________________
दूसरा भाग।
जैन सिद्धांतके कुछ वाक्यसारसमुच्चयमें कहा है-- जानध्यानोपवासश्च परीषहजयेप्तथा। शोळसंयमयोगश्च स्वात्मानं भावयेत् सदा ॥ ८॥
भावार्थ-साधुको योग्य है कि शास्त्रज्ञान, आत्मध्यान, तथा उपवासादि तप करते हुए, तथा क्षुश तृा. दुर्वचन, मादि परी'पहोंको जीतते हुए, शील संयम तथा योगाभ्यासके साथ अपने शुद्धात्माकी या निर्वाणकी भावना करे ।
गुरुशुश्रूषया जन्म चित्तं सद्धय नचिन्तया। श्रुतं यस्य समे याति विनियोग स पुण्यमाक् ॥ १९॥
भावार्थ-निसका जन्म गुरुकी सेवा करनेमें, मन यथार्थ ध्यानके साधन, शास्त्रज्ञान समताभावके धारणमें काम आता है वही पुण्यात्मा है।
काषायान् शत्रुवत् पश्ये द्विषयान् विषपत्तथा । .. मोहं च परमं व्याधिमे मृचुविचक्षणः ॥ ३५॥ ___ भावार्थ-कामक्रोधादि कषायोंको शत्रुके समान देखे, इन्द्रि. योंके विषयोंको विषके बराबर जाने, मोहको बड़ा भारी रोग जाने, ऐसा ज्ञानी आच योने उपदेश दिए है।
धर्मामृतं सदा पे दुःख तकविनाशनम् । यस्मिन् पीते परं सौख्यं जीवानां जायते सदा ॥ ६३ ।।
भावार्थ-दुःखरूपी रोगोंको नाश करनेवाले घ मृतका सदा पान करना चाहिये। अर्थात धर्मके स्वरूपको भक्तिसे जानना, सुनना ब मनन करना चाहिये, जिप्त धर्मामृतके पीने से जीवोंको परम सुख सदा ही रहता है।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com