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________________ ३०] दूसरा भाग। भावार्थ-जो कोई समरसी भाव है उसीको एकीकरण या ऐक्यभाव कहा है, यही समाधि है इससे इस लोकमें भी दिव्य. शक्तियां प्रगट होती हैं और परलोकमें भी उच्च अवस्था होती है । माध्यस्थभाव, समता, उपेक्षा, वैराग्य, साम्य, निस्पृहभाव, तृष्णा रहितपना, परमभाव, शांति इन सबका एक ही अर्थ है । जैन सिद्धांतमें ध्यान सम्बंधी बहुत वर्णन है, ध्यानहीसे निर्वाणकी सिद्धि बताई है । द्रव्यसग्रहमें कहा है दुवि पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा । तह्मा पयत्तचित्ताजूयं ज्झाणे समन्भसह ॥ ४७ ॥ भावार्थ-निश्चय मोक्षमार्ग आत्मसमाधि व व्यवहार मोक्षमार्ग भहिंसादी व्रत ये दोनों ही मोक्षमार्ग साधुको आत्मध्यानमें मिल जाते हैं इसलिये प्रयत्नचित्त होकर तुम सब ध्यानका भलेप्रकार अभ्यास करो। (४) मज्झिमनिकाय-अनङ्गण सूत्र । आयुषमान् सारिपुत्र भिक्षुओंको कहते हैं-लोकमे चार प्रकारके पुद्गल या व्यक्ति हैं। (१) एक व्यक्ति अंगण (चित्तमल) सहित होता हुमा भी, मेरे भीतर अंगण है इसे ठीकसे वही जानता। (२) कोई व्यक्ति अंगण सहित होता हुआ मेरे मीतर अंगण हैं इसे ठीकसे जानता है । (३) कोई व्यक्ति अंगण रहित होता हुमा मेरे भीतर अंगण नहीं हैं इसे ठीकसे नहीं जानता है। (४) कोई व्यक्ति अंगण रहित होता हुमा मेरे भीतर अंगण नहीं हैं इसे ठीकसे जानता है। . . . . . . . . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034856
Book TitleJain Bauddh Tattvagyan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1940
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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