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दूसरा भाग ।
सारसे जो काम लेना है वह मतलब पूर्ण होगा । ऐसे ही वह कुछ
पुत्र अकालिक मोक्षसे च्युत न होगा ।
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इस प्रकार भिक्षुओ ! यह ब्रह्मचर्य ( भिक्षुपद ) लाभ, सत्कार श्लोक पानेके लिये नहीं हैं, शील संपत्ति लाभके लिये नहीं हैं, न समाधि संपत्ति के लाभके लिये हैं, न ज्ञानदर्शन ( तत्वको ज्ञान और साक्षात्कार ) के लाभ के लिये हैं । जो यह न च्युत होनेवाली चित्रकी मुक्ति है इसके लिये यह ब्रह्मचर्य है, यही सार है, यही अन्तिम निष्कर्ष है ।
नोट - इस सूत्र में बताया है कि साधकको मात्र एक निर्वाण लाभका ही उद्देश्य रखना चाहिये। जबतक निर्वाणका लाभ न हो तबतक नीचेकी श्रेणियों में संतोष नहीं मानना चाहिये, न किसी प्रकारका अभिमान करना चाहिये। जैसे सारको चाहनेवाला वृक्षकी शास्त्रा आदि ग्रहण करेगा तो सार नहीं मिलेगा । जब सारको ही पासकेगा तब ही उसका इच्छित फल सिद्ध होगा । उसी तरह साधुको लाभ सत्कार इलोक में संतोष न मानना चाहिये, न अभिमान करना चाहिये । शीळ या व्यवहार चारित्रकी योग्यता प्राप्तकर भी संतोष मानकर बैठ न रहना चाहिये, आगे समाधि प्राप्तिका उद्यम करना चाहिये । समाधिकी योग्यता होजाने पर फिर समाधिके बल से ज्ञानदर्शनका आराधन करना चाहिये ! अर्थात् शुद्ध ज्ञानदर्शनमय होकर रहना चाहिये | फिर उससे मोक्षभावका अनुभव करना चाहिये । इस तरह वह शाश्वत् मोक्षको पा लेता है ।
जैन सिद्धांतानुसार भी यही भाव है कि साधुको ख्याति
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