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________________ १६४ J दूसरा भाग । निर्वाण के लिये धर्मोपदेश करते सुनता है । उसको ऐसा होता है'मैं उच्छिन्न होऊंगा, और में नष्ट होऊंगा। हाय ! मैं नहीं रहूंगा ! वह शोक करता है, दुःखित होता है, मूर्छित होता है। इस प्रकार अशनि परित्रास होता है। क्या है अशनि अपरित्रास, जिस किसी भिक्षुको ऊपरकी ऐसी दृष्टि नहीं होती है वह मूर्छित नहीं होता है। भिक्षुभो ! उस परिग्रहको परिग्रहण करना चाहिये जो परिग्रह कि नित्य, ध्रुव, शाश्वत् निर्विकार अनन्तवीर्य वैसा ही रहे । भिक्षुओ ! क्या ऐसे परिग्रहको देखते हो ! नहीं । मैं भी ऐसे परिग्रहको नहीं देखता जो अनन्त वर्षोंतक वैसा ही रहे। मैं उस आत्मवादको स्वीकार नहीं करता जिसके स्वीकार करनेसे शोक, दुःख व डोर्मनस्य उत्पन्न हो । न मैं उस दृष्टि निश्चय (धारणा के विषय) का आश्रय लेता हूं जिससे शोक व दुःख उत्पन्न हो । भिक्षुओ ! आत्मा और आत्मीयके ही सत्यतः उपलब्व होनेपर जो यह दृष्टि स्थान सोई लोक है सोई आत्मा है इत्यादि । क्या यह केवल पूरा बालधर्म नहीं है । वास्तवमें यह केवल पूरा बालधर्म है तो क्या मानते हो भिक्षुओ ! रूप नित्य है या अनित्य - अनित्य है । जो आपत्ति है वह दुःखरूप है या सुखरूप है - दुःखरूप है । जो अमिय, दुःख स्वरूप और परिवर्तनशील, विकारी है क्या उसके किये यह देखना - यह मेरा है, यह मैं हूं, यह मरा आत्मा है, योग्य है ? नहीं। उसी तरह वेदना, संज्ञा, संस्कार, विज्ञानको 1 6 यह मेरा आत्मा नहीं' ऐसा देखना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat #4 www.umaragyanbhandar.com
SR No.034856
Book TitleJain Bauddh Tattvagyan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1940
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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