Book Title: Jain Bauddh Tattvagyan Part 02
Author(s): Shitalprasad Bramhachari
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 262
________________ . जैन बौद्ध तत्वज्ञान । २३, विचारों को बन्द कर देना चाहिये। मैं क्या था, क्या हँगा, क्या वह भी विस नहीं करना, न यह विाला करना कि मैं शन्य हूं। वास्ता मेरे गुरु है न विसी अम्मके कहे अनुपार विचारना । स्वयं प्रज्ञासे सर्व विषयोको हटाकर तथा सर्व बाहरी वनमाचरण क्रिशमौका भी विकल्प हटाकर भीतर ज्ञानदर्शनसे देखना तब तुर्त हो स्वात्मधर्म मिल जायगा। स्वानुभव होकर परमानंदका लाम होगा। बैन सिद्धान्तमें भी इसी स्व नुभव पर पहुंचाने का मार्ग सर्व विकल्पों त्यांग ही बताया है। सर्व प्रकार उपयोग हटकर जब स्वाहा जमता है तब ही स्वानुभव उत्पन्न होता है । गौतम बुद्ध कहते हैंअपने आपमें जाननेयोग्य इस धर्मके पास मैंने उपनीत किया हैं, पहुंचा दिया है। इन वचनोंसे स्वानुभव गोचर निर्वाण स्वरूप मनात, ममृत शुद्वात्माकी तरफ संत साफ साफ होरहा है। फिर कहते हैं-विज्ञद्वारा अपने आपमें जाननेयोग्य है। अपने भापमें वाक्य इसी गुप्त तत्वको बताते हैं, यही वास्तवमे परम सुख परमात्मा है या शुद्धात्मा है। (९) फिर तृष्णाकी उत्पत्ति के व्यवहार मार्गको बताया है। बच्चे के जन्ममें गंधर्वका गर्ममें माना बताया है। गंधर्वको चेतना प्रवाह कहा है, जो पूर्वजन्मसे आया है। इसीको जैन सिद्धान्तमें पाप पुण्य सहित जीव कहते हैं। इससे सिद्ध है कि बुद्ध धर्म जड़से चेतनकी उत्पत्ति नहीं मानता है । जब वह बालक बड़ा होता है पांच इन्द्रियों के विषयोंको ग्रहण करके इष्टमें राग मनिष्ट द्वेष करता है। इस तरह तृष्णा पैदा होती है उसीका उदान होते हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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