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________________ १४ दफे मात्रा सहित मल्पभोजन करके काल बिताना चाहिये । स्वास्थ्यके लिये व प्रमाद त्यागके लिये व शांतिपूर्ण जीवन के लिये यह बात मावश्यक है। जैन सिद्धांतमें भी साधुको एकासन करनेका उपदेश है। साधुके २८ मूल गुणोंमें यह एकासन या एकभुक्त मूलगुण है-अवश्य कर्तव्य है। (२) भिक्षुओंको गुरुकी आज्ञानुसार बड़े प्रेमसे चलना चाहिये। जैसा इस सूत्रमें कहा है कि मैं भिक्षुओंको केवल उनका कर्तव्य स्मरण करा देता था, वे सहर्ष उनपर चलते थे। इसपर दृष्टांत योग्य घोड़े संजुते रथका दिया है। हांकनेवाले के संकेत मात्रसे जिधर वह चाहे घोडे चलते हैं, हांकनेवालेको प्रसन्नता होती है, घोडों को भी कोई कष्ट नहीं होता है। इसी तरह गुरु व शिष्यका व्यवहार होना चाहिये। . (३) भिक्षुओंको सदा इस बात सावधान रहना चाहिये कि वह अपने भीतरसे बुराइयों को हटावें, रागद्वेष मोहादि भावों को दुर करे तथा निर्वाण साधक हितकारी धर्मोको ग्रहण करें। इसपर दृष्टांत साळके वनका दिया है कि चतुर माली रसको मुखानेवाली डालियोंको दूर करता है और रसदार शाखाओंकी रक्षा करता है तब वह बनरूप फलता है। इसीतरह भिक्षुको प्रमादरहित होकर भपनी उन्नति करनी चाहिये। (४) क्रोधादि कपायोंको भीतरसे दूर करना चाहिये। तवा निर्बल पर क्रोध न करना चाहिये, क्षमाभाव रखना चाहिये। निमित पड़ने पर भी क्रोध नहीं करना चाहिये। यहां वैदेहिका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034856
Book TitleJain Bauddh Tattvagyan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1940
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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