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दूसरा भाग ।
मुक्तलोक यापेक्षः बोट शेष: । अनुष्ठित पायगो ध्वन्यगे कृतयः ॥ ४४ ॥
महारुतः परितक्ताशुभभावनः । इतं दृग्क्षणो धाता धर्मध्यानस्य सम्मतः ॥ ४५ ॥ भावार्थ - धर्मभ्यः नका ध्याता साधु ऐसे लक्षणों का रखनेवाला होता है (१) निर्वाण जिसका निकट हो, (२) कुछ कारण पाके काम भोगोंसे विरक्त हो, किसी योग्य आचार्यके पास जाकर सर्व परिग्रहको त्यागकर निर्बंथ जिन दीक्षाको धारण की हो, (३) तप व संयम सहित हो, (४) प्रमाद भाव रहित हो, (५) मले प्रकार ' ध्यान करनेयोग्य जीवादि तत्वोंको निर्णय कर चुका हो, (६) आर्तरौद्र खोटे ध्यानके त्यागसे जिसका चित्त प्रसन्न हो, (७) इस लोक परलोककी वांछा रहित हो, (८) सर्व क्षुधादि परीषहोंको सहने वाला हो, (९) चारित्र व योगाभ्यासका कर्ता हो, (१०) ध्यानका उद्योगी हो, (११) महानू पराक्रमी हो, (१२) अशुभ लेश्या सम्बन्धी अशुभ भावनाका त्यागी हो ।
पद्मसिंह मुनि ज्ञानसारम कहते हैं
सुग्णज्झाणे णिःभो चड्गयणिस्से सकरणवावारो । परिरुद्वाचत्तस्रो पावर जोई परं ठाणं ॥ ३९ ॥
भावार्थ- जो योगी निर्विकल्प ध्यानमें लीन है, सर्व इन्द्रि - योंके व्यापारसे विरक्त है, मनके प्रचारको रोकनेवाला है वही योगी निर्वाणके उत्तम पदको पाता है ।
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