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जैन बौद्ध तत्वज्ञान । [२१७ निःसंगिनेऽपि वृत्त ढ्या निस्नेहा: सुश्रुतिप्रियाः ।
अभूषऽपे तपोभूषास्ते पात्रं योगिनः सदा ॥ २०१।।
भावार्थ -जो परिग्रह रहित होने पर भी चारित्रके धारी हैं, जगतके पदार्थोसे स्नेहरहित होने पर भी सत्य भागमके प्रेमी हैं, भूषण रहित होने पर भी तप ध्यानादि भाभूषणों के धारी हैं ऐसे ही योगी सदा धर्मके पात्र हैं।
मोक्षपाहुडमें कहा हैउद्धज्मलोये केई मज्ज अहय मेगागी । इयभावणाए जोई पार्वति हु सासयं साणं ॥ ८१ ॥
भावार्थ-इस ऊर्थ, अधो, मध्य लोकमें कोई पदार्थ मेरा नहीं है, मैं एकाकी हूं, इस भावनासे मुक्त योगी ही शाश्वत् पद निर्वामको पाता है।
भगवती आराधनामें कहा हैसम्वगंधविमुक्को सीदीभूदो पसण्णचित्तो य । जं पावद पंइसुई ण चक्क वितं लहदि ॥ ११८२ ॥
भावार्थ-जो स धु सर्व परिग्रह रहित है, शांत चित्त है व बसन्नचित्त है उपको जो प्रीति और सुख होता है उसको चक्रवर्ती भी नहीं पासक्ता है।
आत्मानुशासनम कहा हैविषयविरतिः संगत्यागः कषयविनिप्रहः । शमयमदमास्तापासस्तपश्चणे द्याः ॥ नियमितमनोवृत्तिभक्तानेषु दयालुता । भवति कतिनः संसाराब्धेस्तटे निपटे सति ॥ २२ ॥
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