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________________ - गौरवज्ञान। [७१ (६) समाधि, (७) उपेक्षा गोषिगो सम्बन्ध मानता है। (बोधि (परमज्ञान) प्राप्त करने के सातों परम सहायक है इसलिये इनको बोधिअंग कहा जाता है) वह मिक्षु चार मार्य सत्य धर्मों में धर्म अनुभव करते विहरता है । (१) यह दुःख है, ठीक २ अनुभव करता है, (२) यह दुःखका समुदय या कारण है, (३) यह दुःख निरोध है, (१) यह दुःख निरोधकी मोर लेजानेवाला मार्ग है, ठीक ठीक अनुभव करता है। इसी तरह भिक्षु मीतरी धर्मोमें धर्मानुपश्यी होकर विहरता है। अलम (भलिप्त) हो विहरता है। लोकमें किसीको भी "मैं और मेरा" करके नहीं ग्रहण करता है । जो कोई इन चार स्मृति प्रस्थानोंको इस प्रकार सात वर्ष भावना करता है उसको दो फलोंमें एक फल अवश्य होना चाहिये। इसी नन्ममें आज्ञा (अईत्व) का साक्षात्कार वा उपाधि शेष होनेपर अनागामी मवि रहनेको सात वर्ष, जो कोई छः वर्ष, पांच वर्ष, चार वर्ष, तीन वर्ष, दो वर्ष, एक वर्ष, सात मास, छः मास, पांच मास, चार मास, तीन मास, दो मास, एक मास, मर्ष मास या एक सप्ताह भावना करे वह दो फलोंमेंसे एक फल अवश्य पावे । ये चार स्मृति प्रस्थान सत्वोंके शोक कष्टकी विशुद्धिके लिये दुःख-दौर्मनस्यके अतिक्रमणके लिये, सत्यकी प्राप्तिके लिये, निर्वाणकी प्राप्ति और साक्षात् करनेके लिये एकापन मार्ग है। नोट इस सूत्रमें पहले ही बताया है कि वे चार स्मृतिये निर्वाणकी प्राप्ति और साक्षात्कार करने के लिये मार्ग हैं। ये वाक्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034856
Book TitleJain Bauddh Tattvagyan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad Bramhachari
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year1940
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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