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________________ १८] । प्रदुसरा भाग। . जो उस तृष्णाका सम्पूर्णतया विराग, निरोध, त्याग, प्रतिनिःसर्ग, मुक्ति, अनालय (लीन न होना) वह दुःख निरोध है। ऊपर लिखित आर्य अष्टांगिक मार्ग दुःख निरोधगामिनि प्रतिपद है। ___जव मार्य श्रावक जरा मरणको, इसके कारणको, इसके निरोधको व निरोधके उपायको जानता है तब यह सम्यग्दृष्टि होता है। प्राणियों के शरीरमें जीर्णता, वांडित्य (दांत टूटना), पालित्य (बालकपना), बलिवक्ता (झुरीं पडना), आयुक्षय, इन्द्रिय परिपाक यह जरा कही जाती है। प्राणियोंका शरीरोंसे च्युति, भेद, भन्तर्धान, मृत्यु, मरण, स्कंधोंका विलग होना, कलेवरका निक्षेप, यह मरण कहा जाता है। जाति समुदय (जन्मका होना) जरा मरण समुदय है। जाति निरोध, जरा मरण निरोध है । वही अष्टांगिक मार्ग निरोधका उपाय है। जब आर्य श्रावक तृष्णाको, तृष्णाके समुदयको, उसके निरोधको तथा निरोष गामिनी प्रतिपदको जानता है तब यह सम्यग्दृष्टि होता है । तृष्णाके छः आकार हैं-(१) रूप तृष्णा, (२) शब्द तृष्णा, (३) गन्ध तृष्णा, (४) रस तृष्णा, (५) स्पर्श तृष्णा, (६) धम ( मनके विषयोंकी ) तृष्णा । वेदना (अनुभव) समुदय ही तृष्णा समुदय है (तृष्णाका कारण) है । वेदना निरोध ही तृष्णा निरोध है। वही अष्टांगिक मार्ग निरोध प्रतिपद है। जब मार्य श्रावक वेदनाको, बेदना समुदयको, उसके निरोपको, तथा निरोपगामिनी प्रतिपदूको जानता है तब वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034856
Book TitleJain Bauddh Tattvagyan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1940
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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