Book Title: Jain Bauddh Tattvagyan Part 02
Author(s): Shitalprasad Bramhachari
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 273
________________ . २५० ] दुसरा भाग ।.. तीन लोकके मुख्य होजाते हैं । भव्य जीव भाव सहित आत्मज्ञानमई निर्मल शीतल जलको पीकर रोग जरा मरणकी वेदनाकी दाहको शमनकर सिद्ध होजाते हैं । मूलाचार अनगार भावनामें कहा है अवगद माणत्थंभा अणु स्सदा मगव्त्रिदा अचंडा य । दंता मद्दवजुत्ता समयविदण्डू विणीदा य ॥ ६८ ॥ उवलद्धपुण्णपावा जिणसासणगहिद मुणिदपज्जाका । करचरणसंवुडंगा झाणुवजुत्ता मुणी होति ॥ ६९ ॥ भावार्थ- जो मुनि मानके स्तंभ से रहित हैं, जाति कुलादि मदसे रहित हैं, उद्धतता रहित हैं, शांत परिणमी हैं, इन्द्रियोंके विजयी हैं, कोमलभावसे युक्त हैं, आत्मस्वरूपके ज्ञाता हैं, विनयबान हैं, पुण्य पापका भेद जानते हैं, जिनशासनमें दृढ़ श्रद्धानी हैं, द्रव्य पर्यायोंके ज्ञाता हैं, तेरह प्रकार चारित्र से संवर युक्त हैं, दृढ़ धारी हैं वे ही साधु ध्यानके लिये उद्यमी रहते हैं । मूळाचार समयसारमें कहा है: सज्झायं कुत्तो पंचिदियसंपुढो तिगुत्तो य । हवदि य एयग्गमणो विणरण समाहिओ भिक्खू ॥ ७८ ॥ भावार्थ - शास्त्रको पढ़ते हुए पांचों इन्द्रियाँ वशमें रहती हैं, मन, वचन, काय रुक जाते हैं । भिक्षुका मन विनयसे युक्त होकर उस ज्ञानमें एकाग्र होता है । मोक्षपाहुड़ में कहा है जो इच्छइ णिस्सरिहुं संसारमहण्णवाट रुदाओ । कम्मिषणाण उहणं सो झाय अप्पयं सुद्धं ॥ २६ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288