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जैन-बौद्ध तत्वज्ञान ।
।२७ . होती है, वह इन भयोंको नहीं छोड सक्ता है। सम्यग्दृष्टी तत्वज्ञानी है, आत्माके निर्वाण स्वरूपका प्रेमी है, संसारकी अनित्य अवस्थाओंको अपने ही बांधे हुए कर्मका फल जानकर उनके होनेपर आश्चर्य या भय नहीं मानता है । अब यशशक्ति रोगादिये बचने का उपाय रखता है, परन्तु इयरभाव चित्तमे निकाल देता है। वीर सिपाहीके समान संसारमें रहता है, आत्मसंयमी होकर निर्भय रहता है ।
श्री अमृतचंद्र आचार्य ने समयसार कलशमें सात भयोंके दूर रहने की बात सम्यग्दृष्टीके लिये कही है। उसका कुछ दिग्दर्शन यह है
सम्यग्दृष्टय एव साहस मिदं कर्तुं क्षमन्ते परं । यद्वब्रेऽपि पतत्यमी भयचलत्रैलोक्यमुक्तावनि ॥ सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शङ्कां विहाय स्वयं । जानतः स्वमवध्यबोधवपुष बोधाच्च्यवन्ते न हि ॥ २२-७ ॥
भावार्थ-सम्यग्दृष्टी जीव ही ऐसा साहस करनेको समर्थ हैं कि जहां व जब ऐसा अवसर हो कि वज्रके समान आपत्ति भारही हों जिनको देखकर व जिनके भयसे तीन लोकके प्राणी भयसे भागकर मार्गको छोड दें तब भी वे अपनी पूर्ण स्वाभाविक निर्भयताके साथ रहते हैं । स्वयं शंका रहित होते हैं और अपने भापको ज्ञान शरीरी जानते हैं कि मेरे भात्माका कोई वध कर नहीं सका। ऐसा जानकर वे अपने ज्ञान स्वभावसे किंचित् भी पतन नहीं करते हैं।
प्राणोच्छेदमुदाहरन्ति मरणं प्राणा: किकास्यात्मनो । ज्ञानं तत्स्वयमेव शाश्वततया नोच्छिचते जातचित् ॥ तस्यातो मरणं न किचन भवेत्तदीः कुतो ज्ञानिनो। निशाः सततं स्वयं स सहजं वानं सदा विन्दति ॥ २७-७॥
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