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________________ ११४] दूसरा भाग। भावार्थ-जिनकी इन्द्रियोंके विषयोंमें प्रीति है उनको स्वाभाविक दुःख जानो । जो पीड़ा या भाकुलता न हो तो विषयों के भोगका व्यापार नहीं दोसक्ता । ते पुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहि विसयसौख्याणि । इच्छंति अणुइवंति य आमरण दुक्खसंतत्ता ॥ ७९ ॥ भावार्थ-संसारी प्राणी तृष्णाके वशीभूत होकर तृष्णाकी दाहसे दुःखी हो इन्द्रियों के विषयसुखोंकी इच्छा करते रहते हैं और दुखोंसे संतापित होते हुए मरण पर्यंत भोगते रहते हैं ( परन्तु तृप्ति नहीं पाते )। स्वामी मोक्षपाहुड़में कहते हैंताम ण णजह अप्पा विसएसु णरो पवट्टर जाम । विसए वित्तचित्तो जोई जाणे माणं ॥ ६६ ॥ जे पुण (वसयवित्ता पप्या णाऊण भावणासहिया। ठंडंति चाउरंग तवगुणजुत्ता ण संदेहो ॥ ६८ ॥ भावार्थ-जबतक यह नर इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति करता है तबतक यह आत्माको नहीं जानता है। जो योगी विषयोंसे विरक्त है वही आत्माको यथार्थ जानता है। जो कोई विषयोंसे विरक्त होकर उत्तम भावना के साथ आत्माको जानते हैं तथा साधुके तप व मूलगुण पालते हैं वे अवश्य चार गति रूप संसारमें छूट जाते हैं इसमें संदेह नहीं। श्री शिवकोटि आचार्य भगवतीआराधनामें कहते हैंअप्पायत्ता अजह पर दी मोगरमणं परायत्त । भोगरदीए चइदो होदि ण अप्परमणेग ॥ १२७० ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034856
Book TitleJain Bauddh Tattvagyan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1940
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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