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दूसरा भाग ।
केवळ भोगके समय शरीरका ताप दूर होता है परन्तु फिर बढ़ जाता है, ऐसा जानकर आत्मज्ञानी विषयोंके सुखसे विरक्त होगए ।
मायत्यां च तदात्वे च दुःखयोनिर्निरुत्तरा | तृष्णा नदी त्यत्तीर्ण विद्यानावा विविक्तया ॥९२॥ भावार्थ - यह तृष्णा नदी बड़ी दुस्तर है, वर्तमान में भी दुःखदाई है, आगामी भी दु:खदाई है। हे भगवान् ! आपने वैराग्यपूर्ण सम्यग्ज्ञानकी नौका द्वारा इसको पार कर दिया ।
समयसार कलश में कहा है :
एकस्य नित्यो न तथा परस्य चिति द्वयोर्शविति पक्षपातौ । यह त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥ ३८-३ ॥
भावाथ - विचार के समयमें यह विकल्प होता है कि द्रव्यदृष्टिसे पदार्थ नित्य है, पर्याय दृष्टिसे पदार्थ अनित्य है, परन्तु आत्मतत्व के अनुभव करने वाला है, इन सर्व विचारोंसे रहित होजाता है । उसके अनुभव चेतन स्वरूप वस्तु चेतन स्वरूप ही जैसीको तैसी झलकती है ।
इन्द्रजात्रमिदमेवमुच्छलत्पुष्कलोञ्चल विकल्पवीचिभिः ।
अस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ||४६-३॥ भावार्थ - जिसके अनुभव प्रकाश होते ही सर्व विकल्पोंकी तरंगों से उछलता हुआ यह संसारका इन्द्रजाल एकदम दूर होजाता हैं वही चैतनाज्योतिमय मैं हूं ।
मासंसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः सुता यस्मिनपदमपदं तद्विबुध्यध्वमन्धाः ।
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