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________________ मैन बौद तत्वज्ञान। [११७ बरह क्या मैं ऊपर लिखित दोषोंके वशीभूत है। यदि वह देखे कि वह पापके वशीभूत है या क्रोधके वशीभूत है या अन्य दोषके वशीभूत है तो उस भिक्षुको उन बुरे अकुशल धर्मोके परित्यागके लिये उद्योग करना चाहिये । यदि वह देखे कि उसमें ये दोष नहीं हैं तो उस भिक्षुको प्रामोघ (खुशी ) के साथ रातदिन कुशल धर्मोको सीखते विहार करना चाहिये ।। जैसे दहर (मल्पायु युवक) युवा शौकीन स्त्री या पुरुष परिशुद्ध उज्वल पादर्श (दर्पण) या स्वच्छ जलपात्र में अपने मुखके प्रतिविम्बको देखते हुए, यदि वहां रज (मैल) या अंगण (दोष)को देखता है तो उस रज या अंगणके दूर करनेकी कोशिश करता है। यदि वहां रज या अंगण नहीं देखता है तो उसीसे संतुष्ट होता है कि महो मेरा मुख परिशुद्ध है। इसी तरह भिक्षु अपनेको देखे । मदि भकुशल धर्मोको अनहीण देखे तो उसे उन अकुशल धोके नाशके लिये प्रयत्न करना चाहिये। यदि इन अकुशल पोको पहीण देखे तो उसे प्रीति व प्रामोषके साथ रातदिन कुशल धोको सीखते हुए विहार करना चाहिये । नोट- इस सूत्रमें मिक्षुओंको यह शिक्षा दी गई है कि वे अपने भावोंको दोषोंसे मुक्त करें। उन्हें शुद्ध भावसे अपने भावोंकी शुद्धतापर स्वयं ही ध्यान देना चाहिये । जैसे अपने मुखको सदा स्वच्छ रखनेकी इच्छा करनेवाला मानव दर्पणमें मुखको देखता रहता है, यदि जरा भी मैल पाता है तो तुरत मुखको कमालसे पोछकर साफ कर लेता है। यदि मधिक मैक देखता है तो पानीसे धोकर साफ करता है। इसीतरह साधुको अपने भाप अपने दोषोंकी जांच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034856
Book TitleJain Bauddh Tattvagyan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1940
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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