________________
जैन बौद्ध तत्वज्ञान |
[ २०३ काम पूजाका रागी न होकर व्यवहार चारित्र अर्थात् शीलको भले प्रकार पालकर ध्यान समाधिको बढ़ाकर धर्मध्यानकी पूर्णता करके फिर शुक्लध्यानमें आकर शुद्ध ज्ञानदर्शन स्वभावका अनुभव करना चाहिये । इसीके अभ्यास से शीघ्र ही भाव मोक्षरूप अत् पदको प्राप्त होकर मुक्त होजायगा | फिर मुक्तिसे कभी च्युत नहीं होगा । यहां बौद्ध सूत्रमें जो ज्ञानदर्शनका साक्षात्कार करना कहा है इसीसे सिद्ध है कि वह कोई शुद्ध ज्ञानदर्शन गुण है जिसका गुणी निर्वाण: स्वरूप आत्मा है । यह ज्ञान रूप वेदना संज्ञा संस्कार जनित विज्ञानसे भिन्न है। पांच स्कंधोंसे पर हैं। सर्वथा क्षणिकवादमें अच्युत मुक्ति सिद्ध नहीं होती है । पाली बौद्ध साहित्य में अनुभवगम्ब शुद्धात्माका अस्तित्व निर्वाणको भजात व अमर मानने से प्रगटरूपसे - सिद्ध होता है, सूक्ष्म विचार करने की जरूरत है।
जैन सिद्धांत के कुछ वाक्य
-
श्री नागसेनजी तत्वानुशासनमें कहते हैंरत्नत्रयमुपादाय त्यक्त्वा बंधनिबंधनं । ध्यानमभ्यस्यतां नित्यं यदि योगिन्मुमुक्षसे ॥ २२३ ॥ ध्यानाभ्यासवर्षेण तुद्यन्मोहस्य योगिनः ।
"
चरमांगस्य मुक्तिः स्यात्तदा अन्यस्य च क्रमात् ॥ २२४ ॥ भावाथ - हे योगी ! यदि तू निर्माणको चाहता है तो तु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक् चारित्र इस रत्नत्रय धर्मको धारण कर तथा राग द्वेष मोहादि सर्व बंधके कारण भावोंको त्याग कर और भलेप्रकार सदा ध्यान समाधिका अभ्यास कर | जब ध्यानका उत्कृष्ट साधन होजायगा तब उसी शरीरसे निर्माण पानेवाले योगीका
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com