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दुसरा भाग ।
मावार्थ - जिनके संसार सागरके पार होनेका तट निकट मागया है उनको इतनी बातोंकी प्राप्ति होती है, (१) इन्द्रियोंके विषयोंसे विरक्त भाव, (२) परियःका त्याग, (३) कोषादि कषार्यो पर विजय, ( ४ ) शांत भाव (५) इन्द्रियों का निशेष, (६) अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व परिग्रह त्याग महाव्रत, (७) तत्वोंका अभ्यास, (८) तपका उद्यम, (९) मनकी वृत्तिका निशेध, (१०) श्री जिनेन्द्र अरहंतों भक्ति, (११) प्राणियों पर दया । ज्ञानार्णवमें कहा है
शीतांशु मिसंपर्काद्वेसर्पति यथाम्बुधिः ।
तथा सद्वृत्तसंसर्गा नृगां प्रज्ञापयोनिधिः ॥ १७-१९ ॥ भावार्थ - जैसे चंद्रमा की किरणोंकी संगति से समुद्र बढ़ता है, वैसे सम्यक् चारित्र के धारी साधुओं की संगति से प्रज्ञा ( भेद विज्ञान) रूपी समुद्र बढ़ता है ।
निखर भुवन. त्वं सनैकप्रदीप
निरुपधिमधिरूढं निर्भरानन्दकः ष्ठाम् ।
परममुनिमनीष द्वेदपर्यन्तभूतं
परिकलय विशुद्धं स्व. रमनात्मानमेव ॥ १०३-३२॥
भावार्थ - तू अपने ही आत्मा के द्वारा सर्व जगतके तत्वोंकों दिखाने के लिये अनुरम दीपक के समान, उपाधिरहित, महान, परमानन्द पूर्ण, परम मुनियोंके भीतर भेद विज्ञान द्वारा प्रगट ऐसे
मात्माका अनुभव कर ।
स कोऽपि परमानन्दो वीतरागस्य जायते ।
येन लोकत्रयैश्वर्यमप्यचिन्त्यं वृणायते ॥ १८-२३ ॥
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