Book Title: Jain Bauddh Tattvagyan Part 02
Author(s): Shitalprasad Bramhachari
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 263
________________ J मेरा माने । श्रय बनता है, भव से जन्म जन्म के होते हुए नाना प्रकार के दुःख जरा मरण तक के होते हैं । संसारका मूल कारण अज्ञान और तृष्णा है। इसी बात को दिखाया है । यही बात जैन सिद्धांत कहता है । (१०) फिर संसार के दुखोंके नाश का उपाय इस तरह बताया है— (१) लोक स्वरूपको स्वयं समझकर साक्षात्कार करनेवाले शास्ता बुद्ध परम शुद्ध ब्रह्मचर्य का उपदेश करते हैं। यही यथार्थ धर्म । यहां ब्रह्मर्य मे मतलब ब्रह्म स्वरूप शुद्ध त्मा मे लीनताका है, केव बाहरी मैथुन त्यागका नहीं है । इस धर्मपर श्रद्धा लाना योग्य है । (२) शं वक्रे समान शुद्ध ब्रह्मये या समाधिध लाभ पर नहीं होसक्का, इससे धन कुटुम्बादि छोड़कर सिर दाढ़ी मुड़ा काषाय वस्त्र घर साधु होना चाहिये, (३) वह साधु महाव्रत पालता है, (४) अचौर्य व्रत पलता है, (५) ब्रह्मचर्य व्रत या मैथुन त्याग व्रत पाळता है, (६) सत्य व्रत पाळता है, (७) चुगली नहीं करता है, (८) कटुक वक्त नहीं कहता है, (९) बकवाद नहीं करता है, (१०) वनप्रति कायिक बीजादिका घात नहीं करता है, (११) एक दफे महार कात है. (१२) रात्रिको भोजन नहीं करता है, (१३) मध्य ह पीछे भोजन नहीं करता है, (१४) माला गंध लेव भूषण से विरक्त रहता है, (१५) उच्चासनपर नहीं बैठता है, (१६) सोना, चांदी, कच्चा अन्न, पशु, खेत, मकानादि नहीं रखता है, (१७) दूतका काम, कविक्रम तोकना नापना, छेदना-भेदना, मायाचारी आदि आरम्भ नहीं करता है, (१८) भोजन वस्त्र में संतुष्ट रहता है, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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