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________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [१ चैसी वैसी अवस्था में रहते उस भयभैरवको हटाऊँ। जब ब्राह्मण ! टहलते हुए मेरे पास भयभैरव आता तब मैं न खड़ा होता, न बैठता, न लेटता। टहलते हुए ही उस भयभैरवको हटाता । इसी तरह खडे होते, बैठे हुए व लेटे हुए जब कोई भय भैरव माता मैं वैसा ही रहता, निर्भय रहता। ब्राह्मण ! मैंने अपना वीर्य या उद्योग भारंम किया था। मेरी मूढ़ता रहित स्मृति जागृत थी, मेरी काय प्रसन्न व आकुलता रहित थी, मेरा चित्त समाधि सहित एकाग्र था। (१) सो मैं कामोंसे रहित, बुरी बातोंसे रहित विवेकसे उत्पन्न सवितर्क और सविचार प्रीति और सुखवाले प्रथम ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा। (२) फिर वितर्क और विचारके शांत होनेपर भीतरी शांत व चित्तको एकाग्रता वाले वितर्क रहित विचार रहित प्रीति-मुख वाले द्वितीय घ्यानको प्राप्त हो बिहरने लगा। (३) फिर प्रीतिसे विरक्त हो उपेक्षक वन स्मृति और अनुभवसे युक्त हो शरीरसे सुख अनुभव करते जिसे आर्य उपेक्षक, स्मृतिमान् सुख विहारी कहते हैं उस तृतीय ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा । (४) फिर सुख दुखके परित्यागसे चित्तोल्लास व चित्त संतापके पहले ही अस्त होमानेसे, सुख दुःख रहित जिसमें उपेक्षासे स्पतिकी शुद्धि होजाती है, इस चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरने लगा। _____ सो इसप्रकार चित्तके एकाग्र, परिशुद्ध, अंगण ( मल) रहित, मृदुमूत, स्थिर, और समाधियुक्त हो जानेपर पूर्व जन्मोंकी स्मृतिके लिये मैंने चित्तको झुकाया । इसप्रकार आकार और उद्देश्य सहित भनेक प्रकारके पूर्व निवासोंको स्मरण करने लगा। इसप्रकार प्रमाद Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034856
Book TitleJain Bauddh Tattvagyan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1940
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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