SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 141
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११८] दूसरा भाग। करनी चाहिये। यदि अपने भीतर दोष दीखें तो उनको दुर करनेका पुरा उद्योग करना चाहिये। यदि दोष न दीखें तो प्रसन्न होकर भागामी दोष न पैदा हों इस बातका प्रयत्न रखना चाहिये । यह प्रयत्न सत्संगति और शास्त्रोंका अभ्यास है। भिक्षुको बहुत करके गुरुके साथ या दूसरे साधुके साथ रहना चाहिये । यदि कोई दोष अपनेमें हो और अपनेको वह दोष न दिखलाई पड़ता हो भौर दुसरा दोषको बता दे तो उसपर बहुत संतोष मानना चाहिये । उसको धन्यवाद देना चाहिये । कभी भी दोष दिहलानेवाले पर क्रोध या द्वेषभाव नहीं करना चाहिये । जैसे किसीको अपने मुखपर मैलका धब्बा न दीखे मोर दुसरा मित्र बता दें तो वह मित्र उसपर नाराज न होकर तुर्त अपने मुखके मैलको दूर कर देता है । इसीतरह जो सरल भावसे मोक्षमार्गका साधन करते हैं वे दोषों के बतानेवाले पर संतुष्ट होकर अपने दोषोंको दूर करनेका उद्योग करते हैं। यदि कोई साधु अपने में बड़ा दोष पाते हैं तो अपने गुरुसे एकांतमें निवेदन करते हैं और जो कुछ दंड वे देते हैं उसको बड़े आनन्दसे स्वीकार करते हैं। जैन सिद्धांतमें पचीस कषाय बताए हैं, जिनके नाम पहले कहे जा चुके हैं। इन क्रोध, मान, माया लोभादिके वशीभूत हो मानसिक, वाचिक, व कायिक दोषोंका होजाना सम्भव है । इस लिये साधु नित्य सबेरे व संध्याको प्रतिक्रमण ( पश्चाताप ) करते हैं व भागामी दोष न हो इसके लिये प्रत्याख्यान (त्याग)की भावना भाते हैं। साधुके भावोंकी शुद्धताको ही साधुपद समझना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034856
Book TitleJain Bauddh Tattvagyan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1940
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy