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________________ १७४ ]. दूसरा भाग। वे मरकर प्रायः स्वर्गमे जाते हैं। कोई देव गतिमें जाकर कई जन्मोंमें, कोई एक जन्म मनुष्यका लेकर, कोई उसी शरीरसे निर्वाण पालेते हैं। जैसे यहां राग द्वेष मोह को तीन संयोजन या मल बताया है वैसे ही जैन सिद्धांतमें बताया है। इनका त्यागना ही मोक्षमार्ग है व यही मोक्ष है। जैनसिद्धांतके कुछ वाक्यश्री अमितिगत आचार्य तत्वभावनामें कहते हैंयावच्चेतसि बाह्य वस्तुविषय: स्नेहः स्थिरो वर्तते । तावनश्यति दुःखदानकुशलः कर्मप्रपंचः कथम् ।। माईत्वे वसुधातळस्य सजटा: शुष्यति किं पादपाः। भृजत्तापनिपातरोधनपरा: शवोपशाखिन्विताः ॥ ९६ ॥ भावार्थ- जबतक तेरे मनमें बाहरी पदार्थोसे राग भाव स्थिर होरहा है तबतक किस तरह दुःखकारी कर्मोका तेग प्रपंच नाश होसक्ता है । जब पृथ्वी पानीसे भीजी हुई है तब उसके ऊपर सूर्य तापको रोकने वाले अनेक शाखाओंमे मंडित जटाधारी वृक्ष कैसे सूख सक्ते हैं ! शूरोऽहं शुभधीरहं पटुहं सर्वाधिकश्रीरहे । मान्योहं गुणवानहं विभुरहं पुंसामहं चाप्रणीः॥ इत्यात्मन्नपहाय दुष्कृतकरी त्वं सर्वथा कल्पनाम् । शश्वद्ध्याय तदात्मतत्वममलं नश्रेयसी श्रीर्यतः ॥ ६२ ॥ भावार्थ-मैं शूर हूं, मैं बुद्धिशाली हूं, मैं चतुर हूं, मैं धनमें श्रेष्ठ हूं, मैं मान्य हू, मैं गुणवान हूं, मैं बलवान हूं, मैं महान पुरुष हूं। इन पापकारी कल्पनाओंको हे आत्मन् ! छोड़ और निरंतर अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034856
Book TitleJain Bauddh Tattvagyan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1940
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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