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________________ ११६ ] दूसरा माग । दोष दिखलानेपर दोष दिखलानेवालेकी तरफ हिंसक भाव करना, (७) दोष दिखलानेवालेपर क्रोध करना, (८) दोष दिखलानेवालेपर उल्टा आरोप कहना, (९) दोष दिखलानेवाले के साथ दूसरी दूसरी बात करना, बातको प्रकरणसे बाहर के जाता है, क्रोध, द्वेष, अप्रत्यय ( नाराजगी) उत्पन्न कराता है । (१०) दोष दिखलानेवालेका साथ छोड़ देना, (११) अमरखी होना, (१२) निष्ठुर होना, (१३) इर्षालु व मत्सरी होना, (१४) शठ व मायावी होना, (१५) जड़ और अतिमानी होना, (१६) तुरन्त लाभ चाहनेवाला, हठी व न त्यागनेवाला होना । इसके विरुद्ध जो भिक्षु सुवचनी है वह सुवचन पैदा करनेवाले धर्मों से युक्त होता है, जो ऊपर लिखे १६ से विरक्त हैं । वह मनुशासन ग्रहण करने में समर्थ होता है, उत्साहसे ग्रहण करनेवाला होता है। सब्रह्मचारी उसे शिक्षाका पात्र मानते हैं, अनुशासनीय मानते हैं, उसमें विश्वास उत्पन्न करना उचित समझते हैं । भिक्षुको उचित है कि वह अपने हीमे अपनेको इस प्रकार समझावे । जो व्यक्ति पापेच्छ है, पापपूर्ण इच्छाओंके वशीभूत है, वह पुद्गक (व्यक्ति) मुझे मप्रिय लगता है, तब यदि मैं भी पापेच्छ या पापपूर्ण इच्छाओंके वशीभूत हूंगा तो मैं भी दूसरोंको अप्रिय हूंगा । ऐसा जानकर भिक्षुको मन ऐसा दृढ़ करना चाहिये कि मैं पापेच्छ नहीं हूंगा । इसी तरह ऊपर लिखे हुए १६ दोषोंके सम्बधर्मे विचार कर अपनेको इनसे रहित करना चाहिये । भावार्थ - यह है कि भिक्षुको अपने आप इस प्रकार परीक्षण करना चाहिये। क्या मैं पापके वशीभूत हूं, क्या मैं क्रोधी हूं। इसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034856
Book TitleJain Bauddh Tattvagyan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1940
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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