________________
दुसरा भाग। १-ऐमा समझोगे । भिक्षु भो ! मेरे उपदेशे धर्म को कुल्ल ( नदी पार दोनेक बेड़े ) के समान पार होने के लिये है। पकड़कर रखनेके लिये नहीं है । हां ! पक कर रखने के लिये नहीं है। भिक्षु मो! तुम इस परिशुद्ध दृष्टों भी आसक्त न होना । हां, भंते । ..
५-भिक्षुओ ! उत्पन्न प्राणियों की स्थिति के लिये आगे उत्पन्न होनेवाले मत्वों के लिये ये चार आहार हैं-११) स्थूल या सूक्ष्म कवलीकार ग्राम लेना), (२) स-माहार, (३) मनः संचेतना
आहार स्मनसे विषय हा स्वयाळ करके तृप्ति काम करना; (४) विज्ञान - (चेतना) इन चारों आहारों का निदान या हेतु या मनुस्य तृष्णा है।
६-भिक्षु मो! इस तृष्णाका निदान या हेतु वेदना है, वेदनाका हेतु स्पर्श है. कमर्शका हेतु षड़ आयतन ( पांच इन्द्रिय व मन ) षड़ पायतनका हेतु नापरूप है, नामरूपका हेतु विज्ञान है, विजानका हेतु संस्कार है, संस्कारका हेतु अविद्या है। इस तरह मूल अवद्यासे लेकर तृष्णा होती है। तृण के कारण उपादान (ग्रहण करनेकी इच्छा) होता है, उपादानके कारण भव (संसार)। भवके कारण जन्म, जन्मके कारण जरा, मरण, शोक. क्रंदन, दुःख, दौमनस्य होता है। इस प्रकार केवल दुःख स्कंधकी उत्पत्ति होती है। इ१ तरह मूल अविद्या के कारण को लेकर दुःख स्कंघकी उत्पत्ति होती है।
७-भिक्षुओ! अविद्याके पूर्णतया विभक्त होनेसे, नष्ट होनेसे, संस्कार का नाश (निरोच) होता है ! संहारके निरोक्से विज्ञानका
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com