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एततेतः पदमिदमिद यत्र चैतन्यचातुः
शुद्धः शुद्धः स्वरसभरत: स्थायिभावत्वमेति ॥६-७॥ भावार्थ-ये संसारी जीव अनादिकालसे प्रत्येक अवस्था रागी होते हुए सदा उन्मत्त होरहे हैं। जिस पदकी तरफसे सोए पड़े हैं हे अज्ञानी पुरुषों ! उस पदको जानो। इधर आमो, इधर माओ, यह वही निर्वाणस्वरूप पद है जहां चैतन्यमई वस्तु पूर्ण शुद्ध होकर सदा स्थिर रहती है । समयसारम कहा है
णाणी रागपत्रहो मन्बदब्बेसु कम्ममागदो। जो लिप्पदि कम्मरएण दु पदममज्झे जहा कणयं ॥२२९॥ अण्णाणी पुण रत्तो सव्वदम्वेसु कम्ममागदो। लिप्पदि कम्मरएण दु कद्दममज्झे जहा लोहं ॥ २३ ॥
भावार्थ-सम्यग्ज्ञानी कर्मोके मध्य पड़ा हुमा भी सर्व शरीरादि पर द्रव्योंसे राग न करता हुआ उसीताह कमरजसे नहीं लिपता है जैसे सुवर्ण कीचड़में पड़ा हुमा नहीं बिगड़ता है, परन्तु मिथ्याज्ञानी कोके मध्य पड़ा हुआ सर्व परद्रव्योंसे राग भाव करता है बिससे कर्मरनसे बंध जाता है, जैसे लोहा कीचड़ में पड़ा हुआ विगढ़ जाता है। भावपाहुडमें कहा है
पाऊण णाणसलिलं णिम्महतिसडाहसोसउम्मुक्का । हुति सिवाळयवासी तिहुषणचूडामणी सिद्धा ॥ ९३ ॥ णाणमयविमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण । पाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होति ।। १२५ ।।
भावार्थ-मात्मज्ञानरूपी जलको पीकर मति दुस्तर तृष्णाकी दाह व जवनको मिटाकर भव्य जीव निर्वाणके निवासी सिद्ध भगवान
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