SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५४) दूसरा भाग। 'मैथुन कर्म या स्पर्श कर्म किया जाय सो अब्रह्म या कुशील है। यहां भी भाव व द्रव्य प्राणोंकी हिंसा हुमा करती है । या मुछा नामेयं विज्ञातव्यः परिग्रहो ह्येषः । मोहोदयादुदीर्णो मुर्छा तु ममत्वपरिणामः ।। १११॥ भावार्थ-धनादि परपदार्थोमें मुर्छा करना सो परिग्रह है इसमें मोहके तीव्र उदयसे ममताभाव पाया जाता है । ममता पैदा करनेके लिये निमित्त होनेसे धनादि परिग्रहका त्याग व्रतीको करना योग्य है। कषायोंके २५ भेद-वस्त्र सूत्रमें बताये जाचुके हैं ऊपर लिखित मिथ्यात्व, मविरति, कषायके वे सब दोष भागये हैं जिनका मन, वचन, कायसे सन्तोष या त्याग करना चाहिये । इसी तरह सूत्रमें प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ ध्यानके पीछे चार ध्यान और कहे हैं-(१) आकासानन्त्यायतन अर्थात् अनंत भाकाश है, इस भावमें रमजाना, (२) विज्ञानानन्त्यायतन अर्थात् विज्ञान अनन्त है इसमें रम जाना। यहां विज्ञानसे अभिप्राय ज्ञान शक्तिका लेना अधिक रुचता है । ज्ञान अनन्त शक्तिको रखता है, ऐसा ध्यान करना । यदि यहां विज्ञानका भाव रूप, वेदना, संज्ञा व संस्कारसे उत्पन्न विज्ञानको लिया जावे तो वह समझमें नहीं आता क्योकि यह इन्द्रियजन्य रूपादिसे होनेवाला ज्ञान नाशवंत है, शांत है, अनन्त नहीं होसक्ता, अनन्त तो वही होगा जो स्वाभाविक ज्ञान है। तीसरे आकिंचन्य भायतनको कहा है, इसका भी अभिप्राय यही झलकता है कि इस जगतमें कोई भाव मेरा नहीं, है मैं तो एक केवल स्वानुभवगम्य पदार्थ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034856
Book TitleJain Bauddh Tattvagyan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1940
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy