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________________ १९८] दूसरा भाग। ध्यावृत्त्येन्द्रियगोचरोरुहने लोलं चरिष्णु चिरं । दुरि हृदयोदरे स्थिरतरं कृत्वा मनोमटम् ॥ ध्यानं ध्यायति मुक्तये भवततेर्निर्मुक्तभोगस्पृहो । नोपायेन विना कृता हि विधयः सिद्धिं लभन्ते ध्रुवम् ॥१४॥ भावार्थ-जो कोई कठिनतासे वश करनेयोग्य इस मनरूपी बंदरको, जो इन्द्रियोंके भयानक वामें लोभी होकर चिरकालसे चर रहा था, हृदयमें स्थिर करके बांध देते हैं और भोगोंकी वांछा छोड़कर परिश्रम के साथ निर्वाणके लिये ध्यान करते हैं, वे ही निर्वाणको पासक्ते हैं । विना उपायके निश्चयसे सिद्धि नहीं होती। श्री शुभचंद्र ज्ञानार्णवमें कहते हैंअपि संकल्पिताः कामाः संभवन्ति यथा यथा । तथा तथा मनुष्याणां तृष्णा विश्व विसति ॥३०-२०॥ भावार्थ-मानवोंको जैसे जैसे इच्छानुसार भोगोंकी प्राप्ति होती जाती है वैसे २ उनकी तृष्णा बढ़ती हुई सर्व लोक पर्यंत फैल जाती है। यथा यथा सृषी काणि खवशं यान्ति देहिनाम् ।। तथा तथा स्फुरत्युह दि विज्ञानभास्करः ।। ११-६० ॥ भावार्थ-जैसे जैसे प्राणियोंके वशमें इन्द्रियां माती जाती हैं वैसे वैसे आत्मज्ञानरूपी सूर्य हृदयमें ऊँचा ऊँचा प्रकाश करता जाता है। श्री ज्ञानभूषणनी तत्वज्ञानतरंगिणीमें कहते हैं--- खसुख न सुख नृगां किंत्यभिलाषाग्निवेदनाप्रतीकारः । सुखमेव स्थितिरात्मनि निराकुलत्वाद्विशुद्धपरिणामात् ॥४-१७॥ महून धारान् मया मुक्त सविकल्पं सुखं ततः । तन्नापूर्व निर्विकल्पे सुखेऽस्तीहा ततो मम ॥ १०-१७॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034856
Book TitleJain Bauddh Tattvagyan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1940
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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