Book Title: Jain Bauddh Tattvagyan Part 02
Author(s): Shitalprasad Bramhachari
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 270
________________ जैन बौद्ध तत्वज्ञान ! मूल संसारदुःखस्य देह एवात्मनस्ततः । त्यक्त्वेनां प्रविशेदन्तर्बहिरव्या पृतेन्द्रियः ॥ १५ ॥ भावार्थ- संसार के दुःखों का मूल कारण यह शरीर है । इस किये व्यात्मज्ञानीको उचित है कि इनका ममत्व त्यागकर व इन्द्रियोंसे उपयोगको हटाकर अपने भीतर प्रवेश करके आत्माको ध्यावे । आत्मानुशासनमें कहा है: --- [ २४७ उपप्रेम कठोर धर्म किरणस्फूर्जग मस्तिनः । संतप्तः सकलेन्द्रियैग्यमहो संवृद्धतृष्णो जनः ॥ अप्राप्यभिमतं विवेक विमुखः पापप्रयासाकुट - स्तोयोपान्त दुरन्तकर्द्दम गतक्षणोक्षयत् क्लिश्यते ॥ ५५ ॥ भावार्थ - भयानक गर्म ऋतुके सूर्यकी तप्तायमान किरणोंके समान इन्द्रियोंकी इच्छाओंसे आकुलित यह मानव होरहा है। इसकी तृष्णा दिनपर दिन बढ़ रही है। सो इच्छानुकूल पदार्थोंको न पाकर विवेकरहित हो अनेक पापरूप उपायोंको करता हुआ व्याकुळ डोरहा है व उसी तरह दुखी है जैसे जलके पासकी गहरी कीचड़में फँसा हुआ दुर्बल बूढा बैल कष्ट भोगे । स्वयंभू स्तोत्र में कहा है तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासामिष्टेन्द्रियार्थविभवः परिवृद्धिरेव । स्थित्यैव कायपरितापहरं निमित्त मित्यात्मवान्विषय सौख्यपराङ्मुखोऽभूत् ॥८२॥ मावार्थ - तृष्णाकी अग्नि जलती है । इष्ट इन्द्रियोंके भोगोंके द्वारा भी वह शान्त नहीं होती है, किन्तु बढ़ती ही जाती है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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