्षुधादि परीषहोंको सहने वाला हो, (९) चारित्र व योगाभ्यासका कर्ता हो, (१०) ध्यानका उद्योगी हो, (११) महानू पराक्रमी हो, (१२) अशुभ लेश्या सम्बन्धी अशुभ भावनाका त्यागी हो । पद्मसिंह मुनि ज्ञानसारम कहते हैं सुग्णज्झाणे णिःभो चड्गयणिस्से सकरणवावारो । परिरुद्वाचत्तस्रो पावर जोई परं ठाणं ॥ ३९ ॥ भावार्थ- जो योगी निर्विकल्प ध्यानमें लीन है, सर्व इन्द्रि - योंके व्यापारसे विरक्त है, मनके प्रचारको रोकनेवाला है वही योगी निर्वाणके उत्तम पदको पाता है । E Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। (२५) मज्झिमनिकाय महातृष्णा | २२५ T क्षय सूत्र | विज्ञान १ गौतमबुद्ध कहते हैं जिस जिस प्रत्यय ( निमंत ) से होता है वही वहीं उसकी सज्ञा ( नाम ) होती है । उत्पन होता है। चक्षुर्विज्ञान ही चक्षु के निमिन रूपये विज्ञान उसकी संज्ञ होनी है। इसी तरह त्र प्राण, व्हिा, कायक निमिचसे जो विज्ञन उत्पन्न होता है उपकी श्रोत्र विज्ञान, घाण विज्ञान, रस विज्ञान, काय विज्ञान संज्ञ होती है । मनके निमंत धर्म ( उपरोक्त बाहरी पांच इन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान ) में जो विज्ञान उत्पन्न होता है वह मनोविज्ञान नाम पाता है । जैसे जिस जिस निमित्त से लेकर आग जलती है वही वही उसकी संज्ञा होती है। जैसे कष्अमि, तृम अमि, गोमप अभि सुष भनि, कूड़े की भाग, इत्यादि । 1 २ - भिक्षुओ ! इन पांच संघको ( रू वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान ) ( नोट-रूप (matter ) है | वेदनादि विज्ञनमें गर्भित हैं, उस विज्ञानको nind कहेंगे । इस तह रूप और विज्ञान के मेल से ही सारा संसार है ) उत्पन्न हुआ देखते हो ! हां! अपने भाहारसे उत्पन्न हुआ। देखते हो ! हो ! जो उन्होनेवाला है वह अपने आहार के ( स्थिति आवर) निशेधसे विरुद्ध होनेवाला होता है ? हां ये पांच उत्पन्न हैं । व अपने भाहारके निरोवसे विरुद्ध होनेवाले हैं ऐसा संदेश दिन जानना ३ - सुदृष्टि (सम्यक्दर्शन) है । हा ! तुम ऐसे परिशुद्ध उज दृष्ट (दर्शन ज्ञान) में भी आसक्त होगे स्मोगे - यह मेरा धन है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा भाग। १-ऐमा समझोगे । भिक्षु भो ! मेरे उपदेशे धर्म को कुल्ल ( नदी पार दोनेक बेड़े ) के समान पार होने के लिये है। पकड़कर रखनेके लिये नहीं है । हां ! पक कर रखने के लिये नहीं है। भिक्षु मो! तुम इस परिशुद्ध दृष्टों भी आसक्त न होना । हां, भंते । .. ५-भिक्षुओ ! उत्पन्न प्राणियों की स्थिति के लिये आगे उत्पन्न होनेवाले मत्वों के लिये ये चार आहार हैं-११) स्थूल या सूक्ष्म कवलीकार ग्राम लेना), (२) स-माहार, (३) मनः संचेतना आहार स्मनसे विषय हा स्वयाळ करके तृप्ति काम करना; (४) विज्ञान - (चेतना) इन चारों आहारों का निदान या हेतु या मनुस्य तृष्णा है। ६-भिक्षु मो! इस तृष्णाका निदान या हेतु वेदना है, वेदनाका हेतु स्पर्श है. कमर्शका हेतु षड़ आयतन ( पांच इन्द्रिय व मन ) षड़ पायतनका हेतु नापरूप है, नामरूपका हेतु विज्ञान है, विजानका हेतु संस्कार है, संस्कारका हेतु अविद्या है। इस तरह मूल अवद्यासे लेकर तृष्णा होती है। तृण के कारण उपादान (ग्रहण करनेकी इच्छा) होता है, उपादानके कारण भव (संसार)। भवके कारण जन्म, जन्मके कारण जरा, मरण, शोक. क्रंदन, दुःख, दौमनस्य होता है। इस प्रकार केवल दुःख स्कंधकी उत्पत्ति होती है। इ१ तरह मूल अविद्या के कारण को लेकर दुःख स्कंघकी उत्पत्ति होती है। ७-भिक्षुओ! अविद्याके पूर्णतया विभक्त होनेसे, नष्ट होनेसे, संस्कार का नाश (निरोच) होता है ! संहारके निरोक्से विज्ञानका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद तत्वज्ञान। २२७ निरोध होता है, विज्ञान के निरोधसे नापरूका निरोध होता है, नामरूपके निरोधसे पड़ायतना निरोध होता है, पड़ायतनके निरोसे स्पशंका निरोष होता है, स्पर्श के निरोक्से वेदनाका निगे होता है, वेदनाके निरोबसे तृष्णाका निरोध होता है, तृष्णाके नितो. पसे उपादानका निरोव होता है । उआदानके निशेधसे भाका निरोप होता है, मवके निरोधमे जाति (जाम) का निरोष होता है, जाति के निरोषसे जरा, मरण, शोक, कंदन, दुःख, दौमनस्या निरोध होता है। इस प्रकार केवळ दुःख स्कंधा निरोष होता है। - भिक्षुओ! इसप्रकार (पूर्वोक्त करसे) जानते देखते हुए क्या तुम पूर्वके छोर (पुगने समय या पुगने जन्म) की ओर दौड़ोगे। 'महो ! क्या हम अतीत कालमें थे ? या हम अतीत कालमें नहीं थे ? मतीत कारमें हम क्या थे ? अतीत काल में हम कैसे थे? भतीत कालमें क्या होकर हम क्या हुए थे ?" नहीं। ८-भिक्षुओ ! इस प्रकार जानते देखते हुए क्या तुम वादक ओर (आगे आनेवाले समय) की ओर दौड़ोगे। 'अहो ! क्या हम भविष्यकालमें होंगे ! क्या हम भविष्यकाल में नहीं होंगे ? भविष्यकालमें हम क्या होंगे ? भविष्यकाल में हम कैसे होंगे ? भविष्यकालमें क्या होकर हम क्या होंगे ? नहीं भिक्षुओ! इस प्रकार जानते देखते हुए क्या तुम इस वर्तमानकालमें अपने भीतर इस प्रकार कहने सुननेवाले (कथं कथी) होंगे। अहो ! 'क्या मैं हूं ?' क्या मैं नहीं हूं ? मैं क्या ई! * कैसा है ? यह सत्व (प्राणी) कहांसे भाया ? वह कहां जानेवाला Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ ] दूसरा भाग । होगा ? नहीं ? भिक्षुओ ! इस प्रकार देखते जानते क्या तुम ऐसा कहोगे । शस्ता हमारे गुरु हैं। शास्ता के गौरव ( के ख्याल ) से हम ऐसा करते हैं ? नहीं। भिक्षुत्रो ! इस प्रकार देखते जानते क्या तुम ऐसा कहोगे कि भ्रमण हमें ऐन कडा, श्रम के कथन मे हम ऐसा कहते हैं ? नहीं। देखते जानते क्या तुम दूसरे शास्ता ! अनुगामी हगे ? नहीं । ब्रह्मणो भिक्षुआ ! इस प्रकार देखते जानते क्या तुम नाना श्रमण वर, कौतुक, मंगल सम्बन्धी क्रियाएं हैं उन्हें सारके सौम्य ग्रहण करोगे ? नहीं । क्या दिक्षुओ ! जो तुम्हारा अपना जाना है, मपना देखा है, माना अनुभव किया है उसीको तुम कहते हो ? हां भंते । साधु ! भिक्षुओ ! मैंने भिक्षुमो, समयान्तरमें नहीं तत्काल फलदायक यही दिखाई देनेवाले विज्ञद्वारा अपने आपने जाननेयोग्य इस धर्म के पास उपनीत किया ( पहुंचाया ) है । भिक्षुओ ! यह धर्म समयान्तर में नहीं तत्काल फलदायक है, इसका परिणाम यहीं दिखाई देनेवाला है या विज्ञोंद्वार। अपने आपमें जानने योग्य है । यह जो कहा है, वह इसी ( उक्त कारण ) से ही कहा है। ९ - भिक्षुओ ! तीनके एकत्रित होने से गर्भधारण होता है। माता और पिता एकत्र होते हैं । किन्तु माता ऋतुमती नहीं होती और गन्धर्व ( उत्पन्न होनेवाला ) चेतना प्रवाह देखो मसिधर्म कोश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मौद तल्लयान। [२२९ (३-१२) (पृ० ३५४) उपस्थित नहीं होता तो गर्भ धारण नहीं होता । माता-पिता एकत्र होते हैं। माता ऋतुमती होती है किंतु गन्धर्व उपस्थित नहीं होते तो भी गर्भ धारण नहीं होता । बक माता पिता एकत्र होते हैं, माता ऋतुती होती है और गन्धर्व उ# स्थित होता है । इस पफार तीनों के एकत्रित होनेसे गर्भ धारण होता है । तब उस ग्रु-मारवाले गर्भको बड़े संशयके साथ माता कोखमें नौ या दस मास धारण करती है। फिर उस गरु-भारवाले गर्भको बड़े संशयके साथ माता नौ या दस मासके बाद जनती है। तब उस जात (संतान ) को अपने ही दुधसे पोसती है। तब भिक्षुमो ! वह कुमार बड़ा होनेपर, इन्द्रियों के परिपक होनेपर जो वह बच्चों खिलौने हैं। जैसे कि वंकक (का), पटिक (पहिया), मोखचिक (मुंहका बड्डू), चिंगुलक (चिंगुलिया) पात्र पाठक (तराजु), स्थक (गाड़ी, धनुक (धनुही), उनसे खेलता है। सब भिक्षुमो! वह कुमार और बड़ा होने पर, इन्द्रियोंके परिपक होनेर, संयुक्त संलिप्त हो पांच प्रकारके काम गुणों (विषयमोगों) को सेबन करता है । अर्थात् चक्षुमे विशेष इष्ट रूपोको, मोबसे इष्ट शब्दोंको, घणसे इष्ट गन्धों को, जिह से इष्ट सोको, कायासे इष्ट स्पों को सेवन करता है। वह क्षुमे प्रिय रूपोंको देखका राग्युक्त होता है, अप्रिर रूगोंको देखकर द्वेषयुक्त होता है। कायिक स्मृति (होश ) को कायम रख छोटे चितसे विहरता है। वह उस चित्तकी विमुक्त और प्रज्ञानी विमुक्तिका बीक से ज्ञान नहीं करता, जिससे कि उसकी सारी बुगांना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुसरा मांग। होजावें । वह इस प्रकार रागद्वे में पड़ा सुखमय, दुःखमय या न मुखदुःखमय विस किसी वेदनाको वेदन करता है उसका वह ममिनन्दन करता है, मवगाहन करता है । इस प्रकार अभिनन्दन करते, अभिवादन करते अवगाहन करते रहते उसे नन्दी (तृप्णा) उत्पा होती है । वेदनामों के विषय में जो यह नन्दी है वही उसका उपादान है, आके उपादान के कारण भव होता है, भव के कारण जाति, जातिहे. कारण जरा माण, शोक, कंदन, दुःख, दौमनस्य होता है। हमी प्रहार श्रोत्रमे, घ्र णसे, जिहासे, कायासे तथा मनसे प्रिय धर्मों को जानकर रागद्वेष करनेसे केवल दुख कंधकी उत्पत्ति होती है। : (दुःख स्कंधके क्षयका उपाय) ... . १०-क्षुिओ! यहां लोक में तथागत, अत्, सम्यक्सम्बुद्ध, विद्या भाच ण् युक, सुगत, लोक विदु, पुरुषों के अनुपम च बुक सवार, देवताओं और मनुष्यों के उपदेष्टा. भगवान् बुद्ध उत्पन्न होते हैं वह ब्रह्मलोक, मारलोक, देवलोक सहित इस लोकको, देव, मनुष्य सहित श्रमण ब्रहणयुक्त सभी प्रजाको स्वयं समझकर साक्षकार कर धर्म को बतलाते हैं। वह भादिमें कल्याणकारी, 4 में कस्याणकारी, अत्तमें कल्याणकारी धर्मको अर्थ सहित व्यंजन सहित उपदेशते हैं। वह केवल (मिश्रण रहित) परिपूर्ण परिशुद्ध मादर को प्रकाशित करते हैं। उस धर्मको गृहपतिका पुत्र या और किसी छटे कुर में उत्सन्न पुरुष सुनता है। वह उस धर्म को सुनकर तथागतके विषय में श्रद्धा काम करता है । वह उस श्रद्धा. हामसे संयुक्त हो सोचता है, यह गृहवास जंजाल है, मेलका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न बौद्ध तत्वज्ञान। मार्ग है । प्रवज्या (सन्यास ) मैदान (पा खुला स्थान) है। इस नितान्त सर्वथा परिपूर्ण, सर्वथा परिशुद्ध स्वरीदे शंख जैसे उजन ब्रह्मचर्यका पालन घर में रहते हुए सुकर नहीं है। क्यों न मैं सिर, दादी मुंडकर, काषाय बस्त्र पहन घ से बेघः हो प्रवजित होज ऊं" सो वह दुसरे समय मानी अल्प भोग राशि:ो या महाभोग राशिको, भर ज्ञ तिमंडलको या महा ज्ञ तिमंडकको छोड़ सिर दादी मुड़ा, काषाय वस्त्र पहन परसे बेघर हो प्रवनित होता है। बह इस प्रकार प्रबजित हो, भिक्षुओं की शिक्षा, समान जी व. काको प्रप्त हो, प्राणातिपात छोड़ प्राणि हिंसासे विस्त होता है। रंडत्यागी, शस्त्रत्यागी, रज लु, दयालु, सर्व प्राणियों का हितकर मौर अनुमा हो विहरता है। मदिनादान (चोरी) छोड़ दिना. दायी (दियेका लेनेवाला), दियका च हन्व ला पवित्रामा हो विकता है। अब्रह्मचर्य को छोड़ ब्रह्म गरी हो. ग्राम्यधर्म मैथुसे विग्त हो; भारचारी ( दूर रहनेवाला) होता है । मृपावादको छोड़. मृष वा. से विस्त हो, सत्यवादी, सत्यसंघ, कोकका प्राविसंमदक, विश्वा. सपात्र होता है। पिशुन वचन (चुगली) छोड़ पिशुन बचनसे विलं होता है। इन्हें फोडनेके लिये यहां सुनकर वहां कहनेवाला नहीं होता या उन्हें फोरने के लिये वहांसे सुनकर यहां कहने वाला नहीं क्षेता । वह तो फ्टों को मिटानेवाला, मिले हुमों को न फोड़नेवाला, एकतामें प्रसन्न, एकतामें रत, एकत में आनंदित हो, एकता करनेबाली वाणीका बोलनेवाला होता है, कटु वचन छोड़ कटु बचनसे विरत होता है । जो वह वाणी कर्णमुखा, प्रेमणीया, हृदयंगमा, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभ्य, बहुजन कांता-बहुजन मन्या है, वैसी वाणीका बोलनेवाला होता है। पलापको छोड़ प्रकापसे विस्त होता है । समय देखकर बोलनेवाला, यथार्थवादी अथवादी, धर्मवादी विनयवादी हो तात्पर्य युक्त, फल्युक्त, सार्थक, सायुक्त वाणी का बोलनेवाला होता है। यह बीन समुदाय. भूत समुदायके विनाशमे वित होता है। एकाहारी, रातको उपरत ( सतको न खानेवाला ), विकास ( मध्य बोत्तर ) मोननसे विरत होता है । माला, गंध, विलेपनके धारण मंडन विभूषणमे वित होता है। उच्चशयन और महाशयनसे विस्त होता है । सोना चांदी लेने से विस्त होता है। कच्चा अनाज मादि लेनेमे वित होता है । स्त्री कुम री, ढासीदास, भेड़बकरी, मुर्गी सूबर, हाथी गाय, घोडा घडी. खेत घर रेनेसे विरत होता है । दुत बनकर जाने से विस्त होता है । क्रय विक्रय करनेसे विरत होता है। ताजकी ठगी, कांसे की ठगी, मान (तौल ) की ठगीसे विस्त होता है । धूप, वचना, जाकम जी कुटलयोग, छेदन, वध, बंधन छापा मान्ने, प्रामादिके विनाश करने, जाल डालनेसे विस्त होता है। यह भरीरके वस्त्र व पेटके स्वाने से संतुष्ट हत है। वह जहा जहां जाता है अपना सामान लिये ही जाता है जैसे कि (क्षी जहाँ कहीं उड़ता है अपने पक्ष मार के साथ ही उड़ा है। इसी प्रकार भिक्षु शरीके स्त्र और पेट के खाने से संतुष्ट होता है, वह इस प्रकार भार्य (नि ) शीलाध ( सदाचार समूह) से मुक हो, अपने भीतर निर्मक मुखको अनुभव करता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोन कैद तम्बान । वह आंखसे रूपको देखकर निमित्त ( माकृति मादि) और भनुव्यंजन (चिह) का ग्रहण करनेवाला नहीं होता। क्योंकि चक्षु इन्द्रियको भक्षित रख विहरनेवालेको राग द्वेष बुगइयां भकुशल धर्म उत्पन्न होने हैं। इसलिये वह उस्ले सुरक्षा रखता है, चक्षुइन्द्रिकी रक्षा करता है, क्षुइन्दिर में संवर ग्रहण करता है। इसी तरह श्रोत्र इन सुनकर, प्र णसे गंध ग्रहण कर, जिलामे रस प्रहण कर कायासे स्पर्श ग्रहण कर, मनसे धर्म ग्रहण कर निमित्तमाही नहीं होता है. उन्हें संवर युक्त रखता है। इस प्रकार वह आर्य इन्द्रिय संवरसे युक्त हो अपने भीतर निर्मल सुखको अनुपक्ष करता है। ___ वह माने जान्में जानकर करनेवाला (संगजन्य युक) होता है। अबलोकन विलोकनमें, मारने फलाने में, संघटी पात्र चीवरके धारण कर में, खानपान भोजन मास्वाद में, मक मूत्र विसर्जन, बाते खड़े होते, बैठने. सोते, जागते, बोलते, चुप रहने संरजन्य युक्त होता है। इस प्रकार वह आर्यम्मृति संपजन्यसे मुक्त हो अपने निर्मल सुखका अनुभव करता है। यह इप आर्य शील-कंधमे युक्त, इस मार्य इन्द्रिय संवरसे युक्त, इस अ.र्य मृत जनसे युक्त हो एकान्त में भरण्य, वृक्ष छाया, पर्वत कन्दरा, गिरिगुर, ३मशन, वन-प्रान्त, खुले मैदान या पुलालके गंज में वास करता है। वह भोजन के बाद प्रासन मारकर, कायाको सीधा रख, स्मृतिको सम्मुख ठहरा कर बैठता है । वह शो में अभिध्या (लोभको) छोड़ भाभिया रहित चित्तवाका हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४] हुमरा माग विहरता है । चित्तको अभिध्यासे शुद्ध करता है । (२) व्यापाद (द्रोह) दोषको छोड़कर व्यापाद रहित चित्तवाला हो सारे प्राणिकोहिनुरूपी हो विहरता है। व्यापादके दोषसे विचको शुद्ध करता है, (२) स्थान- गृद्धि (शारीरिक, मानसिक आलस्य ) को छोड़, स्वान्गृद्ध रहित हो, मालोक संज्ञावाला (गेशन खयाल) हो, स्मृति और संप्रजन्म (दोश ) से युक्त हो विहरता है, (४) औद्धत्यकोकूत्य (उद्धरने और हिचकिचाहट) को छोड़ अनुद्धत भीत(से शांत हो बिहता है, (५) विचिकित्सा (संदेह ) को छोड़, विचिकित्सा रहित हो, निःसंकोच भाइयों में रम हो विहरता है। इस तरह वह इन अभिध्या आदि पांच नीवरणों को हटाउ शो चिरा मलों को जान उनके दुर्बक करने के लिये काय विषयोंसे अलग हो बुइयों से अलग हो, विवेसे उत्पन्न एवं वितर्क विचारयुक्त मीति सुखा मथम ध्यानको प्राप्त हो विहरता है। और फिर वह बितर्क और विवारके शांत होनेपर भीतरकी प्रपन्नता चितकी एकाग्रताको मतकर वितर्क विचार रहित, समाधि उन प्रीति सुखले द्वितीय ध्यानको प्राप्त हो विहन्ता है और फिर प्रीति और विगग से उपेक्षावाला हो, स्मृति और संप्रजन्यसे युक्त हो, कायासे सुख अनुभव करता विहरता है । जिसको कि आर्य लोग उपेक्षक, स्मृतिम न् और सुखविहारी कहते हैं। ऐसे तृतीय ध्यानको प्राप्त हो विहता है और फि' वह सुख और दुःखके विनाश से, सौमनस्य और दौर्मनस्य के पूर्व ही मस्त हो जाने से, दुःख सुख रहित और उपेक्षक हो, स्मृतिकी शुद्धता से युक्त चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरता है । 1 " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद तलहान । . . वह चक्षुये रूसको देखकर प्रिय रूपमें सयुक्त न होता माप्रिय रूपमे द्वेयुक्त नहीं होता। विशाल चित्त साथ कायिक स्मृतिको कायम रखकर विहरता है। वह उस चित्त की विमुक्ति और प्रज्ञानी विमुक्तिको ठीकसे जानता है। जिससे उनके सारे अकुश धर्म: निरुद्ध होजाते हैं। वह इस प्रकार अनुगेध विरोधसे रहित हो, मुखमय, दुःखमय न सुख न दुःखमय-जिस किसो वेदनाको अनुभव करता है, उसका वह अभिनंदन नहीं करता, अभिवादन नहीं करता, उसमें अवगाहन कर स्थित नहीं होता। उस प्रकार भभिनन्दन न करते, मभिवादन न करते. भवगाहन न करते नो वेदना विषयक नन्दी ( तृष्णा) है वह उसकी निरुद्ध ( नष्ट ) होजाती है। उस नन्दीके निरोधसे उपादान (गगयुक्त ग्रहण ) का निरोष होता है। उपादानके निरोबसे भवका निरोष, भववे निधिसे जाति ( जन्म ) का निरोध, जातिके निरोषसे जा माण, शोक, कंदन, दुःख दौमनस्य हैं, हानि परेशानी का निरोग होता है। इस प्रकार इस केवल दुःख धा निरोध होता है। इसी तरह श्रोत्रसे शब्द सुनकर, प्र णसे गंत्र सूचकर, जिह्वामे रसको पखकर, कायासे स्पर्य वस्तुको छूकर मनसे धर्मों को जानकर प्रिय बमोमे रागयुक्त नहीं होता, भप्रिय धीमें द्वेषयुक्त नहीं होता। इ. प्रकार इस दुःख स्कंघका निरोष होता है। भिक्षुओ! मेरे संक्षे से कहे इस तृष्णा-संशय विमुक्त (तृष्णाके विनाशसे होनेवाली मुक्ति) को धारण करो। नोट-इस सूत्र में संसारके नाशका और निर्वाणके मार्गका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.६] मा माग । बहुत ही सुंदर वर्णन किया है बहुत सूक्ष्म हमे उस सत्रका मनन करना योग्य है। इस सूत्रमें नीचे प्रकार की बातोंको बताया है (१) सर्व संगार भ्रमण का मूल कारण पंचों इन्द्रियों के विषयोंके गगसे उत्पन्न हुआ विज्ञान है तथा इन्द्रियों के प्राप्त ज्ञानसे जो अनेक प्रकार म. में विला होता है सो मनोविज्ञान है । इन छहों प्रकार के विज्ञानका क्षय ही निर्वाग है। (२) रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञान ये पांच स्कंध ही संसार हैं। एक दुसरे कारण है । रूप जड़ है, पांच चेतन है। • इसीको Matter and Mind कह सक्ते हैं। इन मन विकर रूप या में विराई वदना भादिकी उत्पत्तिका मूल कारण रूपों का ग्रहण है। ये उत्पन्न होने वाले हैं. नाश होनेवाले हैं, पराधीन हैं। (३) ये पांचों स्कंध उन म वंसी हैं। माने नहीं ऐसा ठीक ठीक जानना, विश्वास करना सम्यग्दर्शन है । जिस किसीको यह श्रद्धा होगी कि संसारका मूल कारण विषयों का राग है, यह राग त्यागने योग्य है वही सम्यग्दृष्टि है। यही आशय जैन सिद्धांतका है । सांसारिक भासबके कारण भाव तत्वार्थसूत्र छठे अध्यायमें इन्द्रिय, कपाय, अव्रतको कहा है। भाव यह है कि पांचों इन्द्रियों द्वारा ग्रहण किये हुए विषयों में नगर द्वेष होता है, वश क्रोध, मान, म.या लोम कषये जागृत होनाती हैं। कप.योंके अधीन हो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ग्रहण इन पांच भवतोको करता है । इस म.सव का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। (४) फि' इम सूत्र में बताया है कि इस प्रकार के दर्शन शान) कि पांच कंपही संसार है व इनका निरोध संसारका नाश है, पकड़ कर बैठ न हो। यह सभ्यर्शन तो निर्वाण का मार्ग है, महाबके समान है, संपार पार होनेके लिये है। भावार्थ-पत्र भी विकल् । छोकर यम पम घिको प्रान करना चाहिये जो साक्षत् निर्माणका मार्ग है। मर्ग तब ही तक है,. जहाजका आश्रय तब ही तक है जब तक पहुंचे नहीं। जैन सिदां. तमें भी सम्यग्दर्शन दो प्रकारका बताया है। व्यवहार से सवादिका श्रद्धान है, निश्चय स्वानुभव या समाधिभाव है। व्यवहार के द्वारा निश्चय पर पहुंचना चाहिये। तत्र व्यवहार स्वयं छूट जाता है। स्वानुभव ही वास्तबमें निर्वाण मार्ग है व स्वानुभव ही निर्वाण है। (५) फिर इस सूत्र में चार तहका माहार बताया है-जी संसारका कारण है । (१) प्रासाहार या सूक्ष्म शरीर पोषक वस्तुका ग्रहण (२) स्पर्श अर्थात् पांचों इन्द्रियोंके विषयोंकी तरफ झुकना, (३) मनः संचेतन मनमें इन्द्रिय सम्बन्धी विषयों का विचार करते रहना, (४) विज्ञान-मन के द्वारा जो इन्द्रियों के संबन्धसे स्त्री रागद्वेष रूम छाप पड़ जाती है-चेतना दृढ होनाती है वही विज्ञान है। इन चारों माहारों के होने का मूल कारण तृष्णाको बताया है। वास्तवमें तृष्णाके विना न तो मोबन कई लेता है न इन्द्रियों के विषयोंको ग्रहण करता है। जैन सिद्धांतमें भी तृष्णाको ही दुःखका मूल बताया है । तृष्णा जिसने नाश कर दी है वही भवसे पार हो जाता है। (६) इसी सुत्रमें इस तृष्णाके भी मूल कारण अविद्याको या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसरा माग मिथ्याज्ञानको बताया है। मिथ्याज्ञान के संस्कारसे ही विज्ञान होता है। विज्ञानसे ही नामरूप होते है। अर्थात् सांसारिक प्राणी का शरीर और चेतनारू। ढांचा बनता है । हरएक जीवित प्राणी नामरूप है। नामरूके होते हुए मानव मीतर पांच इन्द्रियां और मन में छ: मायतन (organ) होते हैं । इन छहों द्वारा विषयों का कार्य होता है या ग्रहण होता है । विषयों के ग्रहणसे सुख दुःखादि वेदना होती है। वेदनासे तृष्णा होजाती है। जब किसी बालकको लड्डू खिलाया जाता है वह खाकर उसका सुख पैदाकर उसकी तृष्णा बतान्न कर लेता है। जिससे वारवार बड्डू को मांगता है। जैन सिद्धांतमें भी मिथ्यादर्शन सहित ज्ञानको या मज्ञान को ही तृष्णाका भूल बताया है। मिथ्य ज्ञानमे तृष्णा होती है. तृष्णाके कारण; उपादान या इच्छा ग्रहणकी होती है। इसीसे संसारका संस्कार पड़ता है। भव बनता है तब जन्म होता है, जन्म होता है तब दुःख शोक रोना पीटना, जरामरण होता है। इस तरह इस सूत्रमें सर्व दुःखोंका मूल कारण तृष्णा और अविद्याको बताया है। यह बात जैनसिद्धातसे सिद्ध है। (७) फिर यह बताया है कि अविद्याके नाश होनेसे सर्व दुःखों का निरोध होता है। अविद्याके ही कारण तृष्णा होती है । यही बात जैन सिद्धान्तमें है कि मिथ्याज्ञानका नाश होनेसे ही संसारका नाश होजाता है। (८) फिर यह बताया है कि साधकको स्वानुभव या समाधि भावपर पहुँचने के लिये सर्व भूत भविष्य वर्तमानके विकल्पोंको, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . जैन बौद्ध तत्वज्ञान । २३, विचारों को बन्द कर देना चाहिये। मैं क्या था, क्या हँगा, क्या वह भी विस नहीं करना, न यह विाला करना कि मैं शन्य हूं। वास्ता मेरे गुरु है न विसी अम्मके कहे अनुपार विचारना । स्वयं प्रज्ञासे सर्व विषयोको हटाकर तथा सर्व बाहरी वनमाचरण क्रिशमौका भी विकल्प हटाकर भीतर ज्ञानदर्शनसे देखना तब तुर्त हो स्वात्मधर्म मिल जायगा। स्वानुभव होकर परमानंदका लाम होगा। बैन सिद्धान्तमें भी इसी स्व नुभव पर पहुंचाने का मार्ग सर्व विकल्पों त्यांग ही बताया है। सर्व प्रकार उपयोग हटकर जब स्वाहा जमता है तब ही स्वानुभव उत्पन्न होता है । गौतम बुद्ध कहते हैंअपने आपमें जाननेयोग्य इस धर्मके पास मैंने उपनीत किया हैं, पहुंचा दिया है। इन वचनोंसे स्वानुभव गोचर निर्वाण स्वरूप मनात, ममृत शुद्वात्माकी तरफ संत साफ साफ होरहा है। फिर कहते हैं-विज्ञद्वारा अपने आपमें जाननेयोग्य है। अपने भापमें वाक्य इसी गुप्त तत्वको बताते हैं, यही वास्तवमे परम सुख परमात्मा है या शुद्धात्मा है। (९) फिर तृष्णाकी उत्पत्ति के व्यवहार मार्गको बताया है। बच्चे के जन्ममें गंधर्वका गर्ममें माना बताया है। गंधर्वको चेतना प्रवाह कहा है, जो पूर्वजन्मसे आया है। इसीको जैन सिद्धान्तमें पाप पुण्य सहित जीव कहते हैं। इससे सिद्ध है कि बुद्ध धर्म जड़से चेतनकी उत्पत्ति नहीं मानता है । जब वह बालक बड़ा होता है पांच इन्द्रियों के विषयोंको ग्रहण करके इष्टमें राग मनिष्ट द्वेष करता है। इस तरह तृष्णा पैदा होती है उसीका उदान होते हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ J मेरा माने । श्रय बनता है, भव से जन्म जन्म के होते हुए नाना प्रकार के दुःख जरा मरण तक के होते हैं । संसारका मूल कारण अज्ञान और तृष्णा है। इसी बात को दिखाया है । यही बात जैन सिद्धांत कहता है । (१०) फिर संसार के दुखोंके नाश का उपाय इस तरह बताया है— (१) लोक स्वरूपको स्वयं समझकर साक्षात्कार करनेवाले शास्ता बुद्ध परम शुद्ध ब्रह्मचर्य का उपदेश करते हैं। यही यथार्थ धर्म । यहां ब्रह्मर्य मे मतलब ब्रह्म स्वरूप शुद्ध त्मा मे लीनताका है, केव बाहरी मैथुन त्यागका नहीं है । इस धर्मपर श्रद्धा लाना योग्य है । (२) शं वक्रे समान शुद्ध ब्रह्मये या समाधिध लाभ पर नहीं होसक्का, इससे धन कुटुम्बादि छोड़कर सिर दाढ़ी मुड़ा काषाय वस्त्र घर साधु होना चाहिये, (३) वह साधु महाव्रत पालता है, (४) अचौर्य व्रत पलता है, (५) ब्रह्मचर्य व्रत या मैथुन त्याग व्रत पाळता है, (६) सत्य व्रत पाळता है, (७) चुगली नहीं करता है, (८) कटुक वक्त नहीं कहता है, (९) बकवाद नहीं करता है, (१०) वनप्रति कायिक बीजादिका घात नहीं करता है, (११) एक दफे महार कात है. (१२) रात्रिको भोजन नहीं करता है, (१३) मध्य ह पीछे भोजन नहीं करता है, (१४) माला गंध लेव भूषण से विरक्त रहता है, (१५) उच्चासनपर नहीं बैठता है, (१६) सोना, चांदी, कच्चा अन्न, पशु, खेत, मकानादि नहीं रखता है, (१७) दूतका काम, कविक्रम तोकना नापना, छेदना-भेदना, मायाचारी आदि आरम्भ नहीं करता है, (१८) भोजन वस्त्र में संतुष्ट रहता है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन बौद्ध तत्वज्ञान। [२४१ (१९) अपना सामान स्वयं लेकर चलता है. (२०) पांच इन्द्रियों को व मनको संवररूप रखता है, (२१) प्रमाद रहित मन, वचन, कायकी क्रिया करता है, (२२) एकांत स्थान वनादिमें ध्यान करता है, (२३) लोभ द्वेष, मानादिको आलक्ष्य व संदेहको त्यागता है, (२४) ध्यानका अभ्यास करता है. (२५) वह ध्यानी पांचों इन्द्रियों के मनके द्वारा विषयों को जानकर उनमें तृष्णा नहीं करता है, उनसे वैराग्ययुक्त म्हनेसे अगामी का भव नही बनता है, यही मार्ग है, जिससे संसारके दुःखों का अंत होजाता है, जैन सिद्धांतमें भी साधुपदकी आवश्यक्ता बताई है । विना गृहका आरम्भ छोड़े निराकुल ध्यान नहीं होसक्ता है। दिगम्बर जैनोंक शास्त्रों के अनुसार जहांतक खंडवस्त्र व लंगोट है वहांतक का क्षुल्लक या छोटा साधु कहलाता है। जब पूर्ण नम होता है तब साधु कहल ता है। श्वेतांबर जैनोंके । शास्त्रोंके अनुसार नम साधु जिनकल्पी साधु व वस्त्र सहित साधु स्थविकल्पी साधु कहलाता है। साधु के लिये तेरह प्रकारका चारित्र जरूरी है पांच महावत, पांव समिति, तीन गुप्ति। पांच महाव्रत-(२) पूर्ण ने अहिंसा पालना, रागद्वेष मोह छोड़कर भाव अहिंसा, व त्रस-स्थावरकी स६ संकल्पी व आरम्भी हिंसा छोड़कर द्रव्य अहिंसा पालना अहिंसा महावत है, (२) सर्व प्रकार शास्त्र विरुद्ध वचन का त्याग सत्य महावत है, (३) परकी विना दी वस्तु लेने का त्याग अचौयं महावत है, (४) मन वचन काय, कृत कारित अनुमतिसे मैथुन का त्याग ब्रह्मचर्य महावत है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] दूसरा भाग। (५) सोना चांदी, धन धान्य, खेत मकान, दासीदास, गो मेंसादि, अनादिका त्याग परिग्रह त्याग महाव्रत है। पांच समिति (१) ईर्यासमिति, दिनमें रौंदी भूमिपर चार हाथ जमीन आगे देखकर चलना, (२) भाषासमिति-शुद्ध, मीठी, सभ्य वाणी कहना, (३) एषणा समिति -शुद्ध भोजन संतोषपूर्वक भिक्ष द्वारा लेना, (४) आदाननिक्षेपण समिति-शरीरको व पुस्तकादिको देखकर उठाना धरना, (५) प्रतिष्ठापन समिति-मल मूत्रको निन्तु भूमिगर देखके करना । तीन गुप्ति-१) मनोगुप्ति-मनमें खोटे विचार न करके धर्म का विचार करना । (२) वचनगुप्ति-मौन रहना या प्रयोजन वश अल्प वचन कहना या धर्मोग्देश देना । (३) कायगुप्ति-कायको भासनसे प्रमाद रहित रखना । इस तेरह प्रकार चारित्रकी गाथा नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्तीने द्रव्यसंग्रहमें कही है सुहादोविणिवत्तो सुहे पवित्तो य जाण चारित्त । बदस मिदिगुत्तरूव वहाणघा दु जिणमणियं ॥ ४५ ॥ भावार्थ -अशुभ बातोंसे बचना व शुभ बातोंमें चलना चास्त्रि है । व्यवहार नयसे वह पांच का गंव समिति तीन गुप्तिरूप कहा गया है। सधुको मोक्षमार्गमें चलते हुए दश धर्म व बारह तपके साधनकी भी जरूरत है। दश धर्म - "उत्तमक्षमामार्दवानवसत्यशौच संयमतपस्त्यागाचिन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः " तत्वार्थसूत्र १० ९ सूत्र ६। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मौन बैद तत्वज्ञान। [२५३'. (१) उत्तम क्षमा-कृष्ट पानेपर भी क्रोध न करके शांत भाव रखना। (२) उत्तम मार्दव-अपमानित होनेपर भी मान न करके कोमल भाव रखना। (३) उत्तम आर्जव-बाधाओंसे पीडित होनेपर भी मायाचारसे स्वार्थ न साधन', सरल माव रखना । (४) उत्तम सत्य-कष्ट होने पर भी कभी धर्मविरुद्ध वचन नहीं कहना। (५) उत्तम शौच-संसारसे विरक्त होकर लोमसे मनको मेला न करना । ३ (६) उत्तम संयम-पांच इन्द्रिय व मनको संवरमें रखकर इंद्रिय संयम तथा पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति व स कायके धारी जीवोंकी दया पालकर प्राणी संयम रखना । (७) उत्तमतप-इच्छाओं को रोककर ध्यानका अभ्यास करना। (८) उत्तम त्याग-समयदान तथा ज्ञानदान देना । (९) उत्तम आकिंचन्य-ममता त्याग कर, सिवाय मेरे गुट स्वरूपके और कुछ नहीं है ऐसा भाव रखना। : (१०) उत्तम ब्रह्मचर्य-बाहरी ब्रह्मचर्यको पालकर भीतर ब्राचर्म पालना। बारह तप-"अनशनावमौदर्यत्तिपरिसंख्यानरसपरिस्यागविविक्तशय्याशनकायक्लेशा बाह्यं तपः॥१९॥ प्रायश्चितविनयवैय्यात्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम् ॥ २० ॥ १० ९त० सूत्र । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसरा माग। बाहरी छ: तप-जिसका सम्बन्ध शरीरसे हो व शरीरको वश रखने के लिये जो किये जावें वह बाहरी तप हैं। ध्यान के लिये स्वास्थ्य उत्तम होना चाहिये । मालस्य न होना चाहिये, कष्ट सहनेकी आदत होनी चाहिये। (१) अनशन-उपवास-खाद्य, स्वाद्य, लेह्य, पेय चार प्रकार माहारको त्यागना । कभी२ उपवास करके शरीरकी शुद्धि करते हैं। (२) अवमोदय-भूख रखकर कम खाना, जिससे मालस्य क निद्राका विजय हो। (३) वृत्तिपरिसंख्यान-भिक्षाको जाते हुए कोई प्रतिज्ञा लेता । विना कहे पूरी होनेपर भोजन लेना नहीं तो न लेना मनके रोकनेका साधन है। किसीने प्रतिज्ञा की कि यदि कोई वृद्ध पुरूष दान देगा तो लेंगे, यदि निमित्त नहीं बना तो आहार न लिया। (४) रस परित्याग-शक्कर, मीठा, लवण, दूध, दही, घी, तेल, इनमेंसे त्यागना । (५) विविक्त शय्यासन-एकांतमें सोना बैठना जिससे ध्वान, स्वाध्याय हो । ब्रह्मचर्य पाला जासके । बन गिरि गुफादिमें रहना। (६) कायक्लेश-शरीरके मुखियापन मेटनेको विना क्लेश अनुभव किये हुए नाना प्रकार भासनोंसे योगाभ्यास स्मशानादिमें निर्भय हो करना। छ. अंतरङ्ग तप-(१) प्रायश्चित्त-कोई दोष लगने पर दंड ले शुद्ध होना, (२) विनय--धर्ममें व धर्मात्माओंमें भक्ति करना, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन बौद्ध तत्लान। . [२४५ (३) वैय्यातुत्य-रोगी, थके, वृद्ध, बाल, साधुनों की सेवा करना, (४) स्वाध्याय-ग्रंथोंको भावसहित मनन करना, (५) व्युत्सर्गभीतरी व बाहरी सर्व तरफकी ममता छोड़ना, (६) ध्यान-चित्तको रोककर समाधि प्राप्त करना । इसके दो भेद हैं-सविकल्प धर्मध्यान, निर्विकल्प धर्मध्यान । धर्मके तत्वोंका मनन करना सविकल्प है, थिर होना निर्विकल्स है । पहला दुसरेका साधन है। धर्मध्यानके चार भेद हैं (१) आज्ञाविचय-शास्त्राज्ञाके अनुसार तत्वोंका विचार करना। (२) अपायविचय-हमारे राग द्वेष मोह व दुसरोंके रागादि दोष कैसे मिटें ऐसा विचारना । (३) विपाकविचय-संसारमें अपना व दुसरोंका दुःख सुख विचार कर उनको कोका विषाक या फल विचार कर समभाव रखना। (४) संस्थानविचय-लोकका स्वरूप व शुद्धात्माका स्वरूप विचारना ध्यानका प्रयोजन स्वानुभव या सम्यक् समाधिको पाना है। यही मोक्षमार्ग है, निर्वाणका मार्ग है। आष्टांगिक बौद्ध मार्गमें रत्नत्रय जैन मार्ग गर्मित है। (१) सम्यग्दर्शनमें सम्यग्दर्शन गर्भित है। (२) सम्यक संकल्पमें सम्यग्ज्ञान गर्मित है। (३) सम्यक् वचन, सम्यक कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक् समाधि, इन छहमें सम्यक चारित्र गर्भित है। वा रत्नत्रयमें मष्टांमिक मार्ग गर्मित है। परस्पर समान है। यदि निर्वा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४.] दूसरा भाग। भको सदभावरूप माना जावे तो जो भाव निर्वाणका व निर्वाणके मार्गका जैन सिद्धांतमें है वही भाव निर्वाणका व निर्वाण मार्गका बौद्ध सिद्धांतमें है। साधुकी बाहरी क्रियामों में कुछ अंतर है। मीतरी स्त्रानुभव व स्वानुभवके फलका एकसा ही प्रतिपादन है ! जैन सिद्धांतके कुछ वाक्यपंचास्तिकायमें कहा है-- जो खलु संसारस्थो जीवो तत्तो दु होदि परिणामो। परिणामादो कम्म कम्मादो होदि गदिसु गदी ॥ १२८ ॥ गदिमधिगदस्स देहो देहादो इंदियाणि जायते । तेहिं दु विसयागहण तत्तो रागो व दोसो वा ॥ १२९ ॥ जायदि जीवरसेवं भावो संसारचक्क चालम्मि । इदि जिणवाहिं मणिदो प्रणादिणिधणो सणिपणो वा ॥१३॥ भावार्थ-इस संसारी जीवके मिथ्याज्ञान श्रद्धान सहित तृष्णायुक्त रागादिभाव होते हैं । उनके निमित्तसे कर्म बन्धनका संस्कार पड़ता है, कर्मके फलसे एक गतिसे दुसरी गतिमें जाता है। जिस गतिमें जाता है वहां देह होता है, उस देहमें इन्द्रिया होती हैं, उन इन्द्रियोंसे विषयोंको ग्रहण करता है। जिससे फिर रागद्वेष होता है, फिर कर्मबन्धका संस्कार पडता है। इस तरह इस संसाररूपी चक्रमें इस जीवका भ्रमण हुमा करता है। किसीको अनादि अनंत रहता है, किसीके अनादि होने पर अंतसहित होजाता है, ऐसा जिनेन्द्रने कहा है। समाधिशतकमें कहा है: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान ! मूल संसारदुःखस्य देह एवात्मनस्ततः । त्यक्त्वेनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्या पृतेन्द्रियः ॥ १५ ॥ भावार्थ- संसार के दुःखों का मूल कारण यह शरीर है । इस किये व्यात्मज्ञानीको उचित है कि इनका ममत्व त्यागकर व इन्द्रियोंसे उपयोगको हटाकर अपने भीतर प्रवेश करके आत्माको ध्यावे । आत्मानुशासनमें कहा है: --- [ २४७ उपप्रेम कठोर धर्म किरणस्फूर्जग मस्तिनः । संतप्तः सकलेन्द्रियैग्यमहो संवृद्धतृष्णो जनः ॥ अप्राप्यभिमतं विवेक विमुखः पापप्रयासाकुट - स्तोयोपान्त दुरन्तकर्द्दम गतक्षणोक्षयत् क्लिश्यते ॥ ५५ ॥ भावार्थ - भयानक गर्म ऋतुके सूर्यकी तप्तायमान किरणोंके समान इन्द्रियोंकी इच्छाओंसे आकुलित यह मानव होरहा है। इसकी तृष्णा दिनपर दिन बढ़ रही है। सो इच्छानुकूल पदार्थोंको न पाकर विवेकरहित हो अनेक पापरूप उपायोंको करता हुआ व्याकुळ डोरहा है व उसी तरह दुखी है जैसे जलके पासकी गहरी कीचड़में फँसा हुआ दुर्बल बूढा बैल कष्ट भोगे । स्वयंभू स्तोत्र में कहा है तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थविभवः परिवृद्धिरेव । स्थित्यैव कायपरितापहरं निमित्त मित्यात्मवान्विषय सौख्यपराङ्मुखोऽभूत् ॥८२॥ मावार्थ - तृष्णाकी अग्नि जलती है । इष्ट इन्द्रियोंके भोगोंके द्वारा भी वह शान्त नहीं होती है, किन्तु बढ़ती ही जाती है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ | दूसरा भाग । केवळ भोगके समय शरीरका ताप दूर होता है परन्तु फिर बढ़ जाता है, ऐसा जानकर आत्मज्ञानी विषयोंके सुखसे विरक्त होगए । मायत्यां च तदात्वे च दुःखयोनिर्निरुत्तरा | तृष्णा नदी त्यत्तीर्ण विद्यानावा विविक्तया ॥९२॥ भावार्थ - यह तृष्णा नदी बड़ी दुस्तर है, वर्तमान में भी दुःखदाई है, आगामी भी दु:खदाई है। हे भगवान् ! आपने वैराग्यपूर्ण सम्यग्ज्ञानकी नौका द्वारा इसको पार कर दिया । समयसार कलश में कहा है : एकस्य नित्यो न तथा परस्य चिति द्वयोर्शविति पक्षपातौ । यह त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥ ३८-३ ॥ भावाथ - विचार के समयमें यह विकल्प होता है कि द्रव्यदृष्टिसे पदार्थ नित्य है, पर्याय दृष्टिसे पदार्थ अनित्य है, परन्तु आत्मतत्व के अनुभव करने वाला है, इन सर्व विचारोंसे रहित होजाता है । उसके अनुभव चेतन स्वरूप वस्तु चेतन स्वरूप ही जैसीको तैसी झलकती है । इन्द्रजात्रमिदमेवमुच्छलत्पुष्कलोञ्चल विकल्पवीचिभिः । अस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ||४६-३॥ भावार्थ - जिसके अनुभव प्रकाश होते ही सर्व विकल्पोंकी तरंगों से उछलता हुआ यह संसारका इन्द्रजाल एकदम दूर होजाता हैं वही चैतनाज्योतिमय मैं हूं । मासंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः सुता यस्मिनपदमपदं तद्विबुध्यध्वमन्धाः । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एततेतः पदमिदमिद यत्र चैतन्यचातुः शुद्धः शुद्धः स्वरसभरत: स्थायिभावत्वमेति ॥६-७॥ भावार्थ-ये संसारी जीव अनादिकालसे प्रत्येक अवस्था रागी होते हुए सदा उन्मत्त होरहे हैं। जिस पदकी तरफसे सोए पड़े हैं हे अज्ञानी पुरुषों ! उस पदको जानो। इधर आमो, इधर माओ, यह वही निर्वाणस्वरूप पद है जहां चैतन्यमई वस्तु पूर्ण शुद्ध होकर सदा स्थिर रहती है । समयसारम कहा है णाणी रागपत्रहो मन्बदब्बेसु कम्ममागदो। जो लिप्पदि कम्मरएण दु पदममज्झे जहा कणयं ॥२२९॥ अण्णाणी पुण रत्तो सव्वदम्वेसु कम्ममागदो। लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोहं ॥ २३ ॥ भावार्थ-सम्यग्ज्ञानी कर्मोके मध्य पड़ा हुमा भी सर्व शरीरादि पर द्रव्योंसे राग न करता हुआ उसीताह कमरजसे नहीं लिपता है जैसे सुवर्ण कीचड़में पड़ा हुमा नहीं बिगड़ता है, परन्तु मिथ्याज्ञानी कोके मध्य पड़ा हुआ सर्व परद्रव्योंसे राग भाव करता है बिससे कर्मरनसे बंध जाता है, जैसे लोहा कीचड़ में पड़ा हुआ विगढ़ जाता है। भावपाहुडमें कहा है पाऊण णाणसलिलं णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का । हुति सिवाळयवासी तिहुषणचूडामणी सिद्धा ॥ ९३ ॥ णाणमयविमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण । पाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होति ।। १२५ ।। भावार्थ-मात्मज्ञानरूपी जलको पीकर मति दुस्तर तृष्णाकी दाह व जवनको मिटाकर भव्य जीव निर्वाणके निवासी सिद्ध भगवान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २५० ] दुसरा भाग ।.. तीन लोकके मुख्य होजाते हैं । भव्य जीव भाव सहित आत्मज्ञानमई निर्मल शीतल जलको पीकर रोग जरा मरणकी वेदनाकी दाहको शमनकर सिद्ध होजाते हैं । मूलाचार अनगार भावनामें कहा है अवगद माणत्थंभा अणु स्सदा मगव्त्रिदा अचंडा य । दंता मद्दवजुत्ता समयविदण्डू विणीदा य ॥ ६८ ॥ उवलद्धपुण्णपावा जिणसासणगहिद मुणिदपज्जाका । करचरणसंवुडंगा झाणुवजुत्ता मुणी होति ॥ ६९ ॥ भावार्थ- जो मुनि मानके स्तंभ से रहित हैं, जाति कुलादि मदसे रहित हैं, उद्धतता रहित हैं, शांत परिणमी हैं, इन्द्रियोंके विजयी हैं, कोमलभावसे युक्त हैं, आत्मस्वरूपके ज्ञाता हैं, विनयबान हैं, पुण्य पापका भेद जानते हैं, जिनशासनमें दृढ़ श्रद्धानी हैं, द्रव्य पर्यायोंके ज्ञाता हैं, तेरह प्रकार चारित्र से संवर युक्त हैं, दृढ़ धारी हैं वे ही साधु ध्यानके लिये उद्यमी रहते हैं । मूळाचार समयसारमें कहा है: सज्झायं कुत्तो पंचिदियसंपुढो तिगुत्तो य । हवदि य एयग्गमणो विणरण समाहिओ भिक्खू ॥ ७८ ॥ भावार्थ - शास्त्रको पढ़ते हुए पांचों इन्द्रियाँ वशमें रहती हैं, मन, वचन, काय रुक जाते हैं । भिक्षुका मन विनयसे युक्त होकर उस ज्ञानमें एकाग्र होता है । मोक्षपाहुड़ में कहा है जो इच्छइ णिस्सरिहुं संसारमहण्णवाट रुदाओ । कम्मिषणाण उहणं सो झाय अप्पयं सुद्धं ॥ २६ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद तत्वज्ञान । [२५१ पंचमहव्ययजुत्तो पंचसु समिदीसुतीसु गुत्तीम् । रयणत्तयसंजुत्तो झाणज्झयणं सदा कुणह ॥ ३३ ॥ भावार्थ-जो कोई भयानक संसाररूपी समुद्रसे निकलना चाहता. है उसे उचित है कि कर्मरूपी ईंधनको जलानेवाले अपने शुद्ध, मात्माको ध्यावे । साधुको उचित है कि पांच महाव्रत, पांच समिति, तीन गुप्ति इस तरह तेरह प्रकारके चारित्रसे युक्त होकर सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र सहित सदा ही आत्मध्यान व शास्त्र स्वाध्यायमें लगा रहे। सारसमुचयमें कहा है गृहाचारकवासेऽस्मिन् विषयामिषलोमिनः । सीदति नरशार्दूला बद्धा मान्धवबन्धनैः ॥ १८३ ॥ भावार्थ-सिंहके समान मानव भी बंधुजनोंके बंधनसे बंधे हुए इन्द्रियविषयरूपी मांसके लोभी इस गृहवासमें दुःख उठाते हैं। ज्ञानार्णवमें कहा हैमाशा जन्मोप्रपंकाय शिवायाशाविपर्ययः । इति सम्यक् समालोच्य यद्वितं तत्समाचा ।।१९-१७॥ भावार्थ-माशा तृष्णा संसाररूपी कर्दममें फंसानेवाली है: तथा भाशा तृष्णाका त्याग निर्वाणका देनेवाला है, ऐसा भले प्रकार विचारकर । जिसमें तेरा हित हो वैसा आचरण कर । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखककी प्रशस्ति । 50+ दोहा | भरतक्षेत्र विख्यात है, नगर लखनऊ सार । अग्रवाल शुभ वंशमें, मंगलसैन उदार ॥ १ ॥ तिन सुत मक्खनलालजी, तिनके मुत दो जान । संतूमल हैं ज्येष्ठ अब, लघु ' सीतल' यह मान ||२॥ विद्या पढ़ गृह कार्यसे, हो उदास वृषहेतु । बत्तिस वय अनुमानसे, भ्रमण करत सुख हेतु || ३ || उन्निस सौ पर बानवे, विक्रम संवत् जान | वर्षाकाल विताइया, नगर हिसार स्थान ॥४॥ नन्दकिशोर सु वैश्या, बाग मनोहर जान । तहां वास सुखसे किया, धर्म निमित्त महान ॥५॥ मन्दिर दोय दिगम्बरी, शिखरबन्द शोभाय । नर नारी तह प्रेमसे, करत धर्म हितदाय ||६|| कन्याशाळा जैनकी. पबलिक हित है जैनका. पुस्तक आलय थान ॥७॥ जैनी गृह शत अधिक हैं, अग्रवाल कुळ जान । मिहरचंद कूडूमलं, गुलशनराय सुजान ॥ ८॥ पंडित रघुनाथ सहायजी, अरु कश्मीरीलाल । अतरसेन जीरामजी, सिंह रघुवीर दयाल ॥ ९॥ महावीर परसाद है, बांकेराय है, बांकेराय वकील | शंभूदयाळ प्रसिद्ध हैं, उग्रसेन सु वकील ॥१०॥ बाळकशाला जान । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान | फूलचंद सु वकील हैं, दास विशंभर जान । गोकुळचंद सुगजते, देवकुमार इत्यादिकके साथमें, सुखसे काळ वर्षाकाळ विताइयो, आतम उरमें ૧૯૩ शब्द (१) अचेलक चूल जसपुर सूत्र (२) अदजादान चूल सकुरदायो सुजान ॥ १२॥ बिताय । बुद्ध धर्मका ग्रंथ कुछ पढार चित हुलसाय । जैन धर्मके तत्वसे मित्रत बहुत सुखदाय ॥ १३॥ सार तच्च खोजीनके, हित यह ग्रन्थ बनाय । पढ़ो सुनो रुचि धारके, पात्रो सुख अधिकाय ॥१४॥ - मंगल श्री जिनराज हैं, मंगल सिद्ध महान । आचारज पाठक परम, साधु नमूं सुख खान ॥१४॥ - कार्तिक वदि एकम दिना, शनीवारके प्रात । ग्रंथ पूर्ण सुखसे किया, हो जगमें विख्यात ॥ १५ ॥ भाय ॥ १२॥ बौद्ध जैन शब्द समानता । सुत्तपिटकके मज्झिमनिकाय हिन्दी अनुवाद त्रिपिटिकाचार्य राहुल सांकृत्यायन कृत ( प्रकाशक महाबोर सोसायटी सारनाथ बनारस सन् १९३३ से बौद्ध वाक्य लेकर जैन ग्रंथोंसे मिळान ) । बौद्ध ग्रन्थ जैन ग्रन्थ सूत्र ७९ नीतिसार इंद्रनंदिकृत श्लोक ७५ तत्वार्थ उपास्वामी म० ७ सूत्र १५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ] शब्द (३) अध्यवसान दीघ जख (४) अनागार माधुरिय (१२) आकिंचन्य पंचत्तय (१३) आचार्य (१४) बात (१९) अस्र (१६) इन्द्रिय दूसरा भाग । (५) अनुभव सुमसूत्र (६) अपाय महासीनाद सूत्र १२ (७) अभव्य महाकम्मविभंग १३६ २२ (८) व्यभिनिवेश अलग. ६पम (९) भरति . (१०) अर्हत् नळकपान ६८ >" महातराहा संसय ३८ (११) संज्ञो पंचत्तय (१७) ईर्या (१८) उपधि - (१९) उपपाद बौद्ध ग्रन्थ जैन ग्रन्थ सूत्र ७४ समयसार कुंदकुंद गाथा ४४ ८४ तत्वार्थ सूत्र म० ७ सूत्र १९ " ९९ म० ८ २१ " कट्ठ कनागर पंचत्रय सव्यासव धम्मचेतिय "" महा सिंहनाद कुटिकोपय छन्नोबाद " ܙܕ "" सूत्र १०२ तत्वार्थसार " सूत्र १०२ तत्वार्थसूत्र ५२ २९ १३ ६६ १४४ 27 चूल महसपुर सूत्र ४० महासीहनाद १२ ९१ 7: "" ;" ०२ २ (२०) उपशम (२९) एषण (२२) केवळी ब्रह्मायु सूत्र (२३) औपपातिक माकखेय सूत्र (२४) गण पासरासि सूत्र (२५) गुप्ति (२६) तिर्यग् माधुरिय सूत्र महासीहनादसूत्र १२ "" ܕܕ 33 ६ "" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ܙܕ "" "" "> " "" "" "" 19 म० म० ९ म० ६ अ० २ म० ९ "" ८४ तत्वार्थसूत्र अ० ९ म० ४ "" " 35 "" म० ७ ९ अ० २ ७ ५० ७ २८ ब०८ ९ म० ६ २४ " अमृतचंद्र कृत श्लोक १२१-२ ०९ सुत्र ६ म० ९ २४ प्र ० ५ २४ श्र० ४ १३ अ० ४ ब०९ २६ म० ९ ४७ ४५ "" ܐܗ ७ "" >> " " 21 " 22 ܕ ܕ "" :> "" "" ,, "" "" "" " " १३ १३ २४ २ २७ www.umaragyanbhandar.com Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द (२७) तीर्थ (२८) त्रायखिंश (२९) नाराच (३०) निकाय (३१) निक्षेप (३२) पर्याय (३३) पात्र (३४) पुंडरीक (३५) परिदेव (३६) पुद्र० (३७) प्रज्ञा (३८) प्रत्यय (३९) प्रव्रज्या (४०) प्रमाद (४१) प्रवचन (४२) बहुश्रुत (१३) बोषि (१४) भव्य जैन बौद्ध तत्वज्ञान | बौद्ध ग्रन्थ (४८) रूप (४९) बितर्क (५०) विपाक (११) वेदना बहु धातुकसूत्र ११९ महासींहनाद सूत्र १२ पासरासि सूत्र २६ सम्मादिट्ठि सूत्र ९ ३५ ४३ महा पुण्णम सूत्र १०९ कुक्कुवतिक सूत्र १७ कीटागिरि सूत्र ७० अग्निगोत सु.७२ मद्दालि सूत्र ६५ सेख ब्रह्मायु सब्वासव (१५) भावना (४६) मिपादृष्टि भय भैरव (४७) मैत्री भावना वत्थ सल्लेख सूत्र ८ ४१ अ० ४ ४ "7 "" साहेय्य सूत्र चुकमालुक्य सूत्र ६३ सर्वार्थसिद्धि म० ८ सूत्र ११ ४८ तत्त्रार्थसूत्र म० ४ १ छः छक्ककसूत्र १ सम्मादिट्ठि सूत्र ९ अ० ६ चूचक सुत्र महावेदल्ल सूत्र सम्मादिट्ठ सन्त्रासय उपालि सम्मादिट्ठि "" "" " "" ,, " 19 " ५३ ९१ ९ २ ५६ सुत्र "> Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat " 27 ܕܕ "" 77 "" "" "3 " "" जैन ग्रन्थ ८० म० ६ ब० ५ १ "" " समयसार कलश लोक १-९ समयसार कुंदकुंद गा० ११६ बोत्रपाहुड़ कुंदकुंद गा० ४५ तत्वार्थ सूत्र म० ८ सूत्र १ म० ६ २४ म० ६ २४ अ० ९ · २ :> । २५५ "" ५० १० सूत्र ९ O ५० ७ "" "" म० ५ अ० ९ अ० ८ म० ९ "" "" "" "" २ अ० ६ ३ "" "" ४ तत्वार्थद्वार श्लोक १६२२ ७ तत्वार्थसूत्र म ० ७ सूत्र ११ ५ ४३ २१ ३२ ܙܕ "" "> "" " "" ९ २८ "" "" ३९ १४ ११ www.umaragyanbhandar.com Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन्द बौद्ध ग्रन्थ जैन ग्रन्य (१२) वेदनीय महावेदल सूत्र ४३ तत्वार्थसूत्र न. ८ सुत्र ४ (१३) प्रतिक्रम गोयक मुगलान तत्वार्थसूत्र म. ७ , ३. सूत्र १०८ (१४) शयनासन सव्यासव सूत्र नं० २ तत्वार्थसूत्र म०९ सुत्र १९ (५५) शल्य चूल मालुक्य सूत्र ६३ , ब. ७, १८ (१६) शासन स्थविनीत सुत्र २४ रनकर उश्रा. समतमद्रलो.१८ (५७) शास्ता मुल परिमाय सुत्र १ , , श्लो. ८ (१८) शैक्ष्प , , , तत्वार्थसुत्र ब० ९ सूत्र २४ (१९) श्रमण चूळ सिंहनाद सुत्र ११मुलाचार अनगार मावना बट्टकरि गाथा १२० (६०) श्रावक धम्मादापाद ,, ३ तत्वार्थसुत्र म०९ सुत्र ४५ (६१) श्रुत मूल परिपाय ,, १ , भ. १ ,, ९ (६२) संघ कुटिकोयम , ६६ , म०९,, ३४ (६३) संज्ञा मूळ परियाय , १ , न. १ ,, २३ (६४) संज्ञो पंचत्तप सूत्र १०२ तत्वार्थसार श्लोक १६२-२ (६५) सम्यक्ष्टि भयभैरव , ४ तत्वार्थसूत्र न.९ सूत्र ४९ (६६) सर्वज्ञ चूळसुकुदायि सूत्र ७९ रत्नकरंद श्लो० ५ (६७) संवर सव्वासव सुत्र २ तत्वार्थसूत्र म०९, १ (६८) संवेग महात्यिपदोपसु.२८ ,, म. ७ ,, १२ (६९) सांयरायिक ब्रह्मायु सूत्र ९१ , (७०) स्कंध सतिपट्टान सूत्र १० । (७१) स्नातक महा मस्तपुर सू.३९ (७२) खाख्यात वत्थ सूत्र ७ 9 ur roo Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन ग्रंथोंके श्लोकादिकी सूची जो इस ग्रंथमें है। 1 022 (१) समयसार कुंदकुंदाचार्यकृत गाथा नं० १०८/२ जो खविद १९ पुस्तक म० | , ४२/३ इह लोग १९ माथा नं० २५ अहमेदं .१ , ७९/१ तेपुण उदिण्ण २० २६ मासि मम १ , ९९/२ जो णिहद मोह २२ २७ एवंतु (३) पंचास्तिकाय कुंदकुंदकृत ४३ अहमिको गाथा नं. ३८ कम्माणं १० १६४ वत्थस्स , ३९ एके खलु १० १६५ वत्थस्स " १६६ पत्थस्स १३६ साईत १३ " १६७ जस्स ११६ सामण्ण २१ , " १६९ तम्हा ७७ णादूण १४ , १२८ जो खलु ७८ अहमिको १४ " १२९ गदि म २६ ३२६ जीवो वंशो " " १३० जायदि २५ " ३१९ पण्णाए ,, १६० वदणियमाणि २१ / (४) बोधपाहुड़ कुंदकुंदकृत " २२९ णाणा राग २६ गाथा नं० ५० णिण्णेहा १३ " २३० अण्णाणी २७ , २ उपसम २२ (२) प्रवचनसार कंदकंदकत | " ९७ पशुम हल २२ गाथा नं०६४/१ जेसिविसयेसु ११ (५) मोक्षपाहुड़ कुंदकुंदकृत , ७९/१ ते पुण ११ गाथा नं० ६६ ताप ण ११ , ८६/३ ण हवदि १३ , ६८ जे पुण विषय ११ " ८२/३ समसत्तु बंधु १६ , ९२ देवगुरुम्मिय १३ , १०७/२ जो णहद १९ , २७ सध्वे कसाय २१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ م م م م م م م २५८) दूसरा भाग। गाथा नं. ८१ उद्धद्ध मज्श २३ (९) तत्वार्थसूत्र उमास्वामीकृत २६ जो इच्छदि २५ सत्र नं. १४८ मिथ्यादर्शन २ , ३३ पंचमहव्ययं २५ , २३/७ शंकाकांक्षा २ (६) भावपाहुड कुंदकुंदकृत । , २/७ असानि० २ गाथा ने० ६१ जो जयो १९ " २/९ सगुप्ति , ९३ पाऊण २५/ " ९/९ क्षुत् , १२५ णाणमय २९ ॥ ९/८ दर्शन १८/७ निःशल्यो (७) मूलाचार वट्टकेरकृत , ११/९ मंत्रीप्रमोद गाथा नं० ८३ बछ गच्छन्नं १० , २/१ तत्वार्थ , ८४ एवारिसे सरीरे १० , ३२/९ माज्ञा ८ " ४ मिक्खं चर १३ , ८/७ मनोज्ञा ५ मव्यवहारी १३ , १७/७ मळ ११ १२२ जदं चरे " ११ १२३ जदंत १३ " २९/७ क्षेत्रवास्तु ४९ मक्खो १६ , १९/७ अगार्य ११ ६२ वसुधम्मि १६ , २०/७ रुणुव्रतो ११ ६८ नवगय २५ , ४/७ वाङ्मनो १५ " ६९ उपलद्ध २५/ , १/७ कोषलोभ १५ , ७८ सज्झायं २५ " ६/७ शून्यागार (८) योगसार योगेन्द्रदेवकृत । , ७/७ स्त्रीराग १५ , १२ पप्पा १८ , ६/७ मनोज्ञा १५ , २२ जो परमप्पा १८ , ६/९ उत्तमक्षमा २५ २६ सुद्ध १८ , १९/९ मनशना २५ " ८८ मप्पसरूष १८ , २०/९ प्रायश्चित्त २५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [२५९ (१०) रखकरंद समंतभद्रकृत ।(१३) समाधिशतक पूज्यपादकृत श्लोक नं. ४ श्रद्धानं ५ लोक नं. ६२ खबुध्या १२ कर्मपरवशे ८ २३ येनारमा २ माप्तेनो २४ यदभावे ६ क्षुत्पिपासा ९ ३० सन्द्रियाणि २ ४७ मोहति मग ११ ७४ देहान्तर ४८ रागद्वेष ११ ७८ व्यवहारे ९ ४९ हिंसान १२ ७९ प्रात्मान , ५. मकलं विकलं १९ १९ यत्परैः प्रति ९ , ४० शिव १९ २३ येनारमा ९ (११) स्वयंभूस्तोत्र समंतभद्रकन ३५ रागद्वेषादि १४ लोक नं. १३ शहदोन्मेष ८ ३७ मविद्या १५ " ८२ तृष्णा २५ ३९ यदा मोहात् १५ ,, ९२ मायस्यां २५ ७२ जनेभ्यो वाक् १५ (१२) भगवती आराधना " ७१ मुक्तिरेकांतिके २२ शिवकोटिकृत। .. १५ मलं संसार २५ गानं० १६७अप्पायत्ता ११ , १२७१ भोगरदीए ११॥ (१४) इष्टोपदेश पूज्यपादकृत " १२८३ णचा दुरंत ११ लोक नं. ४७ मारमानुषन्वन ५ " ४६ भरत सिद्ध १३ , १८ भवंति पुण्य ८ , ४७ मत्ती पूया १३ | " ६ वासनामात्र ८ " १६९८ जिद रागो १३ , १७ भारं मे १. , १२६४ जीवस्स २० , ११ रागद्वेषद्वये १४ , १८६२ जहजह २१ , ३६ मभवच्चित्त १५ १८९४ वयर २१ (१५) आत्मानुशासन गुणभद्र , १८८३ सम्यग्गंध २३ लोक नं. ५९ मस्थिस्थूल ८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० दूसरा भाग। श्लोक नं० ४२ कृष्टाप्ला १०(१७) द्रव्यसंग्रह नेमिचंद्रकृत १७७ मुहुः सायं १४ नाथा नं० ४८ मा मुसह ३ ९८९ मधीत्य १६ , ४७ दुविहंपि ३ २१३ हृदयसासि १६ , ४५ असुहादो २५ १७१ दृष्ट्व। जनं २० (१८) तत्वार्थसार अमृतचंदकृत २२५ यमनियम २१ श्लोक नं० ३६/६ नानाकम ८ २२६ समाधिगत २१ , ४२/७ द्रयादिवत्ययं ८ २२४ विषयविरतिः २३ प्राज्ञः २ ५५ उपग्री पत्र २० , , ३८/४ मायानिदान १३ ४२/४ मकाम १० w w , ४३/४ सराग १७ (१६) तत्वसार देवसेनकृत (१९) पुरुषार्थसिद्धयुपाय माथा नं. ६ इंदियविसय ३ अमृतचंद्रकृत ७ समणे ३ श्लोक नं. ४३ । त्खलु ६ ४६ झाणहियो ३ ___४४ भप्रादुर्भाव: ६ ४७ देहमुहे पउ ३ ,, ९१ यदिदः प्रमाद६ १६ लाहालाह ४ ९९ स्वक्षेत्रकाल ६ १८ राया दिया ४ ९३ ममदपि ६ ६१ सयल वियप्पे ५ ९४ वस्तु यदपि ६ ४८ मुक्खो विणास ८ ९९ गर्हित ४९ रोयं सहनं ८ ९६ पैशुन्य ६ ५१ भुत ८ ९७ छेदन मेदन ६ ५२ भुंजतो ८ __ ९८ भरतिकरं ३५ रूसदं तु सा ८ १०२ भवितीर्णस्य ३७ सप्प समणा १६ , १०७ यद्वेद , ३४ पदवं १९ , १११ मा w w w w w w w w Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ मुख्या २४ * * * * * जैन बौद्ध तत्वज्ञान। [२६१ श्लोक नं० २१० पद्धोद्धमेन ९ (२१) सारसमुच्चय कुलभद्रकृत २९ अनवरत ९ श्लोक नं० १९६ संगान् ४ " ५ निश्चयमिह ९ , १९७ मनोवाकाय ४ २०० अवग्रहो (२०) समयसारकलश २०२ यर्ममत्वं अमृतचन्द्र कृत ३१२ शीलवत . लोक नं० ६/६ भात्र येह १ ३१३ गगादि " २४/३ य एव मुक्ता २ ३१४ भात्मानं , २२/७ समदृष्टया ३ ३२७ सत्येन ,, २७/७ प्राणोच्छेदक ३ ७७ इंद्रेयप्रभवं ८ , २६/३ एकस्य बद्धो ९ १५१ शकुचाय , २४/३ य एव १४ रागद्वेष भयं ८ २९/१० व्यवहार २६ कामक्रोषस्तथा८ ४२/१० मन्येभ्यो ७६ वरं हालाहलं १. , ४३/१० उन्मुक्त ९२ अग्निना १० ३६/१० ज्ञानस्य ९६ दुःखानामा- १० , ६/६ भावयेद् १४ | १०३ चित्तसंदूषकः १० , ८/६ मेदज्ञानो १४ / १०४ दोषाणामा- १० , ३०/१० रागद्वेष १७ १०७ कामी त्यजति१० , ३२/१० कृतकारित १७ १०८ तस्मात् कामः१० " २०/११ ये ज्ञान मात्र १७ १६१ यथा च १२ , १४/३ ज्ञानाब्दि १८ १६२ विशुद्ध १२ , ४०/३ एकस्य नित्यो २५ १७२ विशुद्धपरि० १२ , ४६/३ इन्द्र जाल २९ " १७३ संक्लिष्ट १२ , ६/७ भासंसार २५ , १७९ परो १२ .00000 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२] दूसरा भाग। श्लोकनं. १७९ मज्ञाना १२ (२२) तत्वानुशासन नागसेनकृत १९३ धर्मस्य १२ लोक नं. १३७ सोयं ३ २४ रागद्वेषभयो १४ १३९ माध्यस्थं ३ ३८ कषायरतम् १४ , १५ ये कर्मकृता ६ २३३ ममत्वा १५ १४ शश्वद६ २३४ निर्ममत्वं १५ १७० तदेषानु ६ २४७ यः संतोषा १५ १७१ यथा नई ६ २५४ परिग्रह १७२ तथा च परमे ६ २६९ कुसंसर्ग ९० शुन्यागारे ८ २६० मैत्र्यंगना १६ ९१ अन्यत्र वा ८ २६१ सर्वसत्वे १६ ९२ भूतले वा ८ २६५ मनस्या १६ ९३ नासाप ८ ९४ प्रत्याहृत्य ८ ३१४ भात्मानं ९५ निरस्तनिद्रो ८ २९० शत्रुभाष १३७ सोयं सम ८ २१६ संसार १९ १३८ किमत्र २१८ ज्ञान १३९ माध्यस्थं २१९ संसार ४ वंधो ८ ज्ञान ५ मोक्ष १९ गुरु ८ स्युमिथ्या ३५ कषाया २३ | २२ ततस्तं ६३ वर्मामृतं २३ २४ स्यात् २०१ निःसंगिनो २३ ५२ सदृष्टि " २१२ संसारा २४ , ५२मात्मनः ९ " १२३ गृहचार २५/, २३७ न मुह्यति १४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२६३ श्लोक नं०१४३ दिधासुः १८ रोकनं. ३०/२० भविसंकल्पि२. , १४८ नान्यो १८ , १२/२० यथायथा २० २२३ ग्नत्रय २९ , ११/२४ माशाः २१ २२४ ध्याना " ३४/२८ निःशेष २२ ४१ तत्रास , १७/२३ रागादि ४२ पापेत्य २४ , १७/१५ शीतांशु २३ ४३ सम्यग् २४ ,, १०३/३२ निहिवळ २३ ४४ मुक्त २४ , १८/२३ रु कोपि २३ ४५ महासत्यः २४ |, १९/१८ माशा २५ (२३) सामायिकपाठ अमितिगति (२६) पंचाध्यायी राजमलकृत श्लोक नं० ५ एकेन्द्रियाद्य. १२ , ६ विमुक्ति १२ ले कनं० ४९५ परत्रा " ३७६ सम्यक्तं ___" ७ विनिन्दना १२ ३७७ मत्यात्मनो (२४) तत्वभावना अमितगति ५४५ तद्यथा श्लोक नं. ९६ यावच्चेतसि १७ ४२६ प्रशमो , ६२ शूगेहं १७ , ४३१ संवेगः " ११ नाहं १७ ४४६ मनुकम्पा , ८८ मोहान्यानां १७, , ४५२ मास्तिक्यं ७ " ५४ वृत्यावृत्येन्द्रिय२० , ४९७ तत्रापं ७ (२५) ज्ञानार्णव शुभचंद्रकृत । (२७) आप्तस्वरूप श्लोक नं०४२/१५ विम् १३ , १४/७ बोध एव १४ लोक नं. २१ रागद्वेषा ९ " ५२/८ मभयं यच्छ १६ " ३९ केवलज्ञान ९ , ४३/१५ मतुलसुख १९ , ४१ सर्वदन्द्र ९ 66666666 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४] . दूसरा माग । (२८) वैराग्यमणिमाला श्लोक नं० ८ निम्बरो १३ श्रीचन्द्रकृत , ९मेषा १३ श्लोक १२ मा कुरु १. |, १३ संवेगादिपरः १३ , १९ नीलोत्पल १० , ६ भ्रातम १६ (३१) तत्त्वज्ञानतरंगिणी ज्ञानभू० (२९) ज्ञानसार पासिंहकृत श्लोक नं० ९/९ कीर्ति वा १७ गाथा नं० ३९ सुण्ण २४ । " ८/१६ संगत्यागो १९ (३.) रत्नमाला , ४/१७ खसुख न २० श्लोकनं. ६ सम्यक्त्वं १३ , १०/१७ बहून् वारान्२० , ७ निर्विकल्प १३ , ११/१४ व्रतानि २२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (યશોટ alc Philo 16011e1 जाह ब्र० सीतलप्रसादजीकृत तत्वज्ञानके ग्रन्थ। जैनबौद्ध तत्वज्ञान प्र०भाग 1) जैन बौद्ध तत्वज्ञान अंग्रेजी // ) सहजानंद सोपान निश्चय धर्मका मनन तत्वभावना पंचास्तिकाय टीका नियमसार टीका प्रवचनसार टीका इष्टोपदेश टीका आत्म धर्म आध्यात्मिक सोपान समयसार टीका समयसार कलश टीका 3) मोक्षमार्ग प्रकाश द्वि० भाग 2) ज्ञानसमुच्चय सार उपदेश शुद्धसार 2 // ) मैनेजर, दिगंबरजैनपुस्तकालय-मरत / Shree Suchamiaswami-Gvanbhandar Umara Surat www.umaragyanbhandar.com