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हुमरा माग
विहरता है । चित्तको अभिध्यासे शुद्ध करता है । (२) व्यापाद (द्रोह) दोषको छोड़कर व्यापाद रहित चित्तवाला हो सारे प्राणिकोहिनुरूपी हो विहरता है। व्यापादके दोषसे विचको शुद्ध करता है, (२) स्थान- गृद्धि (शारीरिक, मानसिक आलस्य ) को छोड़, स्वान्गृद्ध रहित हो, मालोक संज्ञावाला (गेशन खयाल) हो, स्मृति और संप्रजन्म (दोश ) से युक्त हो विहरता है, (४) औद्धत्यकोकूत्य (उद्धरने और हिचकिचाहट) को छोड़ अनुद्धत भीत(से शांत हो बिहता है, (५) विचिकित्सा (संदेह ) को छोड़, विचिकित्सा रहित हो, निःसंकोच भाइयों में रम हो विहरता है। इस तरह वह इन अभिध्या आदि पांच नीवरणों को हटाउ शो चिरा मलों को जान उनके दुर्बक करने के लिये काय विषयोंसे अलग हो बुइयों से अलग हो, विवेसे उत्पन्न एवं वितर्क विचारयुक्त मीति सुखा मथम ध्यानको प्राप्त हो विहरता है। और फिर वह बितर्क और विवारके शांत होनेपर भीतरकी प्रपन्नता चितकी एकाग्रताको मतकर वितर्क विचार रहित, समाधि उन प्रीति सुखले द्वितीय ध्यानको प्राप्त हो विहन्ता है और फिर प्रीति और विगग से उपेक्षावाला हो, स्मृति और संप्रजन्यसे युक्त हो, कायासे सुख अनुभव करता विहरता है । जिसको कि आर्य लोग उपेक्षक, स्मृतिम न् और सुखविहारी कहते हैं। ऐसे तृतीय ध्यानको प्राप्त हो विहता है और फि' वह सुख और दुःखके विनाश से, सौमनस्य और दौर्मनस्य के पूर्व ही मस्त हो जाने से, दुःख सुख रहित और उपेक्षक हो, स्मृतिकी शुद्धता से युक्त चतुर्थ ध्यानको प्राप्त हो विहरता है ।
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