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इसस भाग। तब सारिपुत्रने महाकाश्यपसे यही प्रश्न पूछा।
(४) महाकाश्यप कहते हैं-भिक्षु स्वयं मारण्यक (वनमें रहने. वाला) हो, और मारण्यताका प्रशंसक हो, स्वयं पिंडपातिक (मधुकरी वृत्तिवाल!) हो और पिंडपातिकताका प्रशंसक हो, स्वयं पांसुकूलिक (फेंके चिथड़ोंको पहननेवाला ) हो, स्वयं त्रैचीवरिक (सिर्फ तीन वस्त्रोंको पासमें रखनेवाला) हो, स्वयं मल्पेच्छ हो, स्वयं संतुष्ट हो, प्रविविक्त (एकान्त चिंतनरत) हो, संसर्ग रहित हो, उद्योगी हो, सदाचारी हो, समाधियुक्त हो, प्रज्ञायुक्त हो, वियुक्ति युक्त हो, वियुक्तिके ज्ञान दर्शनसे युक्त हो व ऐसा ही उपदेश देने.. वाला हो, ऐसे भिक्षुमे यह वन शोभित होगा।
तब सारिपुत्रने महामौद्गलायनसे यही प्रश्न किया ।
(५) महामौद्गलायन कहते हैं-दो भिक्षु धर्म सम्बन्धी कथा हें । बह एक दुसरेसे प्रश्न पूछे, एक दुसरेको प्रश्नका उत्तर दें, जिद न करें, उनकी कथा धर्म सम्बंधी चले । इस प्रकार के भिक्षुसे यह वन शोभित होगा। . तब महामौद्गालपाने सारिपुत्रसे यही प्रश्न किया।
(६) सारिपुत्र कहते हैं-एक भिक्षु चित्तको वशमें करता है, स्वयं चित्त के वशमें नहीं होता। वह जिप विहार (ध्यान प्रकार) को प्राप्त कर पूर्वाह्न समय विहरना चाहता है। उसी विहारसे पूर्वाह्न समय विहाता है । जिस विहारको प्राप्तकर मध्य ह समय विहाना चाहता है उसी विहारसे विहरता है, जैसे किसी रानाके पास नाना रजके दुशालोंके करण्ड (पिटारे) भरे हों, वह जिस दुशालेको
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