________________
दूसरा भाग। सत्यका स्वरूपयदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदनृतमपि विज्ञेयं तद्मेदाः सन्ति चत्वारः ॥९१॥
भावार्थ-जो क्रोधादि कषाय सहित मन, वचन व कायके द्वारा प्रशस्त या कष्टदायक वचन कहना सो झूठ है । उसके चार भेद हैं
स्वक्षेत्रकाळभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिद्यते वस्तु । नत्प्रथममसत्यं स्यानास्ति यथा देवदत्तोऽत्र ॥ ९२ ।।
भावार्थ-जो वस्तु अपने क्षेत्र, काल, या भावसे है तो भी उसको कहा जाय कि नहीं है सो. पहला असत्य है । जैसे देवदत्त होनेपर भी कहना कि देवदत्त नहीं है।
असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः । उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन्यथासित घटः ॥ ९३ ॥
भावार्थ-पर क्षेत्र, काल, भावस वस्तु नहीं है तो भी कहना कि है, यह दूसरा झूठ है । जसे घड़ा न होनेपर भी कहना यहां घड़ा है।
वस्तु सदपि स्वरूपात्पारूपेणाभिधीयते यस्मिन् । अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गोरिति यथाश्वः ॥९४ ॥
भावार्थ-वस्तु जिस स्वरूपसे हो वैसा न कहकर पर स्वरूपसे कहना यह तीसरा झूठ है । जैसे घोड़ा होनेपर कहना कि गाय है।
गर्हितमवद्यसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन धामतमिदमनृतं तुरीयं तु ॥ ९५ ॥
भावार्थ-चौथा झूठ सामान्य से तीन तरहका बचन है जो बचन गर्हित हो सावध हो व अप्रिय हो ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com